सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।। धीरजु धरहीं बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।_अर्थ_मूर्खलोग सुख में हर्षित होते हैं और दु:ख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी ( रक्षक ) ! आप विवेक विचारकर धीरज धरिये और शोक का परित्याग कीजिये।
प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरी तीर। न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ वीर।।_अर्थ_ श्रीरामजी का पहला निवास ( मुकाम ) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर पर। सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे।
केवट कीन्ह बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवांई।। होत प्रात बट छीर मंगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।_अर्थ_ केवट ( निषादराज ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर ( श्रृंगवेरपुर ) मं ही बितायी। दूसरे दिन सवेरा होते ही बड़ का दूध मंगवाया और उससे श्रीराम_लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाये।
रामसखा तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाई चले रघुराई।। लखन बान धनु धरे बनाई। आप चढ़े प्रभु आयसु पाई।।_अर्थ_ तब श्रीरामचन्द्रजी के सखा निषादराज ने नाव मंगवायी। पहले प्रिया सीताजी को उसपर चढ़ाकर फिर श्रीरघुनाथजी चढ़े। फिर लक्ष्मणजी ने धनुष _बाण सजाकर रखें और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े।
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।। तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू।।_अर्थ_ मुझे व्याकुल देखकर श्रीरामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले_ हे तात ! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी और से बार_बार उनके चरण_कमल पकड़ना।।
करबि पायं परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।। बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।_अर्थ_फिर पांव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी ! आप मेरी चिंता न कीजिये। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारी कुशल मंगल होगा।
तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं। प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरिंं आइहौं।। जननीं सकल परितोषि परि परि पायं करी बिनती घनी। तुलसी करहु सोई जतन जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी।।_अर्थ_हे पिताजी ! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊंगा। आज्ञा का भलीभांति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशलपूर्वक फिर आऊंगा। सब माताओं के पैरों पड़ _पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके_तुलसीदास कहते हैं _तुम वहीं प्रयत्न करना जिसमें कोसलपति पिताजी प्रसन्न रहें।
गुर सन कहब संदेसु बार बार पद पदुम गहि। करब सोई उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।_अर्थ_बार_बार चरणकमलों को पकड़कर गुरु वसिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि ये वही उपदेश दें जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें।
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।। सोई सब भांति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।_अर्थ_हे तात ! सब प्रवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा ( अनुरोध ) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।
कहब संदेसु भरत के आएं। नीति न तजिअ राजपदु पाएं।। पालेहु प्रजहि कर्म मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।_अर्थ_भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना; कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना।
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।। तात भांति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करें न काऊ।।_अर्थ_और हे भाई ! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपने को अन्त तक निबाहना। हे तात ! राजा ( पिताजी ) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी ( किसी तरह भी ) मेरा सोच न करें।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।। बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।_अर्थ_लक्ष्मणने कुछ कठोर वचन कहे। किन्तु श्रीरामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार_बार अपनी सौगंध दिलायी ( और कहा_ ) से तात ! लक्ष्मण का लड़कपन वहां न कहना।
कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह। थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।_अर्थ_प्रणाम कर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, किन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गयीं। उनकी वाणी रुक गयी, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया।
तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।। रघुकुलतिलक चले एहि भांती। देखउं ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।_अर्थ_उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिये नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंशतिलक श्रीरामचन्द्रजी चल दिये और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा_खड़ा देखता रहा।
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरौ लेइ राम संदेसू।। अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि ग्लानि सोच बस भयऊ।।_अर्थ_मैं अपने क्लेश को कैसे कहूं, जो श्रीरामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया ! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गयी ( वे चुप हो गये ) और वे हानि की ग्लानि और सोचवश हो गये।
सूत बचन सुनहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।। तलफत बिषय मोह मन मापा। माजा मनहुं मीन कर ब्यापा।।_अर्थ_सारथि सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। मानो मछली को मांजा व्याप गया हो ( पहली वर्षा का जल लग गया हो )।
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।। सुनि बिलाप दुखहू दुखी लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।_अर्थ_सब रानियां विलाप करके रो रही हैं। उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाय ? उस समय के विलाप को सुनकर दु:ख को भी दु:ख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया।
भयउ कोलाहल अवध अति सुनि नृप राउर सोरु। बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुं कुलिस कठोर।।_अर्थ_ राजा के रावले ( रनिवास ) में रोने का शोर सुनकर अयोध्या में बड़ा भारी कुहराम मच गया। ( ऐसा जान पड़ता था ) मानो पक्षियों के विशाल वन में आ रात के समय कठोर वज्र गिरा हो।
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि विहीन जनु व्याकुल ब्यालू।। इंद्रीं सकल बिकल भईं भारी। जनु सर सरसिज बनी बिनु बारी।।_अर्थ_राजा के प्राण कंठ में आ गये। मानो मणि के बिना सांप व्याकुल ( मरणासन्न ) हो गया हो। इन्द्रियां सभी बहुत ही विकल हो गयीं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया है।
कौसल्या नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबी अंथयउ जाय जाना।। उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।_अर्थ_ कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला ! तब श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं_
नाथ समुझि मन करिअ विचारू। राम वियोग पयोधि अपारू।। करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक ममाजू।।_अर्थ_हे नाथ ! आप मन में समझकर विचार कीजिये कि श्रीरामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है और आप उसके कर्णधार ( खेनेवाले ) हैं। सब प्रियजन ( कुटुम्बी और प्रजा ) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है।