धीरजु धरिअ तो पाइअ पारू। नहीं तो बूड़िहिं सभी परिवारू।। जौं जियं धरिअ बिनय प्रिय मोरी। रामु लखनऊ सिय मिलहिं बहोरी।।_अर्थ_आप धीरज धरियेगा, तो सब पार पहुंच जायेंगे। नहिं तो सारा परिवार डूब जायगा। हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजियेगा तो श्रीराम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे।
प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आंखि उघारि। तलफत मीन मलीन जनु सींचती सीतल बारि।।_अर्थ_प्रिय पत्नी कौशल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आंखें खोलकर देखा। मानो तड़पती हुई दिन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो।
धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहं राम कृपालू।। कहां लखनु कहं राम सनेही। कहं प्रिय पुत्रवधू बैदेही।।_अर्थ_धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले_सुमंत्र ! कहो, कृपालु राम कहां हैं ? लक्ष्मण कहां हैं ? स्नेही राम कहां हैं ? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहां है ?
बिलपत राउ बिकल बहुत भांती। भइ जुग सरिस सिरात न राती।। तापस अंध साप सुनि आई। कौसल्यहिं सब कथा सुनाई।।_अर्थ_राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गयी, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी ( श्रवणकुमार के पिता ) के शाप की याद आ गयी। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनायी।
भयऊ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।। सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहि न प्रेमु पन मोर निबाहा।।_अर्थ_उस इतिहास का वर्णन करते_करते राजा व्याकुल हो गये और कहने लगे कि श्रीराम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूंगा जिसने मेरा प्रेम का पन नहीं निबाहा।
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।। हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।।_अर्थ_हा रघुकुल को आनंद देनेवाले मेरे प्राण प्यारे राम ! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गये। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुबर ! हा पिता के चित्तरूपी चातक के हित करनेवाले मेघ !
राम राम कहि राम कहां राम राम कहि राम। तनु परिहरि रघुबर बिरहं राउ गयी सुरधाम।।_अर्थ_राम_राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्रीराम के विरह में शरीर त्यागकर सुरलोक को सिधार गये।
जिअन मरन फल दशरथ पावा। अंड अनेक अमल जस छावा।। जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु संवारा।।_अर्थ_जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्माण्डों में छा गया। जीते_जी तो श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और श्रीराम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया।
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