Wednesday, 28 February 2024

अयोध्याकाण्ड

कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहिं लायक सो तेहिं राखा।। करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।_अर्थ_भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया ; और जो जिस योग्य था उसे उसी काम पर नियुक्त किया। सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राजमाता कौसल्याजी के पास गये।







आरती जननी जानि सब भरत सनेह सुजान। कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।_अर्थ_स्नेह के सुजान ( प्रेम के तत्व को जाननेवाले ) भरतजी ने सब माताओं को आर्त ( दु:खी ) जानकर उनके लिये पालकियां तैयार करने और सुखासन यान ( सुखपाल सजाने के लिये कहा।







चक्क चक्की जिमि पुर नर नारी। चाहत प्रात उर आरत भारी।। जागते सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाएं सचिव सुजाना।।_अर्थ_नगर के नर_नारी चकवे_चकवी की भांति हृदय में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं। सारी रात जागते_जागते सवेरा हो गया। तब भरतजी ने चतुर मंत्रियों को बुलाया।








कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।। बेगि चलिहउं सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग संवारे।।_अर्थ_और कहा_तिल का सब सामान ले चलो। वन में ही मुनि वसिष्ठ जी श्रीरामचन्द्रजी को राज्य दे देंगे, जल्दी चलो। यह सुनकर मंत्रियों ने वन्दना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिये।









अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ। बिप्र बृंद चढ़ि वाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।_अर्थ_सबसे पहले मुनिराज वसिष्ठ जी अरुंधति और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब_के_सब तपस्या और तेज के भण्डार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले।







नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहं कीन्ह पयाना।। सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी।।_नगर के सब लोग रथों को सजा_सजाकर चित्रकूट को चल पड़े। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी पालकियों पर चढ़_चढ़कर सब रानियां चलीं।







सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ। सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।_अर्थ_विश्वासपात्र सेवकों को नगर सौंपकर और सबको आदरपूर्वक रवाना करके, तब श्रीसीतारामजी के चरणों को स्मरण करके दोनों भाई चले।





राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।। बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के वश में हुए ( दर्शन की अनन्य लालसा से ) सब नर नारी ऐसे चले मानो प्यासे हाथी_हथिनी जल को तककर ( बड़ी तेजी से बावले हुए ) जा रहे हों। श्रीसीतारामजी ( सब सुखों को छोड़कर ) वन में हैं, मन में ऐसा विचारके छोटे भाई शत्रुध्नजीसहित भरतजी पैदल ही चले जा रहे हैं।








देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरा चले हम गया रथ त्यागे।। जाइ समीप राखि निज डोली। रामु मातु मृदु बानी बोली।।_अर्थ_उनका स्नेह जानकर लोग प्रेम में मग्न हो गये और सब घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर उनसे उतरकर पैदल चलने लगे। तब श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी भरतजी के पास जाकर अपनी पालकी उनके समीप खड़ी करके कोमल वाणी से बोलीं__







तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।। तुम्हें चलत चलइहइ सबु लोगू। सकल सोक कृष नहिं मग जोगू।।_अर्थ_हे बेटा ! माता बलऐयआं लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ, नहिं तो सारा प्यारा परिवार दु:खी हो जायगा। तुम्हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलेंगे। शोक के मारे सब दुबले हो रहे हैं पैदल रास्ते के ( पैदल चलने के ) योग्य नहीं है।






सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।। तमसा प्रथम दिवस करि बासू।। दूसर गोमति तीर निवासू।।_अर्थ_माता की आज्ञा सिर चढ़ाकर और उनके चरणों में सिर नवाकर दोनों भाई रथ पर चढ़कर चलने लगे। पहले दिन तमसा पर वास ( मुकाम ) करके दूसरा मुकाम गोमति के तीर पर किया।





पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग। करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।_अर्थ_कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते हैं। भूषण और भोग_विलास को छोड़कर सब लोग श्रीरामचन्द्रजी के लिये नियम और व्रत करते हैं।







सईं तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।। समाचार सब सुने निषादा। हृदयं बिचार करइ सबिषादा।।_अर्थ_रातभर सई नदी के तीर पर निवास करके सवेरे वहां से चल दिये और  सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुंचे । निषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दु:खी होकर हृदय में विचार करने लगा_








कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।। जौं पै जियं न होति कुटिलाईं। जौं कत लीन्ह संग कटकाई।।_अर्थ_क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं, मन में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं।








जाहिं सानुज रामहिं मारी। करउं अकंटक राजु सुखारी।। भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।_अर्थ_समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्रीरामजी को मारकर सुख से निष्कंटक राज्य करूंगा। भरत ने हृदय में राजनीति को स्थान नहीं दिया ( राजनीति का विचार नहीं किया )। तब ( पहले ) तो कलंक ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा।








सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहिं समर न  जीतनिहारा।। का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।_अर्थ_संपूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जायें, तो भी श्रीरामजी को रण में जीतनेवाला कोई नहीं है। भरत जो ऐसा कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? विष की बेलें अमृत फल कभी नहीं फलती।





अस बिचारि गुहं ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु। हथवांसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।_अर्थ_ऐसा विचाकर गुह  ( निषादराज) ने अपनी जाति वालों से कहा कि सबलोग सावधान हो जाओ। नावों को हाथ में ( कब्जे में ) कर लो और फिर उन्हें डुबा दो तथा सब घाटों को रोक दो।






Saturday, 10 February 2024

अयोध्याकाण्ड

मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल स्नेहन बिकल में भारी।। भरतहिं कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।_अर्थ_माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री_पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत _ही व्याकुल हो गये। सब भरतजी को सराह_सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्रीरामप्रेम की साक्षात् मूर्ति ही है।



तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।। जो पावंरउ अपनी जड़तआई। तुम्हहीं सुगाइ मातु कुटिलाईं।।_अर्थ_हे तात भरत ! आप ऐसा क्यों न कहें।  श्रीरामजी को आप प्राणों के समान प्यारे हैं। जो नीच अपनी मूर्खता से आपकी माता कैकेई की कुटिलता को लेकर आपपर संदेह करेगा।




सो सब कोटिक पुरुष समेता। बसिहिं कलप षट नरक निकेता।। अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरई गरल दुख दारिद गहई।।_अर्थ_वह दुष्ट करोड़ों पुरखों सहित सौ कल्पों तक नरक के घर में निवास करेगा। सांप के पाप और अवगुण को मणि नहीं ग्रहण करती। बल्कि वह विष को हर लेती है और दु:ख तथा दरिद्रता को भस्म कर देती है।




अवसि चलिअ बन रामु जहां भरत मंत्र भल कीन्ह। सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलम्बन दीन्ह।।_अर्थ_हे भरतजी ! वन को अवश्य चलिये, जहां श्रीरामजी हैं। आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी। शोक समुद्र में डूबते हुए सब लोगों को आपने बहुत ( बड़ा ) सहारा दे दिया।




भा सबके मन मोदु ने थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।। चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रान प्रिय भें सबही के।।_अर्थ_सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ ( अर्थात् बहुत ही आनंद हुआ ) मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक आनंदित हो रहे हों। ( दूसरे दिन ) प्रातःकाल चलने का सुन्दर निर्णय देखकर भरतजी सभी के प्राण प्रिय हो गये।




मुनिहिं बंदि भरतहिं सिरु नाई। चले सकल घर विदा कराई।। धन्य भरत जीवन जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाही।।_अर्थ_मुनि वसिष्ठ जी की वन्दना करके और भरतजी को सिर नवाकर सब लोग विदा लेकर अपने_अपने घर को चले। जगत् में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते हुए वे उनके शील  स्नेह की सराहना करते जाते हैं।




कहहिं परस्पर भा बड़ काजू। सकल चले कर साजहिं साजू।। जेहिं राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।_अर्थ_आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिये रहो, ऐसा कहकर रखते हैं, वहीं समझता है मानो मेरी गर्दन मारी गयी।




कोऊ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।_अर्थ_कोई कोई कहते हैं_रहने के लिये किसी को भी मत कहो, जगत् में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता ?




जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृदु मातु पितु भाई। सनमुख हो जो राम पद करै न सहस सहाई।।_अर्थ_यह संपति, घर, सुख, माता_पिता, भाई जल जाय जो श्रीमजी के चरणों के सम्मुख होने में हंसते हुए ( प्रसन्नतापूर्वक ) सहायता न करे।




घर घर साजहिं वाहन नाना। हरषु हृदय परभात पयाना।। भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजी गज भवन भंडारू।।_अर्थ_घर_घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियां  सजा रहे हैं। हृदय में बड़ा हर्ष है कि सवेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार किया कि नगर घोड़े _हाथी, नगर, खजाना आदि_





संपति सब रघुपति के आही। जौं बिनु जतन चलौं तजि ताही।। जौं परिणाम न मोहि भलाई। पाप सइरओमनइ साईं दोहाई।_अर्थ_सारी सम्पत्ति श्रीरघुनाथजी की है। यदि उसकी रक्षा की व्यवस्था किये बिना, उसे ऐसे ही छोड़कर चल दूं, तो परिणाम में मेरी भलाई नहीं है। क्योंकि स्वामी का द्रोह सब पापों का शिरोमणि है।





करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।। अस बिचारी सुचि सेवक बोले। जे सनेहु निज धरम न डोले।।_अर्थ_सेवक वहीं है जो स्वाऔऔमि का हित करे, चाहे कोई करोड़ों दोष क्यों न दे। भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया जो कभी स्वप्न में भी अपने धर्म से नहीं डिगे थे।





कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहिं लायक सो तेहिं राखा।। करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।_अर्थ_भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया ; और जो जिस योग्य था उसे उसी काम पर नियुक्त किया। सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राजमाता कौसल्याजी के पास गये।