मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल स्नेहन बिकल में भारी।। भरतहिं कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।_अर्थ_माता, मंत्री, गुरु, नगर के स्त्री_पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत _ही व्याकुल हो गये। सब भरतजी को सराह_सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्रीरामप्रेम की साक्षात् मूर्ति ही है।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।। जो पावंरउ अपनी जड़तआई। तुम्हहीं सुगाइ मातु कुटिलाईं।।_अर्थ_हे तात भरत ! आप ऐसा क्यों न कहें। श्रीरामजी को आप प्राणों के समान प्यारे हैं। जो नीच अपनी मूर्खता से आपकी माता कैकेई की कुटिलता को लेकर आपपर संदेह करेगा।
सो सब कोटिक पुरुष समेता। बसिहिं कलप षट नरक निकेता।। अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरई गरल दुख दारिद गहई।।_अर्थ_वह दुष्ट करोड़ों पुरखों सहित सौ कल्पों तक नरक के घर में निवास करेगा। सांप के पाप और अवगुण को मणि नहीं ग्रहण करती। बल्कि वह विष को हर लेती है और दु:ख तथा दरिद्रता को भस्म कर देती है।
अवसि चलिअ बन रामु जहां भरत मंत्र भल कीन्ह। सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलम्बन दीन्ह।।_अर्थ_हे भरतजी ! वन को अवश्य चलिये, जहां श्रीरामजी हैं। आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी। शोक समुद्र में डूबते हुए सब लोगों को आपने बहुत ( बड़ा ) सहारा दे दिया।
भा सबके मन मोदु ने थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।। चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रान प्रिय भें सबही के।।_अर्थ_सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ ( अर्थात् बहुत ही आनंद हुआ ) मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक आनंदित हो रहे हों। ( दूसरे दिन ) प्रातःकाल चलने का सुन्दर निर्णय देखकर भरतजी सभी के प्राण प्रिय हो गये।
मुनिहिं बंदि भरतहिं सिरु नाई। चले सकल घर विदा कराई।। धन्य भरत जीवन जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाही।।_अर्थ_मुनि वसिष्ठ जी की वन्दना करके और भरतजी को सिर नवाकर सब लोग विदा लेकर अपने_अपने घर को चले। जगत् में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते हुए वे उनके शील स्नेह की सराहना करते जाते हैं।
कहहिं परस्पर भा बड़ काजू। सकल चले कर साजहिं साजू।। जेहिं राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।_अर्थ_आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिये रहो, ऐसा कहकर रखते हैं, वहीं समझता है मानो मेरी गर्दन मारी गयी।
कोऊ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।_अर्थ_कोई कोई कहते हैं_रहने के लिये किसी को भी मत कहो, जगत् में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता ?
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृदु मातु पितु भाई। सनमुख हो जो राम पद करै न सहस सहाई।।_अर्थ_यह संपति, घर, सुख, माता_पिता, भाई जल जाय जो श्रीमजी के चरणों के सम्मुख होने में हंसते हुए ( प्रसन्नतापूर्वक ) सहायता न करे।
घर घर साजहिं वाहन नाना। हरषु हृदय परभात पयाना।। भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजी गज भवन भंडारू।।_अर्थ_घर_घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियां सजा रहे हैं। हृदय में बड़ा हर्ष है कि सवेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार किया कि नगर घोड़े _हाथी, नगर, खजाना आदि_
संपति सब रघुपति के आही। जौं बिनु जतन चलौं तजि ताही।। जौं परिणाम न मोहि भलाई। पाप सइरओमनइ साईं दोहाई।_अर्थ_सारी सम्पत्ति श्रीरघुनाथजी की है। यदि उसकी रक्षा की व्यवस्था किये बिना, उसे ऐसे ही छोड़कर चल दूं, तो परिणाम में मेरी भलाई नहीं है। क्योंकि स्वामी का द्रोह सब पापों का शिरोमणि है।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।। अस बिचारी सुचि सेवक बोले। जे सनेहु निज धरम न डोले।।_अर्थ_सेवक वहीं है जो स्वाऔऔमि का हित करे, चाहे कोई करोड़ों दोष क्यों न दे। भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया जो कभी स्वप्न में भी अपने धर्म से नहीं डिगे थे।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहिं लायक सो तेहिं राखा।। करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।_अर्थ_भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया ; और जो जिस योग्य था उसे उसी काम पर नियुक्त किया। सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राजमाता कौसल्याजी के पास गये।
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