सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस रही मन मागी।। गुरुपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।_अर्थ_सीताजी आकर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मनमांगी उचित आशीष पायीं। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरुपत्नी अरुंधतिजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।। सासु सकल जब सीयं निहारीं। मूंदे नयन सहमि सुकुमारी।।_अर्थ_सीताजी ने सभी के चरणों को अलग_अलग वन्दना करके अपने हृदय को प्रिय ( अनुकूल ) लगनेवाले आशीर्वाद पाये। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आंखें बन्द कर लीं।
परीं बधिक बस मनहुं मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचाली।। तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सब सहिअ जो दैव सहावा।।_अर्थ_( सासुओं की बुरी दशा देखकर ) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियां बधिक के वश में पड़ गयी हों। ( मन में सोचने लगीं कि ) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला ? उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दु:ख पाया। ( सोचा ) जो कुछ दैव सहावें, वो सब सहना ही पड़ता है।
जनक सुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा। मिलि सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुणा महि छाई।।_अर्थ_ तब जानकी जी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी कर करुणा ( करुण_रस ) छा गयी।
लागी लागी पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग। हृदय असीसहिं पेम बस रहइअहउ भरी सोहाग।_अर्थ_ सीताजी सबके पैरों लग_लगकर प्रेम से मिले रही हैं, और सब सासुओं प्रेमवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो ( सदा सौभाग्यवती रहो ) ।
बिकल सनेह सीय सब रानीं। बैठन सबहिं कहेउ गुर ग्यानीं।। कहि जग मायिक मुनिनाथा। कहे कछउक परमार्थ गाथा।।_अर्थ_ सीताजी और सब रानियां स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ग्यानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिये कहा। फिर मुनिनाथ बसिष्ठजी ने जगत् की गति को मायिक कहकर ( अर्थात् जगत् माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर ) कुछ परमार्थ की कथाएं ( बातें ) कहीं।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।। मरन हेतु निज नेहरु बिचारी। भए अति बिकल धीर धुर धारी।।_अर्थ_तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथ जी के स्वर्ग गमन की बात सुनायी, जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दु:सह दु:ख पाया। और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धईरधउरन्धर श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गये।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीता सब रानी।। सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहु राजु अकाजेउ राजू।।_अर्थ_ वज्र के समान कड़वी बाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियां विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यंत व्याकुल हो गया। मानो राजा आज ही मरे हों।
मुनिबर बहुरि राम समझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।। ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहुं कहे जल काहु न लीन्हा।।_अर्थ_फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्रीराम को समझाया। तब उन्होंने समाजसहित श्रेष्ठ मन्दाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया।
भोरु भएं रघुनंदनहिं जो मुनि आयसु दीन्ह। श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सब सादरु कीन्ह।।_अर्थ_दूसरे दिन सवेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्रीरघुनाथजी को जो_जो आज्ञा दी वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने श्रद्धा_भक्तिसहित आदर के साथ किया।
करि पितु क्रिया बेद जिस बरनी। भए पुनीत पातक तम तरनी।। जासु नाम पावक अघ तूला।_अर्थ_वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पापरुपी अन्धकार के नष्ट करनेवाले शुद्धरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरुपी रूई के ( तुरंत जला डालने के ) लिये अग्नि है; और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।। सुद्ध भए दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।_अर्थ_वे ( नित्य शुद्ध_बुध ) भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए। साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाह्न से गंगाजी शुद्ध होती हैं। ( गंगाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उल्टे वे ही गंगाजी के संपर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्द रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संपर्क से कर्म ही शुद।ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुजजी से बोले_)
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।। सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।_अर्थ_हे नाथ ! सब लोग यहां अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई भरत को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक_एक पल युग के समान बीत रहा है।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु यहां अमरावती राऊ।। बहुत कहुं सब किअउं ढ़िठाई।
उचित होइ तस करिअ गोसाईं।।_अर्थ_अत:सबके साथ आप अयोध्यावासी को पधारिये ( लौट जाइये )। आप यहां हैं और राजा अमरावती ( स्वर्ग)_मे़ हैं ( अयोध्यापुरी सूनी है) ! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढ़िठाई की है। है गोसाईं ! जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये।
धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम। लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुं विश्राम।।_अर्थ_( वशिष्ठजी ने कहा_) हे राम ! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो ? लोग दु:खी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें।
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुं बिकल जहाजू।। सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुं मारुत अनुकूला।।_अर्थ_श्रीरामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी तो उस जहाज के लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी हो।
पावन पयं तिहुं काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं।। मंगल मूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हर्षित दण्डित करि करि।।_अर्थ_सब लोग पवित्र पयस्वनि नदी में ( अथवा पयस्वनि नदी के पवित्र जल में ) तीनों समय ( सबेरे, दोपहर और सायंकाल ) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मंगलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजी को दण्डवत् प्रणाम कर_करके उन्हें नेत्र भर_भरकर देखते हैं।
राम सैल बन देखने जाहीं। जहं सुख सकल सकल दुख नाहीं।। झरना झरहिं सउधआसम बारी। त्रिबिधि तापहर त्रिबिधि बयारी।।_अर्थ_ सब श्रीरामचन्द्रजी के पर्वत ( कामदगिरि ) और वन को देखने जाते हैं, जहां सभी सुख हैं और सभी दु:खों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की ( शीतल, मंद, सुगंध ) हवा तीनों प्रकार के ( आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक ) तापों को हर लेती है।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहुत भांति।। सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।_अर्थ_असंख्य जाति के वृक्ष, लताएं और तृण हैं, तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएं हैं। वृक्षों की छाया सुख देनेवाली है। वन की शोभा किस्से वर्णन की जा सकती है ? सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजित भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहु रंग।।_अर्थ_तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूजत रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वऐररहइत होकर विहार कर रहे हैं।