Wednesday, 25 December 2024

अयोध्याकाण्ड

सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस रही मन मागी।। गुरुपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।_अर्थ_सीताजी आकर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मनमांगी उचित आशीष पायीं। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरुपत्नी अरुंधतिजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता।

बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।। सासु सकल जब सीयं निहारीं। मूंदे नयन सहमि सुकुमारी।।_अर्थ_सीताजी ने सभी के चरणों को अलग_अलग वन्दना करके अपने हृदय को प्रिय ( अनुकूल ) लगनेवाले आशीर्वाद पाये। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आंखें बन्द कर लीं।

परीं बधिक बस मनहुं मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचाली।। तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सब सहिअ जो दैव सहावा।।_अर्थ_( सासुओं की बुरी दशा देखकर ) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियां बधिक के वश में पड़ गयी हों। ( मन में सोचने लगीं कि ) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला ? उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दु:ख पाया। ( सोचा ) जो कुछ दैव सहावें, वो सब सहना ही पड़ता है।

जनक सुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा‌। मिलि सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुणा महि छाई।।_अर्थ_ तब जानकी जी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी कर करुणा ( करुण_रस ) छा गयी।

लागी लागी पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग। हृदय असीसहिं पेम बस रहइअहउ भरी सोहाग।_अर्थ_ सीताजी सबके पैरों लग_लगकर प्रेम से मिले रही हैं, और सब सासुओं प्रेमवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो ( सदा सौभाग्यवती रहो ) ।

बिकल सनेह सीय सब रानीं। बैठन सबहिं कहेउ गुर ग्यानीं।। कहि जग मायिक मुनिनाथा। कहे कछउक परमार्थ गाथा।।_अर्थ_ सीताजी और सब रानियां स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ग्यानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिये कहा। फिर मुनिनाथ बसिष्ठजी ने जगत् की गति को मायिक कहकर ( अर्थात् जगत् माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर ) कुछ परमार्थ की कथाएं ( बातें ) कहीं।

नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह  दुखु पावा।। मरन हेतु निज नेहरु बिचारी। भए अति बिकल धीर धुर धारी।।_अर्थ_तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथ जी के स्वर्ग गमन की बात सुनायी, जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दु:सह दु:ख पाया।  और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धईरधउरन्धर श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गये।

कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीता सब रानी।। सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहु राजु अकाजेउ राजू।।_अर्थ_ वज्र के समान कड़वी बाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियां विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यंत व्याकुल हो गया। मानो राजा आज ही मरे हों।

मुनिबर बहुरि राम समझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।। ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहुं कहे जल काहु न लीन्हा।।_अर्थ_फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्रीराम को समझाया। तब उन्होंने समाजसहित श्रेष्ठ मन्दाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया।

भोरु भएं रघुनंदनहिं जो मुनि आयसु दीन्ह। श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सब सादरु कीन्ह।।_अर्थ_दूसरे दिन सवेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्रीरघुनाथजी को जो_जो आज्ञा दी वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने श्रद्धा_भक्तिसहित आदर के साथ किया।

करि पितु क्रिया बेद जिस बरनी। भए पुनीत पातक तम तरनी।। जासु नाम पावक अघ तूला।_अर्थ_वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पापरुपी अन्धकार के नष्ट करनेवाले शुद्धरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरुपी रूई के ( तुरंत जला डालने के ) लिये अग्नि है; और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है।

सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।। सुद्ध भए दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।_अर्थ_वे ( नित्य शुद्ध_बुध ) भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए। साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाह्न से गंगाजी शुद्ध होती हैं। ( गंगाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उल्टे वे ही गंगाजी के संपर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्द रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संपर्क से कर्म ही शुद।ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुजजी से बोले_)

नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।। सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।_अर्थ_हे नाथ ! सब लोग यहां अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई भरत  को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक_एक पल युग के समान बीत रहा है।

सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु यहां अमरावती राऊ।। बहुत कहुं सब किअउं ढ़िठाई।
उचित होइ तस करिअ गोसाईं।।_अर्थ_अत:सबके साथ आप अयोध्यावासी को पधारिये ( लौट जाइये )। आप यहां हैं और राजा  अमरावती ( स्वर्ग)_मे़ हैं ( अयोध्यापुरी सूनी है) ! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढ़िठाई की है। है गोसाईं ! जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये।

धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम। लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुं विश्राम।।_अर्थ_( वशिष्ठजी ने कहा_) हे राम ! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो ? लोग दु:खी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें।

राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुं बिकल जहाजू।। सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुं मारुत अनुकूला।।_अर्थ_श्रीरामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी तो उस जहाज के लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी हो।

पावन पयं तिहुं काल नहाहीं।  जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं।। मंगल मूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हर्षित दण्डित करि करि।।_अर्थ_सब लोग पवित्र पयस्वनि नदी में ( अथवा पयस्वनि नदी के पवित्र जल में ) तीनों समय ( सबेरे, दोपहर और सायंकाल ) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मंगलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजी को दण्डवत् प्रणाम कर_करके उन्हें नेत्र भर_भरकर देखते हैं।

राम सैल बन देखने जाहीं। जहं सुख सकल सकल दुख नाहीं।। झरना झरहिं सउधआसम बारी। त्रिबिधि तापहर त्रिबिधि बयारी।।_अर्थ_ सब श्रीरामचन्द्रजी के पर्वत ( कामदगिरि ) और वन को देखने जाते हैं, जहां सभी सुख हैं और सभी दु:खों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की ( शीतल, मंद, सुगंध ) हवा तीनों प्रकार के ( आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक ) तापों को हर लेती है।

बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहुत भांति।। सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।_अर्थ_असंख्य जाति के वृक्ष, लताएं और तृण हैं, तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएं हैं। वृक्षों की छाया सुख देनेवाली है। वन की शोभा किस्से वर्णन की जा सकती है ? सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजित भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहु रंग।।_अर्थ_तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूजत रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वऐररहइत होकर विहार कर रहे हैं।


Tuesday, 3 December 2024

अयोध्याकाण्ड

मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम। भूरि भायं भेंटे भरत लछिमन करत प्रणाम।।_अर्थ_फिर श्रीरामजी प्रेम के साथ शत्रुध्न से मिलकर तब केवट ( निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े प्रेम से मिले।

भेंटेउ भरत ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई‌‌।_अर्थ_ तब लक्ष्मणजी ललककर ( बड़ी उमंग के साथ ) छोटे भाई शत्रुध्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत_शत्रुध्न दोनों भाइयों ने ( उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनन्दित हुए।

सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।। पुनि पुनि करत प्रनामु उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।_अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी प्रेम में उमंगकर सीताजी के चरणकमलों की रज सिर पर धारण कर बार_बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श 
कर ( सिर पर हाथ फेरकर ) उन दोनों को बैठाया

सीयं असीस दीन्ह मन माहीं। मगन सनेहं देह सुधि नाहीं।। सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।_अर्थ_सीताजी ने मन_ही_मन आशीर्वाद दिया; क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध_बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गये और उनके मन का कल्पित भय जाता रहा।

कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूंछा। प्रेम भरा मन निज गति छूंछा।।तेहि अवसर केवटु धीरज धरि। जोरी पानि बिनवत प्रनामु करि।।_अर्थ_उस समय न तो कोई कुछ कहता है और न कोई कुछ पूछता है। मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है ( अथवा संकल्प_विकल्प और चआंचल्य से शून्य है )। उस अवसर पर केवट ( निषादराज ) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा_

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।_अर्थ_हे नाथ ! मुनिनाथ वशिष्ठ जी के साथ सब माताएं, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री_आपके वियोग से व्याकुल होकर आये हैं।

सील सिंधु सुनि गुर आगवनू । सिय समीप राखे रिपुदवनू।। चले सवेग राम तेहि काला। धीर धर्म धुर दीनदयाला।।_अर्थ_ गुरु का आगमन सुनकर 
सील सिंधु श्रीरामचन्द्रजी ने सीता के पास शत्रुध्न को रख दिया और वे परम वीर, धर्मधुरंधर दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े।

गुरहिं देखि सादर अनुरागे। दंड प्रणाम करने प्रभु लागे।। मुनिबर धाई लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।_अर्थ_ गुरुजी के दर्शन करके लकक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी प्रेम में भर गये और दण्डवत् प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमंगकर वे दोनों भाइयों से मिले।

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरी तें दण्ड प्रनामू।। रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुफ्त सनेह समेटा।।_अर्थ_फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट ( निषादराज )_ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्ड प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबरदस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो।

रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।। एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं । बड़ बसइष्ठ सम को जग माहीं।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी की भक्ति सुन्दर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे_जगत् में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है ?


जेहिं लखि लखनहुं तें अधिक मिले मुदित मुनाराउ। सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।_अर्थ_जिस_( निषाद ) को देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनन्दित होकर मिले। यह सब सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है।

आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।। जो जेहिं भायं रहा अभिलाषी। तेहि तेहि को तसि तसि रुख राखी।।_अर्थ_ दया की खान, सुजान भगवान् श्रीरामजी ने सब लोगों को दु:खी ( मिलने के लिये व्याकुल ) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस उस का उस उस प्रकार से रुख रखते हुए ( उसकी रुचि के अनुसार )

सानुज मिलि पल महुं सब काहू। कीन्ह दूरि दुख दारुने दाहू।। यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।_अर्थ_उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पलभर में सब किसी से मिलकर उनके दु:ख और कठिन संताप को दूर कर दिया। श्रीरामचन्द्रजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की ( पृथक्_पृथक् ) छाया ( प्रतिबिम्ब ) एक साथ ही दिखती है।

मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।। देखीं राम दुखित महतारी। जनु सुबेलि अवलि हिम माहीं।।_अर्थ_समस्त पुरवासी प्रेम में उमंगकर केवट से मिलकर ( उसके भाग्य )की सराहना करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने सब माताओं को दु:खी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो।

प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायं भगति मति भेईं।। पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल कर्मी बिधि सिर धरि जोरी।।_अर्थ_ सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्रीरामजी ने उनको शान्त्वना दी।

भेंटी रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु। अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।_अर्थ_फिर श्रीरघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा_बुझाकर संतोष कराया कि हे माता ! जगत् ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए।

गुर तिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे संग आईं।। गंग गौरी सम सब सनमानीं। देहिं असीसा मुदित मृदु बानी।।_अर्थ_फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मण की स्त्रियों के सहित_जो भरतजी के साथ आयीं थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधति के चरणों की वन्दना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं।


गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका।। पुनि जननी चरननइ दोउ भ्राता। परे पेम व्याकुल सब गाता।।_अर्थ_तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यंत दरिद्र से संपत्ति की भेंट हो गयी हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं।