Tuesday, 3 December 2024

अयोध्याकाण्ड

मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम। भूरि भायं भेंटे भरत लछिमन करत प्रणाम।।_अर्थ_फिर श्रीरामजी प्रेम के साथ शत्रुध्न से मिलकर तब केवट ( निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े प्रेम से मिले।

भेंटेउ भरत ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई‌‌।_अर्थ_ तब लक्ष्मणजी ललककर ( बड़ी उमंग के साथ ) छोटे भाई शत्रुध्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत_शत्रुध्न दोनों भाइयों ने ( उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनन्दित हुए।

सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।। पुनि पुनि करत प्रनामु उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।_अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी प्रेम में उमंगकर सीताजी के चरणकमलों की रज सिर पर धारण कर बार_बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श 
कर ( सिर पर हाथ फेरकर ) उन दोनों को बैठाया

सीयं असीस दीन्ह मन माहीं। मगन सनेहं देह सुधि नाहीं।। सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।_अर्थ_सीताजी ने मन_ही_मन आशीर्वाद दिया; क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध_बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गये और उनके मन का कल्पित भय जाता रहा।

कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूंछा। प्रेम भरा मन निज गति छूंछा।।तेहि अवसर केवटु धीरज धरि। जोरी पानि बिनवत प्रनामु करि।।_अर्थ_उस समय न तो कोई कुछ कहता है और न कोई कुछ पूछता है। मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है ( अथवा संकल्प_विकल्प और चआंचल्य से शून्य है )। उस अवसर पर केवट ( निषादराज ) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा_

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।_अर्थ_हे नाथ ! मुनिनाथ वशिष्ठ जी के साथ सब माताएं, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री_आपके वियोग से व्याकुल होकर आये हैं।

सील सिंधु सुनि गुर आगवनू । सिय समीप राखे रिपुदवनू।। चले सवेग राम तेहि काला। धीर धर्म धुर दीनदयाला।।_अर्थ_ गुरु का आगमन सुनकर 
सील सिंधु श्रीरामचन्द्रजी ने सीता के पास शत्रुध्न को रख दिया और वे परम वीर, धर्मधुरंधर दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े।

गुरहिं देखि सादर अनुरागे। दंड प्रणाम करने प्रभु लागे।। मुनिबर धाई लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।_अर्थ_ गुरुजी के दर्शन करके लकक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी प्रेम में भर गये और दण्डवत् प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमंगकर वे दोनों भाइयों से मिले।

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरी तें दण्ड प्रनामू।। रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुफ्त सनेह समेटा।।_अर्थ_फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट ( निषादराज )_ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्ड प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबरदस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो।

रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।। एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं । बड़ बसइष्ठ सम को जग माहीं।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी की भक्ति सुन्दर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे_जगत् में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है ?


जेहिं लखि लखनहुं तें अधिक मिले मुदित मुनाराउ। सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।_अर्थ_जिस_( निषाद ) को देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनन्दित होकर मिले। यह सब सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है।

आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।। जो जेहिं भायं रहा अभिलाषी। तेहि तेहि को तसि तसि रुख राखी।।_अर्थ_ दया की खान, सुजान भगवान् श्रीरामजी ने सब लोगों को दु:खी ( मिलने के लिये व्याकुल ) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस उस का उस उस प्रकार से रुख रखते हुए ( उसकी रुचि के अनुसार )

सानुज मिलि पल महुं सब काहू। कीन्ह दूरि दुख दारुने दाहू।। यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।_अर्थ_उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पलभर में सब किसी से मिलकर उनके दु:ख और कठिन संताप को दूर कर दिया। श्रीरामचन्द्रजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की ( पृथक्_पृथक् ) छाया ( प्रतिबिम्ब ) एक साथ ही दिखती है।

मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।। देखीं राम दुखित महतारी। जनु सुबेलि अवलि हिम माहीं।।_अर्थ_समस्त पुरवासी प्रेम में उमंगकर केवट से मिलकर ( उसके भाग्य )की सराहना करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने सब माताओं को दु:खी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो।

प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायं भगति मति भेईं।। पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल कर्मी बिधि सिर धरि जोरी।।_अर्थ_ सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्रीरामजी ने उनको शान्त्वना दी।

भेंटी रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु। अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।_अर्थ_फिर श्रीरघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा_बुझाकर संतोष कराया कि हे माता ! जगत् ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए।

गुर तिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे संग आईं।। गंग गौरी सम सब सनमानीं। देहिं असीसा मुदित मृदु बानी।।_अर्थ_फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मण की स्त्रियों के सहित_जो भरतजी के साथ आयीं थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधति के चरणों की वन्दना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं।


गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका।। पुनि जननी चरननइ दोउ भ्राता। परे पेम व्याकुल सब गाता।।_अर्थ_तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यंत दरिद्र से संपत्ति की भेंट हो गयी हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं।






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