Monday, 24 March 2025

अयोध्याकाण्ड

मिटिहहि पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।_अर्थ_हे भरत ! तुम्हारा नाम_स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच ( अज्ञान ) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा।

कहुं सुभाऊ सत्य सिवा साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।। तात कुतर्क करहु जनि जाएं। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएं।।_अर्थ_हे भरत ! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है‌ । हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाने नहीं छिपते।

मुनिगन निकट बिहंग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।। हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।_अर्थ_पशु और पक्षी मुनियों के पास ( बेधड़क ) चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधइकओं को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु_पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भण्डार ही है।

तात तुम्हहिं हम जानउं नीकें। करौं काह असमंजस जी के।।  राखेउ रायन सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।_अर्थ_ हे तात ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं। क्या करूं ? जीने में बड़ा असमंजस ( दुविधा) है। राजा ने मुझे त्यागकर सत्य को रखा और प्रेम_प्रण के लिये शरीर छोड़ दिया।

तासु बचन मएटत मन सोचू। तेहि ते अधिक तुम्हार संकोचू।। ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहुं सोइ कीन्हा।।_अर्थ_उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उसपर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है। इसलिये अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वहीं करना चाहता हूं।

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।_अर्थ_ तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्यागकर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूं। सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया।

सुरगन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।। बनत उपाऊ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।_अर्थ_ देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना_बनाया काम बिगड़ना चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन_ही_मन श्रीरामजी की शरण गये।

बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगति भगति बस कहहीं।। सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भए सुर सुरपति निपट निरासा।।_अर्थ_ फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की ( घटना ) याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गये।

सहे सुरन्ह बहुत काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।। लगा लगा कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।_अर्थ_पहले देवताओं ने बहुत समय तक दु:ख सहने। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान् को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग_लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब ( इस बार ) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है।

आन उपाऊ न देखिअ देवा। मानता राम सुसेवक सेवा।। हियं सपेम सउमइरहउ सब भरतहिं। निज गुन सील राम बस करतहिं।।_अर्थ_हे देवताओं! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा मानते हैं ( अर्थात् उनके भक्त की कोई सेवा करता है तो उसपर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्रीरामजी को वश में करनेवाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो।

सुनि सुरमत सुरगुरु कहेउ भल तुम्हार बड़ु भाग। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।_अर्थ_देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा_अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत् में समस्त शुभ मंगलों का मूल है।

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु समय सरिस सुहाई।। भरत भगति तुम्हें मन आई। तजहु सोच बिधि बात बनाई।।_अर्थ_सीतानाथ श्रीरामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी।

देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायं बिबस रघुराऊ।। मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहिं जानि राम परिछाहीं।।_अर्थ_हे देवराज ! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्रीरघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्ण रूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्रीरामचन्द्रजी की परछाईं ( परछाईं की भांति उनका अनुसरण करनेवाला ) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है।

सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहिं संकोचू।। निज सिर भारी भरत जियं जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमान।।_अर्थ_ देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति ( आपस का विचार ) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने सब बोझा अपने ही सिर पर जाना और हृदय में करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार के अनुमान ( विचार ) करने लगे।

करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।। निज पन तजि राखेउ पन मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।_अर्थ_सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्रीरामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया ( अर्थात् अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया ) ।

कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरत जोरी जलज जुग हाथ।।_अर्थ_श्रीजानकीनाथ ने सब प्रकार से मुझपर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले_

कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।। गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।_अर्थ_हे स्वामी ! हे कृपा के समुद्र ! हे अन्तर्यामी ! अब मैं ( अधिक ) क्या कहूं और क्या कहां ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गयी।

अपडर डरेउं न सोच समूलें। रबिहिं न दोसु देव दिसि भूलें।। मोर अभागा मातु कुटिलाईं। बिधि गति विषम काल कठिनाई।।_अर्थ_मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव ! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता,

पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।। यह नि रीति न राउरि होई। लोकहुं बेद बिदित नहिं गोई।।_अर्थ_इन सबने मिलकर पैर रोपकर ( प्रण करके ) मुझे नष्ट कर दिया था। परन्तु शरणागत के रक्षक आपने अपना ( शरणागत की रक्षा का ) प्रण निबाहा ( मुझे बचा लिया )। यह आपकी कोई अनोखी रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है।

जगु अनुभव भल एकउ गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाई।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।_अर्थ_सारा जगत् बुरा ( करनेवाला ) हो, किन्तु हे स्वामी ! केवल एक आप ही भले ( अनुकूल ) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है ? हे देव ! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह भी कभी किसी के सम्मुख ( अनुकूल ) है, न विमुख ( प्रतिकूल )।

Thursday, 6 March 2025

अयोध्याकाण्ड

सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किया मुदित फुर भाषे।। प्रथम जो आयसु मो कहुं होई। मारें माना करउं सिख सोई।।_अर्थ_आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूं।

पुनि जेहिं कहं जस कहब गोसाईं। सो सब भांति घटिहिं सेवकाई।। कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहं बिचारु न राखा।।_अर्थ_फिर हे गोसाईं ! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जायगा ( आज्ञापालन करेगा )। मुनि वशिष्ठजी कहने लगे_हे राम ! तुमने सच कहा पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया।

तेहि ते कहंउ बहोरी बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।। मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।_अर्थ_इसलिये मैं बार_बार अहंता हूं, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गयी है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जायगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा।

भरत विनय सादर सुनिअ करिअ विचारी बहोरि। करीब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।_अर्थ_पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिये, फिर उसपर विचार कीजिये। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ ( सार ) निकालकर वैसा ही ( उसी के अनुसार) कीजिये।

गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदय आनंदु बिसेषी।। भरतहिं धर्म धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।_अर्थ_भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर_

बोले गुर आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला।। नाथ साथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा के अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले_हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजी के चरणों की दुहाई है ( मैं सत्य कहता हूं कि ) विश्वभर में भरत के समान भाई कोई हुआ ही नहीं।

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। तें लोकहुं बेद हुं बड़भागी।। राउर जा पर अस अनुरागू। को कहा सकइ भरत कर भागू।।_अर्थ_जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में ( लौकिक दृष्टि से ) और वेद में ( पारमार्थिक दृष्टि से ) भी बड़भागी होते हैं ! ( फिर ) जिसपर आप ( गुरु ) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है ?

लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।। भरतउज्ञकहहइं सोइ किएं भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।_अर्थ_छोटा भाई जानकर भरत के मुंह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। ( फिर भी मैं तो यही कहूंगा कि ) भरत जो कुछ कहें, वहीं करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे।

तब मुनि बोले भरत सन सब संकोचु तजि तात। कृपा सिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय के बात।।_अर्थ_तब मुनि भरतजी से बोले_हे तात ! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो।

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।। लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहीं कछु करहिं बिचारू।।_अर्थ_ मुनि के वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर_गुरु तथा स्वामी को अपने अनुकूल जानकर_सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे।

पुलकि सरीर सभां में ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।। कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।_अर्थ_शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गये। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं  की बाढ़ आ गयी। ( वे बोले _) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया ( जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया )। इससे अधिक मैं क्या कहूं ?

मैं जानउं निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।। मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूं देखी।।_अर्थ_अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूं। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रिस ( अप्रसन्नता) नहीं देखी।

सिसुपन तें परिहरेउं न संगू। कबहुंक न कीन्ह मोर मन भंगू।।  मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही। हारेहुं खेल जितावहिं मोहीं।।_अर्थ_बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा ( मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया )। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भली-भांति देखा (अनुभव किया है )। मेरे हारने पर भी खेल_खेल में मुझे जिता देते रहे हैं।

महूं सनेह संकोच बस सनमुख कहीं न बैन। दरसनु तृपित न आजु लगि पेम पियासे नैन।।_अर्थ_मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुंह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।। यहु कहते मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।_अर्थ_परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने ( मेरे और स्वामी के बीच ) अन्तर डाल दिया। यह भी कहना मुझे आज शोभा नहीं देता। क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और और पवित्र हुआ है ? ( जिसको दूसरे साधु और पवित्र माने वही साधु है )।

मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।। फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।_अर्थ_माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूं, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ दुराचार के समान है। क्या कोदो की बाली उत्तम धान फल सकती है ? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है ?

सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभागा उदधि अवगाहू।। बिनु समझें निज अघ परिपाकू। जारिउं जायं जननि कहि काकू।।_अर्थ_स्वप्न में भी किसी को दोषी का वेष भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया।

हृदयं हेरि हारेहुं सब ओरा। एकहि भांति भलेहिं भल मोरा।। गुर गोसाईं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।_अर्थ_मैं अपने हृदय में सब ओर खोजकर हार गया ( मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता )। एक ही प्रकार भले ही ( निश्चय ही ) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्रीसीतारामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है।

साधु सभां गुर प्रभु निकट कहुं सुथल सतिभाउ। प्रेम प्रपंच कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।_अर्थ_ साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ_स्थान में मैं सत्यभाव से कहता हूं। यह प्रेम या प्रपंच ( छल_कपट ) झूठ है या सच ? इसे ( सर्वज्ञ ) मुनि वशिष्ठजी और ( अन्तर्यामी ) श्रीरघुनाथजी जानते हैं।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगती सबु साखी।। देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जेहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।_अर्थ_ प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज ( पिताजी)_का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएं व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर नारी दु:सह ताप से जल रहे हैं।

महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउं सब सूला।। सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेस लखन सिय साथा।। बिनु पानहिन्ह पयादेहिं पाएं। संकरु साखी रहेंउं एहि घाएं।। बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।_अर्थ_मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूं, यह सुन और समझकश्र मैंने दु:ख सहा है। श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का_सा वेष धारण कर बिना जूते पहने पांव_प्यादे ( पैदल ) ही वन को चले गये, यह सुनकर शंकरजी भी साक्षी हैं, इस घाव से मैं जीता रहा गया ( यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गये ! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ ( यह फटा नहीं)।

अब सबु आंखिन्ह देखेउं आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।। जिन्हहि निरखि मग सांपिनि बीती। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।_अर्थ_अब यहां आकर सब आंखों देखा लिया। यह जड़ जीव जीता रहकर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की सांपिनि और बीती भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती है_।

तेहि रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि। जासु तनय तजि दुसह दुख दैव सहावइ काहि।।_अर्थ_ वे ही श्रीरघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दु:सह दुख और किसे सहावेगा ?

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरती प्रीति विनय नय सानी।। सोक मगन सब सभा कहां खभारू। मनहुं कमल बन प्रेम तुषारू।।_अर्थ_ अत्यन्त व्याकुल तथा दु:ख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गये, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमर के वन पर पाला पड़ गया हो।

कहि अनेक विधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ज्ञानी।। बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।_अर्थ_तब ज्ञानी मुनि वशिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी ( ऐतिहासिक ) कथाएं कहकर भरतजी का समाधान किया। फिर सूर्यकुल रूपी कुमुद वन के प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा श्रीरघुनन्दन उचित वचन बोले_।

तात जायं जियं करहु गलानी। इस अधीन जीव गति जानी।। तीनों काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें।।_अर्थ_हे तात ! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को इश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) तीनों कालों और ( स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल ) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुमसे नीचे हैं।

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाईं। जाइ लोक परलोकु नसाई।। दोसु देहिं जननिहिं जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभां नहिं सेई।।_अर्थ_हृदय में तुमपर भी कुटिलता का आरोप करने से यह लोक ( यहां के सुख_यश आदि ) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है ( मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती )। माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है।

मिटिहहि पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।_अर्थ_हे भरत ! तुम्हारा नाम_स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच ( अज्ञान ) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा।

कहुं सुभाऊ सत्य सिवा साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।। तात कुतर्क करहु जनि जाएं। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएं।।_अर्थ_हे भरत ! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है‌ । हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाने नहीं छिपते।