मिटिहहि पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।_अर्थ_हे भरत ! तुम्हारा नाम_स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच ( अज्ञान ) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा।
कहुं सुभाऊ सत्य सिवा साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।। तात कुतर्क करहु जनि जाएं। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएं।।_अर्थ_हे भरत ! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है । हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाने नहीं छिपते।
मुनिगन निकट बिहंग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।। हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।_अर्थ_पशु और पक्षी मुनियों के पास ( बेधड़क ) चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधइकओं को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु_पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भण्डार ही है।
तात तुम्हहिं हम जानउं नीकें। करौं काह असमंजस जी के।। राखेउ रायन सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।_अर्थ_ हे तात ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं। क्या करूं ? जीने में बड़ा असमंजस ( दुविधा) है। राजा ने मुझे त्यागकर सत्य को रखा और प्रेम_प्रण के लिये शरीर छोड़ दिया।
तासु बचन मएटत मन सोचू। तेहि ते अधिक तुम्हार संकोचू।। ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहुं सोइ कीन्हा।।_अर्थ_उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उसपर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है। इसलिये अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वहीं करना चाहता हूं।
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।_अर्थ_ तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्यागकर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूं। सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया।
सुरगन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।। बनत उपाऊ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।_अर्थ_ देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना_बनाया काम बिगड़ना चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन_ही_मन श्रीरामजी की शरण गये।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगति भगति बस कहहीं।। सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भए सुर सुरपति निपट निरासा।।_अर्थ_ फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की ( घटना ) याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गये।
सहे सुरन्ह बहुत काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।। लगा लगा कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।_अर्थ_पहले देवताओं ने बहुत समय तक दु:ख सहने। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान् को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग_लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब ( इस बार ) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है।
आन उपाऊ न देखिअ देवा। मानता राम सुसेवक सेवा।। हियं सपेम सउमइरहउ सब भरतहिं। निज गुन सील राम बस करतहिं।।_अर्थ_हे देवताओं! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा मानते हैं ( अर्थात् उनके भक्त की कोई सेवा करता है तो उसपर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्रीरामजी को वश में करनेवाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो।
सुनि सुरमत सुरगुरु कहेउ भल तुम्हार बड़ु भाग। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।_अर्थ_देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा_अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत् में समस्त शुभ मंगलों का मूल है।
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु समय सरिस सुहाई।। भरत भगति तुम्हें मन आई। तजहु सोच बिधि बात बनाई।।_अर्थ_सीतानाथ श्रीरामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायं बिबस रघुराऊ।। मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहिं जानि राम परिछाहीं।।_अर्थ_हे देवराज ! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्रीरघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्ण रूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्रीरामचन्द्रजी की परछाईं ( परछाईं की भांति उनका अनुसरण करनेवाला ) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है।
सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहिं संकोचू।। निज सिर भारी भरत जियं जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमान।।_अर्थ_ देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति ( आपस का विचार ) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने सब बोझा अपने ही सिर पर जाना और हृदय में करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार के अनुमान ( विचार ) करने लगे।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।। निज पन तजि राखेउ पन मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।_अर्थ_सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्रीरामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया ( अर्थात् अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया ) ।
कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरत जोरी जलज जुग हाथ।।_अर्थ_श्रीजानकीनाथ ने सब प्रकार से मुझपर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले_
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।। गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।_अर्थ_हे स्वामी ! हे कृपा के समुद्र ! हे अन्तर्यामी ! अब मैं ( अधिक ) क्या कहूं और क्या कहां ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गयी।
अपडर डरेउं न सोच समूलें। रबिहिं न दोसु देव दिसि भूलें।। मोर अभागा मातु कुटिलाईं। बिधि गति विषम काल कठिनाई।।_अर्थ_मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव ! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता,
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।। यह नि रीति न राउरि होई। लोकहुं बेद बिदित नहिं गोई।।_अर्थ_इन सबने मिलकर पैर रोपकर ( प्रण करके ) मुझे नष्ट कर दिया था। परन्तु शरणागत के रक्षक आपने अपना ( शरणागत की रक्षा का ) प्रण निबाहा ( मुझे बचा लिया )। यह आपकी कोई अनोखी रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है।
जगु अनुभव भल एकउ गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाई।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।_अर्थ_सारा जगत् बुरा ( करनेवाला ) हो, किन्तु हे स्वामी ! केवल एक आप ही भले ( अनुकूल ) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है ? हे देव ! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह भी कभी किसी के सम्मुख ( अनुकूल ) है, न विमुख ( प्रतिकूल )।
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