Monday, 5 May 2025

अयोध्याकाण्ड

रानि कुचालि सुनत नरपालहिं। सूझ न कछु जिमि मनि बिनु ब्यालहिं भरत राज रघुबर बनवासू। भा मिथिलेसहिं हृदयं हरासूं।।_अर्थ_रानी की कुचाल जानकर राजा जनकजी को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना सांप को नहीं सूझता। फिर भरतजी को राज्य और रामचन्द्रजी का वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजी के हृदय में बड़ा दु:ख हुआ।

नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।। समुझि अवधि असमंजस दोऊ। चलिए कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।_अर्थ_ राजा ने विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिये, आज ( इस समय ) क्या करना उचित है ? अयोध्या की दशा देखकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर 'चलिये या रहिये ?' किसी ने कुछ नहीं कहा।

नृपहिं धीर धरि हृदयं बिचारी। पड़े अवध चतुर चर चारी।। बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।_अर्थ_( जब किसी ने कोई सम्मति नहीं दी ) तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर _ ( जासूस ) अयोध्या को भेजे ( और उनसे कह दिया कि ) तुमलोग ( श्रीरामजी के प्रति ) भरतजी के सद्भाव ( अच्छे भाव, प्रेम ) या दुर्भाव ( बुरा भाव, विरोध )_का ( यथार्थ ) पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पावे।

गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति। चले चित्रकूटहिं भरतु चार चले तेरहूति।।_अर्थ_ गुप्तचर अवध को गये और भरतजी का ढ़ंग जानकर और उनकी करनी देखकर जैसे ही भरतजी चित्रकूट को चले, वे तिरहुत ( मिथिला ) _को चल दिये।

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।। सुनि गुर परिजन सचिव महिपति। भए सब सोच सनेह बिकल अति।।_अर्थ_( गुप्त ) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सभी सोच और स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो गये।

धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।। घर पुर देस राखि रखवारे। हम गया रथ बहुत जान संवारे।।_अर्थ_फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहसियों को बुलाया। घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत _सी सवारियां सजवायीं।

दुघरी साधि चले ततकाला। किए विश्राम न मग महिपाला।। भोरहि आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।_अर्थ_ वे दुघरिया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं किया। आज ही सवेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुनाजी उतरने लगे,।

खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहा अस महि नायउ माथा।। साथ किरात छ सातक दीन्हा। मुनिबर तुरंत बिदा चर कीन्हे।।_अर्थ_तब हे नाथ ! हमें खबर लेने को भेजा। उन्होंने ( दूतों ने ) ऐसा कहकर पृथ्वी पर सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने कोई छ:_सात भीलों को साथ लेकर दूतों को तुरंत विदा कर दिया।

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु। रघुनंदनहिं सकोच बड़ सोच बिबस सुरराजु।।_अर्थ_जनकजी का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। श्रीरामजी को बड़ा संकोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गये।

गरइ ग लानि कुटिल कैकेई। काहि कहे केहि दूषनु देई।। अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।_अर्थ_कुटिल कैकेयी मन_ही_मन ग्लानि ( पश्चाताप )_ से गली जाती है। किससे कहें और किसको दोष दे ? और सब नर_नारी मन में ऐसा विचारकर प्रसन्न हो रहे हैं कि ( अच्छा हुआ, जनकजी के आने से ) चार ( कुछ ) दिन और रहना हो गया।

एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।। करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनपत गौरी त्रिपुरारि तमारी।।_अर्थ_इस प्रकार वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रात:काल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर_नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं।

रमा रमन पद बंदि बहोरी। बइनवहइं अंजुलि अंचल जोरी।। राजा रामु जानकी रानी। आनंद अवधि अवध रजधानी।।_अर्थ_ फिर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के चरणों की वन्दना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आंचल पसारकर विनती करते हैं कि श्रीरामजी राजा हों, जानकी जी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनंद की सीमा होकर_।

सुबस बसु फिर सहित समाजा। भरतहिं रामु करहुं जुबराजा।। एहि सुख सुधां सींचि सब काहू। देव दएहू जग जीवन लाहू।।_अर्थ_ फिर समाजसहित सुखपूर्वक बसे और श्रीरामजी भरतजी को युवराज बनावें। हे देव ! इस सुख रूपी अमृत से सींचकर सब किसी को जगत् में जीने का लाभ दीजिये।

गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुरं होउ। अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।_अर्थ_गुरु, समाज और भाइयों समेत श्रीरामजी का राज अवधपुरी में हो और श्रीरामजी के राजा रहते ही हमलोग अयोध्या में मरें। सब कोई यही मांगते हैं।

सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ज्ञानी।। एहि बिधि नित्य कर्म करि पुरजन। रामहिं करहिं प्रनामु पुलकित तन।।_अर्थ_अयोध्यानिवासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अवध वासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्रीरामजी को पुलकित शरीर हो प्रणाम करते हैं।

ऊंच नीच मध्यम नर नारी। लहहीं दरसु निज निज अनुहारी।। सावधान सबहिं सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।_अर्थ_ऊंच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने_अपने भाव के अनुसार श्रीरामजी का दर्शन प्राप्त करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी सावधानी के साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी की सराहना करते हैं।

लरिकाइहि तें रघुबर बानी। पालतू नीति प्रीति पहिचानी।। सील संकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।_अर्थ_श्रीरामजी की लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं। श्रीरघुनाथजी शील और संकोच के समुंद्र हैं। वे सुंदर मुख के ( या सबके अनुकूल रहनेवाले ), सुंदर नेत्र वाले ( या सबको कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखनेवाले ) और सरल स्वभाव हैं।

कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।। हम सम पुन्यपुंज जग थोरे। जिन्हहि राम जानत करि मोरे।।_अर्थ_श्रीरामजी के गुणसमूहों को कहते_कहते सब लोग प्रेम में भर गये और अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूंजी वाले थोड़े ही हैं; जिन्हें श्रीरामजी अपना करके जानते हैं ( ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं )।

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेश। सहित समाज संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।_अर्थ_उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिला पति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी सभासहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए।

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।। गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागें तबाहीं।।_अर्थ_भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर रघुनाथजी आगे ( जनकजी की अगवानी में ) चले। जनकजी ने ज्योंही पर्वतश्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्योंही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया ( पैदल चलना शुरू कर दिया )।

राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।। मन तहं जहां रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।_अर्थ_श्रीरामजी के दर्शन और लालसा के उत्साह के कारण किसी को और रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है। मन तो वहां है जहां ‌श्रीराम और जानकी जी हैं। बिना मन के शरीर के दु:ख_सुख की सुध किसको हो ?

आवत जनकु चले एहि भांती। सहित समाज प्रेम मति माती।। आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परस्पर लागे।।_अर्थ_जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। समाजसहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है। निकट आये देखकर सब प्रेम में भर गये और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे।

लगे जनक मुनि जन पद बंदन। रिषिन्ह राम कीन्ह रघुनन्दन।। भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहिं। चले लवाई समेत समाजहिं।।_अर्थ_ जनकजी ( वशिष्ठ आदि अयोध्यावासी ) मुनियों के चरणों की वन्दना करने लगे और श्रीरामचन्द्रजी ने ( शतानंद आदि जनकपुरवासी ) ऋषियों को प्रणाम किया। फिर भाइयों सहित श्रीरामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाजसहित अपने आश्रम को लिवा चले।

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु। सेन मनहुं करुना सरित लिएं जाहिं रघुनाथ।।_अर्थ_श्रीरामजी का आश्रम शआंतरसरूपई पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनकजी की सेना ( समाज ) मानो करुणा ( करुणरस )_की नदी है, जिसे श्रीरघुनाथजी ( उस आश्रम रूपी शान्तरस के समुद्र में मिलाने के लिये ) लिये जा रहे हैं।

बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससओक मिलता नद नारे।। सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।_अर्थ_ यह करुणा की नदी ( इतनी बढ़ी हुई है कि ) ज्ञान_वैराग्यरूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोकभरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं; और सोच की लम्बी सांसें ( आहें ) हो वायु के झंकोरों से उठनेवाली 
तरंगें हैं जो धैर्य रूपी किनारों के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं।









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