Sunday, 25 May 2025

अयोध्याकाण्ड

बिषम बिषाद तोरावती धारा। भय भ्रम भंवर अबर्त अपारा।। केवट बुध बिंद्रा बड़ि नावा। सकहिं न खेइ एक नहिं आवा।।_अर्थ_ भयानक विषाद ( शोक ) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम ( मोह ) ही उसके असंख्य भंवर और  चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है। परंतु वे उसे के नहीं सकते हैं, ( उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं ), किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है।

बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियं हारे।। आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुं उठी अंबुधि अकुलाई।।_अर्थ_ वन में विचरनेवाले बेचारे कोल किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गये हैं। यह करुणा_नदी जब आश्रम समुद्र में जाकर मिलीं तो मानो वह समुद्र अकुला उठा ( खौल उठा )।

सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ज्ञानु न धीरज लाजा।। भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।_अर्थ_दोनों राजसमाज शोक से व्याकुल हो गये। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथ जी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं।

अवगाही सोक समुद्र सओचहइं नारि नर व्याकुल महा। दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।। सुर सिद्ध तापस जओगइजन मुनि देखि दशा बिदेह की। तुलसी न समर्थ कोई जो तरि सकै सहित सनेह की।।_अर्थ_ शोक_समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री _पुरुष महान् व्याकुल होकर सोच ( चिंता ) कर रहे हैं। ये सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया ? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगण में कोई भी समर्थ नहीं है जो उस समय विदेह ( जनकराज )_की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके ( प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके )।

किए अमित उपदेसु जहां तहां लोगन्ह मुनिबरन्ह। धीरजु धरइअ नरएस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।_अर्थ_जहां_तहां श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिये और वशिष्ठजी ने विदेह ( जनकजी )_से कहा_हे राजन् ! आप धैर्य धारण कीजिये।

जासु ज्ञानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।। तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम स्नेह बड़ाई।।_अर्थ_ जिस राजा जनक का ज्ञानरूपी सूर्य भव ( आवागमन ) रूपी रात्रि का नाश कर देता है, और जिसकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती है ( आनंदित करती है ), क्या मोह और ममता उसके निकट भी आ सकते हैं ? यह तो श्रीसीतारामजी के प्रेम की महिमा है ! ( अर्थात् राजा जनक की यह दशा श्रीसीतारामजी के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह_ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह_ममता को पार कर चुके हैं उनपर भी श्रीसीतारामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाते बिना नहीं रहता।

बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।। राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभां बड़ आदर तासू।।_अर्थ_बिषयी, साधक और ज्ञानवान् सिद्ध पुरुष_जगत् में ये तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताये हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्रीरामजी के स्नेह से सरस ( सराबोर ) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है।

सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनाल बिनु जिमि जलजानू।। मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।_अर्थ_श्रीरामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठजी ने विदेहराज ( जनकजी )_को बहुत प्रकार से समझाया। तदनन्तर सब लोगों ने श्रीरामजी के घाट पर स्नान किया।

सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासर बीतेउ बिनु बारी।। पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।_अर्थ_स्त्री_पुरुष सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया ( भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया )। पशु_पक्षी और हिरनों तक ने कुछ अहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बीसहित का तो विचार ही क्या किया जाय ?

दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात। बैठे सब बट बिटप तर मन मलिन कृस गात।।_अर्थ_निमिराज जनकजी और रघुराज श्रीरामचन्द्रजी तथा दोनो ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं।

जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिला पति नगर निवासी।। हंस हंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथ सोधा।।_अर्थ_ जो दशरथ जी की नगरी अयोध्या के रहनेवाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहनेवाले ब्राह्मण थे, तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान रखा था,।

लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धर्म नय बिरति बिबेका।। कौशिक कहा कि कथा पुरानीं। समुझाए सब सभा सउबआनईं।।_अर्थ_ वे सब धर्म, नीति, वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएं ( इतिहास ) कह-कहकर सारी सभा को सुन्दर वाणी से समझाया।

 तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सब रहेऊ।। मुनि कहा उचित कहत रघुराई। गये बीती दिन पहले अढ़ाई।।_अर्थ_ तब श्रीरघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ ! कल सब लोग बिना जल पीये ही रह गये थे ( अब कुछ आहार करना चाहिये )। विश्वामित्रजी ने कहा कि श्रीरघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं। ढ़ाई पहर दिन ( आज भी ) बीत गया।

रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। कहां उचित नहिं असन अनाजू।। कहा भूप भल सबहिं सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।_अर्थ_ विश्वामित्र का रुख देखकर तेरहुतिराज जनकजी ने कहा_यहां अन्न खाना उचित नहीं है। राजा का सुन्दर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले।

तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार। लि आए बनचर बिपुल भरि भरि कांवरि भार।।_अर्थ_ उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत _से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहंगियों और बोझों में भर_भरकर वनवासी ( कोल_किरात ) लोग ले आये।

कामद गिरि में राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।। सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनंद अनुरागा।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देनेवाले हो गये। वे देखने मात्र से ही दु:खों को सर्वथा हर लेते थे। वहां के तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है।

बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।  तेहि अवसर बन अधिक उछाहू।  त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।_अर्थ_बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलों से युक्त हो गये। पक्षी, पशु और भौंरे अनुकूल बोलने लगे। उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह ( आनन्द ) था, सब किसी को सुख देनेवाली शीतल, मन्द सुगन्ध हवा चल रही थी।

जाइ न बरनी मनोहरताई। जनु महि करता जनक पहुनाई।। तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।। देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहं तहं पुरजन उतरन लागे।। दल फल फूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।_अर्थ_वन की मनोहरताई वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजी की पहुनाई कर रही है। तब जनकपुरवासी सब लोग नहा_नहाकर श्रीरामचन्द्रजी, जनकजी और मुनि की आज्ञा पाकर सुंदर वृक्षों को देख_देखकर 
प्रेम में भरकर जहां _तहां उतरने लगे। पवित्र, सुन्दर और अग्नि के समान ( स्वादिष्ट ) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और कन्द_

Monday, 5 May 2025

अयोध्याकाण्ड

रानि कुचालि सुनत नरपालहिं। सूझ न कछु जिमि मनि बिनु ब्यालहिं भरत राज रघुबर बनवासू। भा मिथिलेसहिं हृदयं हरासूं।।_अर्थ_रानी की कुचाल जानकर राजा जनकजी को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना सांप को नहीं सूझता। फिर भरतजी को राज्य और रामचन्द्रजी का वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजी के हृदय में बड़ा दु:ख हुआ।

नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।। समुझि अवधि असमंजस दोऊ। चलिए कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।_अर्थ_ राजा ने विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिये, आज ( इस समय ) क्या करना उचित है ? अयोध्या की दशा देखकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर 'चलिये या रहिये ?' किसी ने कुछ नहीं कहा।

नृपहिं धीर धरि हृदयं बिचारी। पड़े अवध चतुर चर चारी।। बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।_अर्थ_( जब किसी ने कोई सम्मति नहीं दी ) तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर _ ( जासूस ) अयोध्या को भेजे ( और उनसे कह दिया कि ) तुमलोग ( श्रीरामजी के प्रति ) भरतजी के सद्भाव ( अच्छे भाव, प्रेम ) या दुर्भाव ( बुरा भाव, विरोध )_का ( यथार्थ ) पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पावे।

गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति। चले चित्रकूटहिं भरतु चार चले तेरहूति।।_अर्थ_ गुप्तचर अवध को गये और भरतजी का ढ़ंग जानकर और उनकी करनी देखकर जैसे ही भरतजी चित्रकूट को चले, वे तिरहुत ( मिथिला ) _को चल दिये।

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।। सुनि गुर परिजन सचिव महिपति। भए सब सोच सनेह बिकल अति।।_अर्थ_( गुप्त ) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सभी सोच और स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो गये।

धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।। घर पुर देस राखि रखवारे। हम गया रथ बहुत जान संवारे।।_अर्थ_फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहसियों को बुलाया। घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत _सी सवारियां सजवायीं।

दुघरी साधि चले ततकाला। किए विश्राम न मग महिपाला।। भोरहि आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा।।_अर्थ_ वे दुघरिया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं किया। आज ही सवेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुनाजी उतरने लगे,।

खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहा अस महि नायउ माथा।। साथ किरात छ सातक दीन्हा। मुनिबर तुरंत बिदा चर कीन्हे।।_अर्थ_तब हे नाथ ! हमें खबर लेने को भेजा। उन्होंने ( दूतों ने ) ऐसा कहकर पृथ्वी पर सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने कोई छ:_सात भीलों को साथ लेकर दूतों को तुरंत विदा कर दिया।

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु। रघुनंदनहिं सकोच बड़ सोच बिबस सुरराजु।।_अर्थ_जनकजी का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। श्रीरामजी को बड़ा संकोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गये।

गरइ ग लानि कुटिल कैकेई। काहि कहे केहि दूषनु देई।। अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी।।_अर्थ_कुटिल कैकेयी मन_ही_मन ग्लानि ( पश्चाताप )_ से गली जाती है। किससे कहें और किसको दोष दे ? और सब नर_नारी मन में ऐसा विचारकर प्रसन्न हो रहे हैं कि ( अच्छा हुआ, जनकजी के आने से ) चार ( कुछ ) दिन और रहना हो गया।

एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ।। करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनपत गौरी त्रिपुरारि तमारी।।_अर्थ_इस प्रकार वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रात:काल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर_नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं।

रमा रमन पद बंदि बहोरी। बइनवहइं अंजुलि अंचल जोरी।। राजा रामु जानकी रानी। आनंद अवधि अवध रजधानी।।_अर्थ_ फिर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के चरणों की वन्दना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आंचल पसारकर विनती करते हैं कि श्रीरामजी राजा हों, जानकी जी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनंद की सीमा होकर_।

सुबस बसु फिर सहित समाजा। भरतहिं रामु करहुं जुबराजा।। एहि सुख सुधां सींचि सब काहू। देव दएहू जग जीवन लाहू।।_अर्थ_ फिर समाजसहित सुखपूर्वक बसे और श्रीरामजी भरतजी को युवराज बनावें। हे देव ! इस सुख रूपी अमृत से सींचकर सब किसी को जगत् में जीने का लाभ दीजिये।

गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुरं होउ। अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ।।_अर्थ_गुरु, समाज और भाइयों समेत श्रीरामजी का राज अवधपुरी में हो और श्रीरामजी के राजा रहते ही हमलोग अयोध्या में मरें। सब कोई यही मांगते हैं।

सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ज्ञानी।। एहि बिधि नित्य कर्म करि पुरजन। रामहिं करहिं प्रनामु पुलकित तन।।_अर्थ_अयोध्यानिवासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अवध वासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्रीरामजी को पुलकित शरीर हो प्रणाम करते हैं।

ऊंच नीच मध्यम नर नारी। लहहीं दरसु निज निज अनुहारी।। सावधान सबहिं सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं।।_अर्थ_ऊंच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने_अपने भाव के अनुसार श्रीरामजी का दर्शन प्राप्त करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी सावधानी के साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी की सराहना करते हैं।

लरिकाइहि तें रघुबर बानी। पालतू नीति प्रीति पहिचानी।। सील संकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ।।_अर्थ_श्रीरामजी की लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं। श्रीरघुनाथजी शील और संकोच के समुंद्र हैं। वे सुंदर मुख के ( या सबके अनुकूल रहनेवाले ), सुंदर नेत्र वाले ( या सबको कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखनेवाले ) और सरल स्वभाव हैं।

कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे।। हम सम पुन्यपुंज जग थोरे। जिन्हहि राम जानत करि मोरे।।_अर्थ_श्रीरामजी के गुणसमूहों को कहते_कहते सब लोग प्रेम में भर गये और अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूंजी वाले थोड़े ही हैं; जिन्हें श्रीरामजी अपना करके जानते हैं ( ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं )।

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेश। सहित समाज संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु।।_अर्थ_उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिला पति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी सभासहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए।

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।। गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागें तबाहीं।।_अर्थ_भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर रघुनाथजी आगे ( जनकजी की अगवानी में ) चले। जनकजी ने ज्योंही पर्वतश्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्योंही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया ( पैदल चलना शुरू कर दिया )।

राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।। मन तहं जहां रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।_अर्थ_श्रीरामजी के दर्शन और लालसा के उत्साह के कारण किसी को और रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है। मन तो वहां है जहां ‌श्रीराम और जानकी जी हैं। बिना मन के शरीर के दु:ख_सुख की सुध किसको हो ?

आवत जनकु चले एहि भांती। सहित समाज प्रेम मति माती।। आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परस्पर लागे।।_अर्थ_जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं। समाजसहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है। निकट आये देखकर सब प्रेम में भर गये और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे।

लगे जनक मुनि जन पद बंदन। रिषिन्ह राम कीन्ह रघुनन्दन।। भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहिं। चले लवाई समेत समाजहिं।।_अर्थ_ जनकजी ( वशिष्ठ आदि अयोध्यावासी ) मुनियों के चरणों की वन्दना करने लगे और श्रीरामचन्द्रजी ने ( शतानंद आदि जनकपुरवासी ) ऋषियों को प्रणाम किया। फिर भाइयों सहित श्रीरामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाजसहित अपने आश्रम को लिवा चले।

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु। सेन मनहुं करुना सरित लिएं जाहिं रघुनाथ।।_अर्थ_श्रीरामजी का आश्रम शआंतरसरूपई पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनकजी की सेना ( समाज ) मानो करुणा ( करुणरस )_की नदी है, जिसे श्रीरघुनाथजी ( उस आश्रम रूपी शान्तरस के समुद्र में मिलाने के लिये ) लिये जा रहे हैं।

बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससओक मिलता नद नारे।। सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा।।_अर्थ_ यह करुणा की नदी ( इतनी बढ़ी हुई है कि ) ज्ञान_वैराग्यरूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोकभरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं; और सोच की लम्बी सांसें ( आहें ) हो वायु के झंकोरों से उठनेवाली 
तरंगें हैं जो धैर्य रूपी किनारों के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं।









Saturday, 12 April 2025

अयोध्याकाण्ड

जगु अनुभव भल एकउ गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाई।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।_अर्थ_सारा जगत् बुरा ( करनेवाला ) हो, किन्तु हे स्वामी ! केवल एक आप ही भले ( अनुकूल ) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है ? हे देव ! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह भी कभी किसी के सम्मुख ( अनुकूल ) है, न विमुख ( प्रतिकूल )।

जाइ निकट पहिचानी तरु छांह समनि सब सोच। मागत अभिमत पांव जग राउ रिंकु भल पोच।।_अर्थ_उस वृक्ष ( कल्पवृक्ष ) को पहचानकर जो उसके पास जाय, तो उसकी छाया ही सारी चिंताओं का नाश करनेवाली है। राजा_रंक, भले_बुरे, जगत् में सभी उससे मांगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं।

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटी छोभु नहिं मन संदेहू।। अब अरउनआकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।_अर्थ_गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा छोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया के खान ! अब वही कीजिये जिसमें दास के लिये प्रभु के चित्त में छोभ ( किसी प्रकार का विचार ) न हो।

जो सेवकु साहिबहिं संकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।। सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।_अर्थ_जो सेवक स्वामी को सोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही करे।

स्वारथु नाथ फिरें सबहिं का। किएं रजाइ कोटि बिधि नीका।। यह स्वार्थ परमार्थ सारू। सकल सुकृति फल सुसंगति सिंगारू।।_अर्थ_हे नाथ ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है, और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार के कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार ( निचोड़ ) है, समस्त पुण्यों का फल और संपूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है।

देव एक विनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।। तिलक समाजु साजिश सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।_अर्थ_हे देव ! आप मेरी विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लायी गयी है, यदि प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिये ( उसका उपयोग कीजिये। 

सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहिं सनाथ। नतरु फेरिअहि बंधु दोउ नाथ चलों मैं साथ।।_अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न समेत मुझे वन में भेज दीजिये और ( अयोध्या लौटकर ) सबको सनाथ कीजिये। नहीं तो किसी तरह भी ( यदि आप अयोध्या जाने के लिये तैयार न हों ) हे नाथ ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिये और मैं आपके साथ चलूं।

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।। जेहिं बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करीना सागर कीजिअ सोई।।_अर्थ_ अथवा हम तीनों भाई वन चले जायें और हे श्रीरघुनाथजी ! आप श्रीसीताजी सहित ( अयोध्या ) लौट जाइये। हे दया सागर ! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो वही कीजिये।

देवं दीन्ह सबु मोहि अभारू। मोरें नीति न धरम बिचारू।। कहउं बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।_अर्थ_हे देव ! आपने सारा भार ( जिम्मेवारी ) मुझपर रख दिया। पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न धर्म का। मैं तो अपने स्वार्थ के लिये सब बातें कह रहा हूं। आर्त ( दु:खी ) मनुष्य के चित्त में चेत ( विवेक ) नहीं रहता।

उतरु देखि सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि राज रजाई।। अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेह सराहत साधू।।_अर्थ_स्वामी की आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूं ( कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूं )। किन्तु स्वामी ( आप ) स्नेहवश साधु कहकर मुझे सराहते हैं।

अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाईं न पावा।। प्रभु पद साथ कहुं सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।_अर्थ_हे कृपालु ! अब तो वहीं मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे।। प्रभु के चरणों की सपथ है, मैं सत्यभाव से कहता हूं, जगत् के कल्याण के लिये यही एक उपाय है।

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहिं आयसु देब। सो सिर धरि धरि करिहिं सबु मिटिहि अनट अवरेब।।_अर्थ_प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा_चढ़ाकर ( पालन ) करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जायेंगी।

भरत बचन सुनि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन बहु बरसे।। असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनवासी।।_अर्थ_ भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और साधु_साधु कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाये। अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गये ( कि देखें अब श्रीरामजी क्या कहते हैं ) तपस्वी तथा वनवासी लोग ( श्रीरामजी के रहने की आशा से ) मन में परम आनन्दित हुए।

चुपहिं रहे रघुनाथ संकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।। जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठजी सुनि बेनि बोलाए।।_अर्थ_किन्तु संकोची रघुनाथजी चुप ही रह गये। प्रभु की यह स्थिति ( मौन देख सारी सभा सोच में पड़ गयी। उसी समय जनकजी के दूत आये, यह सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया।

करि प्रणाम तिन्ह राम निहारे। बेषु देखि में निपट दुखारे।। दूतन्ह मुनिबर बूझि बाता। कहहु बिदेहू भूप कुसलाता।।_अर्थ_उन्होंने ( आकर ) प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी को देखा। उनका ( मुनियोंका_सा ) वेष देखकर वे बहुत दु:खी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दूतों से बात पूछी कि जनक का कुशल_समाचार कहो।

सुनि सकुचाई नाइ महि माथा। बोले चरबर जोरें हाथा।। बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।_अर्थ_ यह ( मुनि का कुशलप्रश्न ) सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले _हे स्वामी ! आपका आदर के साथ पूछना,  यही हे गोसाईं ! कुशल का कारण हो गया।


नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गई नाथ। मिथिला अवध बिसेषी तें जगु सब भयउ अनाथ।।_अर्थ_नहीं तो हे नाथ ! कुसल_क्षेम तो सब कोसलनाथ दसरथजई के साथ ही चली गयी। ( उनके चले जाने से ) यों तो सारा जगत् ही अनाथ ( स्वामी के बिना असहाय) हो गया, किन्तु मिथिला और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गये।

कोसलपति गति सुनि जनकौरा।  भे सब लोक सोकबस बौरा।। जेहिं देखें तेहि समय बिदेहू। नाम सत्य अस लाग न केहू।।_अर्थ_अयोध्यानाथ की गति ( दशरथ जी का मरण ) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गये ( सुध_बुध भूल गये )। उस समय जिन्होंने विदेह को ( शोकमग्न ) देखा , उनमें से किसी को ऐसा न लगा कि उनका विदेह ( देहाभिमानरहित ) नाम सत्य है। ( क्योंकि देहाभिमान से शून्य पुरुष को शोक कैसा ?)

Monday, 24 March 2025

अयोध्याकाण्ड

मिटिहहि पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।_अर्थ_हे भरत ! तुम्हारा नाम_स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच ( अज्ञान ) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा।

कहुं सुभाऊ सत्य सिवा साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।। तात कुतर्क करहु जनि जाएं। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएं।।_अर्थ_हे भरत ! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है‌ । हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाने नहीं छिपते।

मुनिगन निकट बिहंग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।। हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।_अर्थ_पशु और पक्षी मुनियों के पास ( बेधड़क ) चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधइकओं को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु_पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भण्डार ही है।

तात तुम्हहिं हम जानउं नीकें। करौं काह असमंजस जी के।।  राखेउ रायन सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।_अर्थ_ हे तात ! मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं। क्या करूं ? जीने में बड़ा असमंजस ( दुविधा) है। राजा ने मुझे त्यागकर सत्य को रखा और प्रेम_प्रण के लिये शरीर छोड़ दिया।

तासु बचन मएटत मन सोचू। तेहि ते अधिक तुम्हार संकोचू।। ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहुं सोइ कीन्हा।।_अर्थ_उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उसपर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है। इसलिये अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वहीं करना चाहता हूं।

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।_अर्थ_ तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्यागकर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूं। सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया।

सुरगन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू।। बनत उपाऊ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं।।_अर्थ_ देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना_बनाया काम बिगड़ना चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन_ही_मन श्रीरामजी की शरण गये।

बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगति भगति बस कहहीं।। सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भए सुर सुरपति निपट निरासा।।_अर्थ_ फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की ( घटना ) याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गये।

सहे सुरन्ह बहुत काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा।। लगा लगा कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।_अर्थ_पहले देवताओं ने बहुत समय तक दु:ख सहने। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान् को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग_लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब ( इस बार ) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है।

आन उपाऊ न देखिअ देवा। मानता राम सुसेवक सेवा।। हियं सपेम सउमइरहउ सब भरतहिं। निज गुन सील राम बस करतहिं।।_अर्थ_हे देवताओं! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा मानते हैं ( अर्थात् उनके भक्त की कोई सेवा करता है तो उसपर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्रीरामजी को वश में करनेवाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो।

सुनि सुरमत सुरगुरु कहेउ भल तुम्हार बड़ु भाग। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु।।_अर्थ_देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा_अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत् में समस्त शुभ मंगलों का मूल है।

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु समय सरिस सुहाई।। भरत भगति तुम्हें मन आई। तजहु सोच बिधि बात बनाई।।_अर्थ_सीतानाथ श्रीरामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी।

देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायं बिबस रघुराऊ।। मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहिं जानि राम परिछाहीं।।_अर्थ_हे देवराज ! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्रीरघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्ण रूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्रीरामचन्द्रजी की परछाईं ( परछाईं की भांति उनका अनुसरण करनेवाला ) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है।

सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहिं संकोचू।। निज सिर भारी भरत जियं जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमान।।_अर्थ_ देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति ( आपस का विचार ) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने सब बोझा अपने ही सिर पर जाना और हृदय में करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार के अनुमान ( विचार ) करने लगे।

करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका।। निज पन तजि राखेउ पन मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा।।_अर्थ_सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्रीरामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया ( अर्थात् अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया ) ।

कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरत जोरी जलज जुग हाथ।।_अर्थ_श्रीजानकीनाथ ने सब प्रकार से मुझपर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले_

कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।। गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।_अर्थ_हे स्वामी ! हे कृपा के समुद्र ! हे अन्तर्यामी ! अब मैं ( अधिक ) क्या कहूं और क्या कहां ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गयी।

अपडर डरेउं न सोच समूलें। रबिहिं न दोसु देव दिसि भूलें।। मोर अभागा मातु कुटिलाईं। बिधि गति विषम काल कठिनाई।।_अर्थ_मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव ! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता,

पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।। यह नि रीति न राउरि होई। लोकहुं बेद बिदित नहिं गोई।।_अर्थ_इन सबने मिलकर पैर रोपकर ( प्रण करके ) मुझे नष्ट कर दिया था। परन्तु शरणागत के रक्षक आपने अपना ( शरणागत की रक्षा का ) प्रण निबाहा ( मुझे बचा लिया )। यह आपकी कोई अनोखी रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है।

जगु अनुभव भल एकउ गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाई।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।_अर्थ_सारा जगत् बुरा ( करनेवाला ) हो, किन्तु हे स्वामी ! केवल एक आप ही भले ( अनुकूल ) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है ? हे देव ! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह भी कभी किसी के सम्मुख ( अनुकूल ) है, न विमुख ( प्रतिकूल )।

Thursday, 6 March 2025

अयोध्याकाण्ड

सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किया मुदित फुर भाषे।। प्रथम जो आयसु मो कहुं होई। मारें माना करउं सिख सोई।।_अर्थ_आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूं।

पुनि जेहिं कहं जस कहब गोसाईं। सो सब भांति घटिहिं सेवकाई।। कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहं बिचारु न राखा।।_अर्थ_फिर हे गोसाईं ! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जायगा ( आज्ञापालन करेगा )। मुनि वशिष्ठजी कहने लगे_हे राम ! तुमने सच कहा पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया।

तेहि ते कहंउ बहोरी बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।। मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।_अर्थ_इसलिये मैं बार_बार अहंता हूं, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गयी है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जायगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा।

भरत विनय सादर सुनिअ करिअ विचारी बहोरि। करीब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।_अर्थ_पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिये, फिर उसपर विचार कीजिये। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ ( सार ) निकालकर वैसा ही ( उसी के अनुसार) कीजिये।

गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदय आनंदु बिसेषी।। भरतहिं धर्म धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।_अर्थ_भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर_

बोले गुर आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला।। नाथ साथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा के अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले_हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजी के चरणों की दुहाई है ( मैं सत्य कहता हूं कि ) विश्वभर में भरत के समान भाई कोई हुआ ही नहीं।

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। तें लोकहुं बेद हुं बड़भागी।। राउर जा पर अस अनुरागू। को कहा सकइ भरत कर भागू।।_अर्थ_जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में ( लौकिक दृष्टि से ) और वेद में ( पारमार्थिक दृष्टि से ) भी बड़भागी होते हैं ! ( फिर ) जिसपर आप ( गुरु ) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है ?

लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।। भरतउज्ञकहहइं सोइ किएं भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।_अर्थ_छोटा भाई जानकर भरत के मुंह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। ( फिर भी मैं तो यही कहूंगा कि ) भरत जो कुछ कहें, वहीं करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे।

तब मुनि बोले भरत सन सब संकोचु तजि तात। कृपा सिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय के बात।।_अर्थ_तब मुनि भरतजी से बोले_हे तात ! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो।

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।। लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहीं कछु करहिं बिचारू।।_अर्थ_ मुनि के वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर_गुरु तथा स्वामी को अपने अनुकूल जानकर_सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे।

पुलकि सरीर सभां में ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।। कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।_अर्थ_शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गये। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं  की बाढ़ आ गयी। ( वे बोले _) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया ( जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया )। इससे अधिक मैं क्या कहूं ?

मैं जानउं निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।। मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूं देखी।।_अर्थ_अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूं। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रिस ( अप्रसन्नता) नहीं देखी।

सिसुपन तें परिहरेउं न संगू। कबहुंक न कीन्ह मोर मन भंगू।।  मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही। हारेहुं खेल जितावहिं मोहीं।।_अर्थ_बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा ( मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया )। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भली-भांति देखा (अनुभव किया है )। मेरे हारने पर भी खेल_खेल में मुझे जिता देते रहे हैं।

महूं सनेह संकोच बस सनमुख कहीं न बैन। दरसनु तृपित न आजु लगि पेम पियासे नैन।।_अर्थ_मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुंह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।। यहु कहते मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।_अर्थ_परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने ( मेरे और स्वामी के बीच ) अन्तर डाल दिया। यह भी कहना मुझे आज शोभा नहीं देता। क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और और पवित्र हुआ है ? ( जिसको दूसरे साधु और पवित्र माने वही साधु है )।

मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।। फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।_अर्थ_माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूं, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ दुराचार के समान है। क्या कोदो की बाली उत्तम धान फल सकती है ? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है ?

सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभागा उदधि अवगाहू।। बिनु समझें निज अघ परिपाकू। जारिउं जायं जननि कहि काकू।।_अर्थ_स्वप्न में भी किसी को दोषी का वेष भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया।

हृदयं हेरि हारेहुं सब ओरा। एकहि भांति भलेहिं भल मोरा।। गुर गोसाईं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।_अर्थ_मैं अपने हृदय में सब ओर खोजकर हार गया ( मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता )। एक ही प्रकार भले ही ( निश्चय ही ) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्रीसीतारामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है।

साधु सभां गुर प्रभु निकट कहुं सुथल सतिभाउ। प्रेम प्रपंच कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।_अर्थ_ साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ_स्थान में मैं सत्यभाव से कहता हूं। यह प्रेम या प्रपंच ( छल_कपट ) झूठ है या सच ? इसे ( सर्वज्ञ ) मुनि वशिष्ठजी और ( अन्तर्यामी ) श्रीरघुनाथजी जानते हैं।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगती सबु साखी।। देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जेहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।_अर्थ_ प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज ( पिताजी)_का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएं व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर नारी दु:सह ताप से जल रहे हैं।

महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउं सब सूला।। सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेस लखन सिय साथा।। बिनु पानहिन्ह पयादेहिं पाएं। संकरु साखी रहेंउं एहि घाएं।। बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।_अर्थ_मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूं, यह सुन और समझकश्र मैंने दु:ख सहा है। श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का_सा वेष धारण कर बिना जूते पहने पांव_प्यादे ( पैदल ) ही वन को चले गये, यह सुनकर शंकरजी भी साक्षी हैं, इस घाव से मैं जीता रहा गया ( यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गये ! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ ( यह फटा नहीं)।

अब सबु आंखिन्ह देखेउं आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।। जिन्हहि निरखि मग सांपिनि बीती। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।_अर्थ_अब यहां आकर सब आंखों देखा लिया। यह जड़ जीव जीता रहकर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की सांपिनि और बीती भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती है_।

तेहि रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि। जासु तनय तजि दुसह दुख दैव सहावइ काहि।।_अर्थ_ वे ही श्रीरघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दु:सह दुख और किसे सहावेगा ?

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरती प्रीति विनय नय सानी।। सोक मगन सब सभा कहां खभारू। मनहुं कमल बन प्रेम तुषारू।।_अर्थ_ अत्यन्त व्याकुल तथा दु:ख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गये, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमर के वन पर पाला पड़ गया हो।

कहि अनेक विधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ज्ञानी।। बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।_अर्थ_तब ज्ञानी मुनि वशिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी ( ऐतिहासिक ) कथाएं कहकर भरतजी का समाधान किया। फिर सूर्यकुल रूपी कुमुद वन के प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा श्रीरघुनन्दन उचित वचन बोले_।

तात जायं जियं करहु गलानी। इस अधीन जीव गति जानी।। तीनों काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें।।_अर्थ_हे तात ! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को इश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) तीनों कालों और ( स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल ) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुमसे नीचे हैं।

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाईं। जाइ लोक परलोकु नसाई।। दोसु देहिं जननिहिं जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभां नहिं सेई।।_अर्थ_हृदय में तुमपर भी कुटिलता का आरोप करने से यह लोक ( यहां के सुख_यश आदि ) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है ( मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती )। माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है।

मिटिहहि पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।_अर्थ_हे भरत ! तुम्हारा नाम_स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच ( अज्ञान ) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा।

कहुं सुभाऊ सत्य सिवा साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।। तात कुतर्क करहु जनि जाएं। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएं।।_अर्थ_हे भरत ! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है‌ । हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाने नहीं छिपते।

Wednesday, 5 February 2025

अयोध्याकाण्ड

निसि न नींद नहीं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच। नीच कीच बिच मगन जस मईनहइं सरल संकोच।।_अर्थ_भरतजी को न तो रात में नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे ( तल )_के कीचड़ में डूबीं हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है।

कीन्ह मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।। केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाऊ न एकू।।_अर्थ_( भरतजी सोचते हैं कि ) माता के बहाने से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझता।

 अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।। मातु कहेहुं बहुरहिं रघुराऊ। राम जननी हठ करि कि काऊ।।_अर्थ_गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्या लौट चलेंगे। परन्तु मुनि वशिष्ठजी तो श्रीरामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे ( अर्थात् वे श्रीरामजी की रुचि देखें बिना जाने को नहीं कहेंगे )। माता कौसल्याजी के कहने से भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजी को जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी ?

मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महं कुसुम बाम बिधाता।। जौं हठ करउं तो निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।_अर्थ_मुझ सेवक की बात ही कितनी है ? उसमें भी समय खराब है ( मेरे दिन अच्छे नहीं है ) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूं तो यह घोर कुकर्म ( अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलाश से भी भारी ( निबाहने में कठिन ) है ।

एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचता भरतहिं रैन बिहानी।। प्रात नहाइ प्रभुहिं सिर नाई। बैठत पठए रिषय बोलाई।।_अर्थ_एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते_ही_सोचते रात बीत गयी। श्रीरामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा।

गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ। बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।_अर्थ_भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गये। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गये।

बोले मुनिबर समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।। धर्म धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।_अर्थ_ श्रेठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले_हे सभासदों ! हे सुजान भरत ! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्रीरामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं।

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।। गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलउ दलन देव हितकारी।।_अर्थ_ वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेद के मर्यादा के रक्षक हैं। श्रीरामजी का अवतार ही जगत् के कल्याण के लिये हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करनेवाले और देवताओं के हितकारी हैं।

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।। बिधि हरिहरु ससि रबि दिसिपाला।।_अर्थ_ नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्रीरामजी के समान यथार्थ ( तत्वसे ) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल।

अहिप महिप जहं लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।। करि बिचारी जियं देखहु नीके। राम रजाइ सीस सबहिं के।।_अर्थ_शेषजी और ( पृथ्वी और पाताल के अन्यान्य ) राजा आदि जहां तक प्रभुता है, और योग की सिद्धियां, जो वेद और शास्त्रों मे गाइ गयी हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, ( तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि ) श्रीरामजी की आज्ञा इन सभी के सिर पर है ( अर्थात् श्रीरामजी ही सके एकमात्र महान् महेश्वर हैं )।

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होई। समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।_अर्थ_अतएव श्रीरामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सब का हित होगा। ( इस तत्व और रहस्य को समझकर ) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वहीं मिलकर करो।

सब कहुं सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।। केहि बिधि अवध चरहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करि उपाऊ।।_अर्थ_श्रीरामजी का राज्याभिषेक सबके लिये सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्गं है। ( अब ) श्रीरामजी अयोध्या किस प्रकार चलें ? विचारकर कहो, वहीं उपाय किया जाय।

सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमार्थ स्वारथ सानी।। उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाई भरत कर जोरे।।_अर्थ_ मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ ( लौकिक हित )_में सनी हुई वानी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता।, सब लोग भोले ( विचारशक्ति से रहित ) हो गये। तब भरतजी ने सिर नवाकर हाथ जोड़े।


भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।। जनम हेतु सब कहं पितु माता। कर्म सुभासुभ देखि विधाता।।_( और कहा_) सूर्यवंश मेनमें एक_से_एक राजा हो गये हैं। सभी के जन्म के कारण पिता_माता होते हैं और शुभ_अशुभ कर्मों को ( कर्मों का फल ) विधाता देते हैं।

दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जग जाना।। सो गोसाईं बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।_अर्थ_आपकी आशिष ही एक ऐसी है जो दु:खों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है; यह जगत् जानता है। हे स्वामी ! आप वही हैं जिन्होंने विधाता की गति ( विधान )_को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी ( जो निश्चय कर दिया ) उसे कौन टाल सकता है ?

बूझिअ मोहि उपाऊ अब सो सब मोर अभागु। सुनि स्नेहमय बचन गुर उर उमड़ा अनुरागु।_अर्थ_अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया।

तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुं नाहीं।। सकुचउं तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।_अर्थ_( वे बोले _ ) हे तात ! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात ! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूं। बुद्धिमान लोग सर्वस्व जाता देखकर ( आधे की रक्षा के लिये ) आधा छोड़ दिया करते हैं।

तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहि लखन सीय रघुराई।। सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भए प्रमोद परिपूरन गाता।।_अर्थ_अत: तुम दोनों भाई ( भरत_शत्रुध्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्रीरामचन्द्र को लौटा दिया जाय। ये सुन्दर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गये। उनके सारे अंग परमानंद से परिपूर्ण हो गये।

मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जियं राउ राम भए राजा।। बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।_अर्थ_उनके मन प्रसन्न हो गये। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे हों और श्रीरामचन्द्रजी राजा हो गये हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई। परन्तु रानियों के दु:ख_सुख समान ही थे ( राम_लक्ष्मण वन में रहें या भरत_शत्रुध्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही, यह समझकर वे सब रोने लगीं।

कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन अभिमत दीन्हे।। कानन करउं जन्म भरि बाहू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू।।_अर्थ_भरतजी कहने लगे_मुनि ने जो कहा वह करने से जगत् भर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा। ( चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं, ) मैं जन्मभर वन में वास करूंगा।। मेरे लिये इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।

अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सर्बज्ञ सुजान। जौं फुर कहहु तो नाथ निज कीजिअ बचन प्रवान।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी हृदय के जाननेवाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ  ! अपने वचनों का प्रमाण कीजिये। ( उसके अनुसार व्यवस्था कीजिये।

भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि में बिदेहू।। भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढी तीर अबला सी।।_अर्थ_भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गये ( किसी को अपने देह की सुधि नहीं रही )। भरतजी की महान् महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है।

गा चह पार जितनी हियं हेरा। पावती नाव न बोहितु बेरा।। औरत करिहिं को भरत बड़ाई। सरसरी सीपि कि सिंधु समाई।।_अर्थ_वह ( उस समुद्र के ) पार जाना चाहती है, इसके लिये उसने हृदय में उपाय भी ढ़ूंढ़कर ! पर ( उसे पार करने का साधन ) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा ? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समान सकता है ?

भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए।। प्रभु प्रणामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।_अर्थ_मुनि वशिष्ठजी के अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाजसहित श्रीरामजी के पास आये। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सबलोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गये।

बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।। सुनहु राम सर्बग्य सुजाना। धर्म नीति गुन ज्ञान निधाना।।_अर्थ_श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले_हे सर्वज्ञ ! हे सुजान! हे धरम, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम ! सुनिये_

सब के उर अंतर बहुत जानहु भाउ कुमाउ। पुरजन जननी भरत हित होई सो कहिअ उपाउ।।_अर्थ_आप सबके भीतर बसते हैं और सबके भले_बुरे भाव को जानते हैं। जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वहीं उपाय बतलाइये।

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ।। सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारे ही हाथ उपाऊ।।_अर्थ_ आर्त ( दु:खी ) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दांव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे_हे नाथ ! उपाय तो आपही के हाथ है।

सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किएं मुदित फुर भायें।। प्रथम जो आयसु मो कहुं होई। मारें माना क्यों सिख सोई।।_अर्थ_आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूं।

Thursday, 9 January 2025

अयोध्याकाण्ड

कोल किरात भिल्ल बनवासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।। भरि भरि परन पूटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।_अर्थ_कोल, किरात और भील आदि वन के रहनेवाले लोग पवित्र, सुंदर और अमृत के समान स्वादिष्ट मधु ( शहद ) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर_भरकर कंद_मूल, फल और अंकुर आदि की चूड़ियों आंटियों _को।

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानता साधु पेम पहिचानी।। तुम्ह सुकृति हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।_अर्थ_सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग_अलग स्वाद, भेद ( प्रकार), गुण और नाम बता_बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम दूतए हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा लेने में श्रीरामजी की दुहाई देते हैं।

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानता साधु पेम पहिचानी।। तुम्ह सुकृति हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।_अर्थ_प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं ( अर्थात्, आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिये, दाम देकर या वस्तुएं लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिये )। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजी की कृपा से ही हमने आपलोगों के दर्शन पाये हैं।

हमहिं अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरना देवधुनि धारा।। राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रभु चहइअ जस राजा।।_अर्थ_हमलोगों को आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिये गंगाजी की धारा दुर्लभ है। ( देखिये, ) कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने निषाद पर जैसी कृपा की है। जैसा राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए।

यह जियं जानि संकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु। हमहिं कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।_अर्थ_हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करने के लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये।

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।। देब काह हम तुम्हहिं गोसाईं। ईंधनु पात किरात मिताई।।_अर्थ_आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं है। हे स्वामी ! हम आपको क्या देंगे ? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन ( लकड़ी ) और पत्तों तक ही है।

यह हमारी अति बड़ि सेवकाईं। लेहिं न बासन बसन चोराई।। हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाति।_अर्थ_हमारी तो यही बहुत भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन चुरा लेते। हमलोग जड़ जीव हैं, जीवों को हिंसा करनेवाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं।

पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं।। सपनेहुं धरमबुद्वि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाउ।।_अर्थ_हमारे दिन रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारे कमरे में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं हममें स्वप्न में भी धरमबुद्वि कैसी ? यह सब तो श्रीरघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है।

जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।। बचन सुनि पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।_अर्थ_जब से प्रभु के चरणकमल देखे, तबसे हमारे दु:सह दु:ख और दोषों मिट गये। वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गये और उनके भाग्य की सराहना करने लगे।

लागे सराहन भाग सब अनुराग सुनावहीं। बोलनि मिलनि सीय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।। नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।_अर्थ_सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्रीसीतारामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल_भीलों की बातें सुनकर सभी नर_नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं ( उसे धिक्कार देते हैं )। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया।


बिसारहि बन चहुं ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब। जल ज्यों दादुर मोर भए  पीन पावस प्रथम।।_अर्थ_सब लोग दिनों-दिन परम आनन्दित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा के जल से मेढ़क और मोर मोटे हो जाते हैं ( प्रसन्न होकर नाचते_कूदते हैं ) ।

पुरजन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं कल्प सम बीती।। सिय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करि सरिस सेवकाई।।_अर्थ_अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मगन हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सासुओं थीं, उतने ही वेष ( रूप ) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक_सी सेवा करती है।

लखा न मरमु राम बिनु काहूं। माया सब सिय माया माहूं।। सीयं सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह रहा सुख सिख आसिफ दीन्हीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब माताएं ( पराशक्ति महामाया ) श्रीसीताजी की माया में ही है। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिये।

लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानी पछितानी अघाई।। अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।_अर्थ_सीताजी समेत दोनो भाईयों ( श्रीराम _लक्ष्मण )_का सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई ‌। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है कि, धरती बीच ( फटकर समा जाने के लिये रास्ता ) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता।

लोकहुं बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख जलु नरक न लहहीं।। यहु हंसी सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।_अर्थ_ लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि ( ज्ञानी ) भी कहते हैं कि जो श्रीरामजी से बिमुख हैं इन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता ! श्रीरामचन्द्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं ।