Tuesday, 26 January 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड
 नाम रूप अति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।। अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।---अर्थ--नाम और रूप की गति की कहानी विशेषता की कथा ) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है और दोनो का यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया है।

    राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार। तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जौं चाहसि उजियार।।---अर्थ--तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनो ओर उजाला चाहता है तो मुखरुपि द्वार की जीभ रुपि देहली पर राम-नाम रुपि मणिदीपक को रख।
 
   नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी।। ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा।।---अर्थ--ब्रह्मा के बनाये हुए इस प्रपंच ( दृश्य जगत् ) से भली-भाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए ( तत्वज्ञानरुपी दिन में ) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिवर्चनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं। 
 
      जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ।। साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए।।---अर्थ--जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को ( यथार्थ महिमा को ) जानना चाहते हैं, वे ( जिज्ञासु ) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। ( लौकिक सिद्धियों को जाननेवाले अर्थार्थी ) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों ) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं।

  जपहिं नाम जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकटहोहिं सुखारी।। राम भगत जग चारि प्रकारा। ुकृती चारिउ अनघ उदारा।।---अर्थ-- ( संकट से घबराये हुए ) आर्त भक्त नाम जाप करते हैं तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत् में चार प्रकार के ( 1. अर्थार्थी---धनादि की चाह से भजनेवाले, 2. आर्त---संकट की निवृति के लिये भजनेवाले, 3. जिज्ञासु---भगवान् को जानने की इच्छा से भजनेवाले, 4. ज्ञानी---भगवान् को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजनेवाले ) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं।

चहूँ चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानि प्रभुहिं बिसेषि पिआरा।। चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।---अर्थ--चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है; इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो ( नाम को छोड़कर ) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। 

   सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष हृद तिन्हहुँ किये मन मीन।।---अर्थ--जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी ) कामनाओं से रहित और श्रीरामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुन्दर प्रेमरूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है ( अर्थात् वे नामरूपी सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते )।   

             अगुन सगुन दुइ ब्रह्म स्वरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।। मोरें मत बड़नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।---अर्थ--निर्गुण और सगुण---ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनो ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनो में बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनो को वश में कर रखा है। 

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की।। एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सह जुग ब्रह्म बिबेकू।। उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।। ब्यापकु एक ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनन्द रासी।।---अर्थ--सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढ़िठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात करता हूँ। ( निर्गुण और सगुण )  दोनो प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है   जो काठ के अन्दर है परन्तु दीखता नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है जो प्रत्यक्ष दीखती है। ( तत्वतः दोनों एक ही हैं; केवल प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती है। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्वतः एक ही हैं। इतना होने पर भी ) दोनो ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनो सुगम हो जाते हैं। इसी से मैने नाम को ( निर्गुण ) ब्रह्म से और ( सगुण ) राम से बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है; सत्ता, चैतन्य और आनन्द की धनराशि है।

 अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी।। नाम निरूपननाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते।।---अर्थ--ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत् के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके ( नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर ) नाम का जतन करने से ( श्रद्धापूर्वक नामजपरूपि साधन करने से ) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य।


  निरगुन ते एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार। कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार।।---अर्थ--इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यन्त बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ कि नाम ( सगुण ) राम से भी बड़ा है।                                                                                      

Thursday, 14 January 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड

तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहऊँ नाइ राम पद माथा।। मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई।।---अर्थ--उसी बल से ( महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देनेवाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही ) मैं श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से ( वाल्मीकि व्यास आदि ) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गायी है। भाई ! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिये सुगम होगा।

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहिं जाहिं।।---अर्थ--जो अत्यंत बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उनपर पुल बँधा देता है तो अत्यन्त छोटी चीटियाँ भी उसपर चढ़कर बिना परिश्रम के ही पार चली जाती हैं। ( इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्रीरामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)।

एहि प्रकार बल मनहिं देखाई। करिहऊँ रघुपति कथा सुहाई।।ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना।।---अर्थ--इस प्रकार मन को दिखलाकर मैं श्रीरघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्रीहरि का सुयश वर्णन किया है।

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।। कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा।।---अर्थ--मैं उन सब ( श्रेष्ठ कवियों ) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के उन कवियों को भी मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है।

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भावाँ जिन्ह हरि चरण बखाने।। भए जे अहहिं जे होइहहिं आगे। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागे।।---अर्थ--जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंन भाषा में हरिचरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ।

होहु प्रसन्न देहु वरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू।। जो प्रबंध बुध नहीं आदरहिं। सो श्रम बादि बाल कबि कहहिं।।---अर्थ--आप सब यह प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो; क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं।

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम कब कहँ हित होई।। राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा।।---अर्थ--कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम है जो गंगाजी की तरह सबका हित करनेवाली हो। श्रीरामजी की कीर्ति तो बड़ी सुन्दर ( सबका अनन्त कल्याण करनेवाली ही ), परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है ( अर्थात् इन दोनो का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है।

तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सियनि सुहावनि टाट पटोरे।।---अर्थ--परन्तु हे कवियों ! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिये सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है।
सरल कबित कीरति बिमल सोई आदरहिं सुजान। सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं सुजान।।---अर्थ-- चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैर को भूलकर सराहना करने लगें।

सो न कोई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर। करहु कृपा हरि जस कहऊँ पुनि पुनि करऊँ निहोर।।---अर्थ--ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरे बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है। इसलिये बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों ! आप कृपा करें, जिससे मैं हरियश का वर्णन कर सकूँ।
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल। बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल।।---अर्थ--कवि और पण्डितगण ! आ जो रामचरित्ररुपि मानसरोवर के सुन्दर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझपर कृपा करें।

बंदउँ मुनि पद कंजु रामायण जेहि निरमयउ। सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषण सहित।।---अर्थ--मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी खर (कठोर) से विपरीत बड़ी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात् दोष से रहित है।

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोरिधि सरिस। जिन्हहिं न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु।।---अर्थ--मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसारसमुद्र के पार होने के लिये जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद नहीं होता।
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं किन्ह जहँ। संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनि।।---अर्थ--मैं  ब्रह्माजी के चरण-रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए।

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि। होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि।।---अर्थ--देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह---इन सबके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथों को पूरा करें।

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता।। मज्जन मान पाप हर एका। कहत सुनत हर एक अबिबेका।।---अर्थ--फिर मैं सरस्वतीजी और देवनदी गंगाजी की वन्दना करता हूँ। दोनो पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती हैं और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है।

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी। सेवक स्वामी सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के।।---श्रीमहेश और पार्वतीजी को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबंधु और नित्य दान देनेवाले हैं, जो सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदासजी का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करनेवाले हैं।

कलि बिलोकि जग हित गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।। अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रकट प्रभाउ महेस प्रतापू।।---अर्थ--जिन शिव- पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत् के हित के लिये, शाबरमंत्रसमूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्रीशिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।

सो उमेश मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगलमूला। सुमिरि शिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ।।---अर्थ--वे उमापति शिवजी मुझपर प्रसन्न होकर ( श्रीरामजी की ) कथा को आनन्द और मंगल को उत्पन्न करनेवाली बनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनो को स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चावभरे चित्त से श्रीरामचरित्र का वर्णन करता हूँ।

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।। जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहहिं समझि सचेता।। होइहहिं राम चरण अनुरागी। कलिमल रहित सुमंगल भागी।।---अर्थ--मेरी कविता श्रीशिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात शोभित होती है। जो इस कथा को प्रेमसहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहे सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुन्दर कल्याण के भागी होकर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जायेंगे।

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ। तौं फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ।।---अर्थ--यदि मुझपर श्रीशिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैने इस भाषा, कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो।

बंदउँ अवधपुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।। प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी।।---अर्थ--मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करनेवाली श्रीसरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ जिनपर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की ममता थोड़ी नहीं है।

सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए।। बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग साची।।---अर्थ--उन्होंने (अपनी पुरी में रहनेवाले) सीताजी की निंदा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौसल्यारूपि पूर्व दिशा की प्रार्थना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। विस्व सुखद खल कमल तुसारू।। दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी।। करउँ प्रणाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी।। जिन्हहिं बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता।।---अर्थ--जहाँ (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिये पाले के समान श्रीरामचन्द्रजी रूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुन्दर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वो मुझपर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पायी तथा जो श्रीराम के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं।

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।।---अर्थ--मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया।
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।। जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई।।---अर्थ--मैं परिवार सहित राजा जनक जी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्रीरामचन्द्रजी के देखते ही वह प्रगट हो गया।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम व्रत जाइ न बरना।। राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।---अर्थ--सबसे पहले मैं श्रीरामजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्रीरामजी के चरणकमलों में भौंरे के तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता।

बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुखदाता।। रघुपति कीरति बमल पताका। दण्ड समान भयउ जस जाका।।---अर्थ--मैं श्रीलक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुन्दर और भक्तों को सुख देनेवाले हैं। श्रीरघुनाथजीकी कीर्ति रूपि विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी) का यश ( पताका को ऊँचा करके फहरानेवाले ) दंड के समान हुआ।

सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।। सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।।---अर्थ--जो हजार सिरवाले और जगत् के कारण ( हजार सिरों पर जगत् को धारण कर रखनेवाले ) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिये अवतार लिया है, वे गुणों की खानि कृपासिंधु सुमित्रानंदन श्रीलक्ष्मणजी मुझपर सदा प्रसन्न रहें।

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी।। महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना।।---अर्थ--मैं श्रीशत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वार सुशील और श्रीभरतजी के पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर श्रीहनुमानी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्रीरामचन्द्रजी ने स्वयं ( अपने मुख से ) वर्णन किया है।

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ज्ञान धन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।---अर्थ--मैं पवनकुमार श्रीहनुमानजी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरुपी वन को भष्म करने के लिये अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भँवर में धनुष-वाण लिये श्रीरामजी निवास करते हैं।

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा।। बंदउँ सबके चरन सुहाए। अधम शरीर राम जिन्ह पाए।।---अर्थ--वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जामवंतजी, राक्षसों के राजा विभिषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबे सुन्दर चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम ( पशु और राक्षस आदि ) शरीर में भी श्रीरामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया।

रघुपति चरित उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।। बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे ।।---अर्थ--पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुरसमेत जितने श्रीरामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो श्रीरामजी के निष्माम सेवक हैं।

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिज्ञान बिसारद।। प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा।।---अर्थ--शुकदेवजी, सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परमज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ। हे मुनिश्वरों ! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये।

जनककुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुणानिधान की।। ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपा निर्मल अति पावउँ।।---राजा जनक की पुत्री, जगत् की माता और करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी की प्रियतमा श्रीजानकीजी के दोनो चरणकमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ।

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरण कमल बंदउँ सब लायक।। राजिवनयन धरे धनु सायक। भगत विपति भंजन सुखदायक।।---अर्थ--फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुषवाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले भगवान् श्रीरघुनाथजी के सर्वसमर्थ चरणकमलों की वन्दना करता हूँ।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। बंदउँ सीता राम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।---अर्थ--जो वाणी और उसके अर्थ और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तुवास्तव में अभिन्न (एक ) हैं, उन श्रीसीतारामजी के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।। बिधि हरिहरमय बेद प्रान सो। अगुन अनुपम गुन निधान सो।।---अर्थ--मैं श्रीरघुनाथजी के नाम 'राम' की वन्दना करता हूँ, जो कृशानु ( अग्नि ), भान् (सूर्य) और हिमकर ( चन्द्रमा ) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है; निर्गुण उपमारहित और गुणों का भण्डार है।

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतू उपदेसू।। महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ।।---अर्थ--जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है, तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ शुद्ध करि उलटा जापू।। सहस नामसम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी।।---अर्थ--आदिकबि श्रीवाल्मीकीजी रामनाम के प्राप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गये। श्रीशिवजी के इस वचन को सुनकर क  एक राम नाम सहस्त्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति ( श्रीशिवजी ) के साथ रामनाम का जाप करती रहती है।

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषण तिय भूषण ती को।। नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।---अर्थ--नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्रीशिवजी हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियों में भूषणरूप ( पतिव्रताओं में शिरोमणि ) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया ( अर्थात् उन्हें अपना अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया )। नाम के प्रभाव को श्रीशिवजी भली-भाँति जानते हैं, जिस ( प्रभाव ) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया।

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास। राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।---अर्थ-- श्रीरघुनाथजी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, तुलतीदास कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और 'राम' नाम के दो सुन्दर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं।

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ।। सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू।।---अर्थ--दोनो अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रुपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिये सुलभ और सुख देनेवाले हैं, और जो इस लोक में और परलोक में नि्वाह करते हैं ( अर्थात् भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं )।

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के।। बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती।।---अर्थ--ये कहने, सुनने और स्मरण करने में सबके लिये सुलभ और सुख देने वाले हैं, और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं ( अर्थात् भगवान् के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।

नर नारायन सरिस सुभ्रता। जग पालक बिसेषि जन त्राता।। भगति सुतिय कल करन विभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषण।।---अर्थ--ये दोनो अक्षर नर-नारायण के समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत् का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं। ये भक्तिरूपिणी सुन्दर स्त्री के कानों के सुन्दर आभूषण ( कर्णफूल ) हैंऔर जगत् के हित के लिये निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं।

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर वसुधा के।। न मन मंजु कंज मधुकर से जीह जसोमति हरि हलधर से।।---अर्थ--ये सुन्दर गति ( मोक्ष ) रूपि अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करनेवाले हैं, भक्तों के मन रूपि सुन्दर कमल में विहार करनेवाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपि यशोदाजी के लिये श्रीकृष्ण और बलरामजी के समान ( आनन्द देनेवाले ) हैं।

एक छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ। तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ।।---अर्थ--तुलसीदास कहते हैं---श्रीरघनाथजी के नाम के दोनो अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक ( रकार ) छत्ररूप ( रेफ ) और दूसरा ( मकार ) मुकुटमणि ( अनुस्वार ) रूप से सब अक्षरों के ऊपर हैं। 
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी। नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।---अर्थ--समझने में नाम और नामी एक-- से हैं, किन्तु दोनो में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है ( अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होे पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्रीरामजी अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं )। नाम और रूप दोनो ईश्वर की उपाधि हैं; ये  ( भगवान् के नाम और रूप ) दोनो अनिवर्चनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर ( शुद्ध भक्तियुक्त ) बुद्धि से ही इनका ( दिव्य अविनाशी ) स्वरूप जानने में आता है।

 को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।। देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहीं नाम बिहीना।।---अर्थ-- इन ( नाम और रूप ) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी ) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता।  



रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।। सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदय सनेह बिसेषें।।---अर्थ--कोई-सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाय तो विशेष प्रेम के सथ वह रूप हृदय में आ जाता है।                                                                                                                                               

बालकाण्ड

बालकाण्ड
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहीं कोइ। अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।।---अर्थ--मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिसका कोई मित्र है कोई शत्रु जैसे अंजलि में रखे हुए सुन्दर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन ) दोनो ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनो का ही समान रूप से कल्याण करते हैं)

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालविनय सुनि करि कृपा रामचरण रति देहु।।---अर्थ--संत सरलचित और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्रीरामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें।

बहुरि बंदि खलगण सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।। पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरे हरष बिषाद बसेरें।।---अर्थ--अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों केहित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।

हरिहर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।। जे पर दोष लखहिं सहसाखी। परहित घृत जिनके मन माखी।।---अर्थ--जो हरि और हर के यश रुपी पूर्णिमा के लिये राहू के समन है (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु और शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्त्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रुपी घी के लिये जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी में घी गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाये काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं।

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।। उदय केत सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके।।---अर्थ--जो तेज (दूसरों को जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुणरुपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिये केतू (पुच्छल तारे) के समान हैं, औरजिनके कुम्भकरण के तरह सोते रहने में ही भलाई है।

पर अकाज लगि तन परिहरहिं। जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहिं।। बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनई पर दोषा।।---अर्थ--जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुखवाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं।

पुनि प्रणवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनई सहस दस काना।। बहुरि सक्र सम विनवउँ तेही। संतत सुरानीक जेहि केही।।---अर्थ--पुनः उनको राजा पृथु ( जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये दस हजार कान माँगे थे ) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ,जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा ( मदिरा ) नीकी और हितकारी मालूम होती है। ( इन्द्र के लिये सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है)। 

बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन परदोष निहारा।।---अर्थ--जिनको कठेर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं।

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति। जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।---अर्थ--दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनो हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है।

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियहिं तेऊ।। उघरहिं अंत न होई निबाहु। कालनेमि जिमि रावण राहू।।---अर्थ--जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा ( साधु का-सा) वेष बनाये देखकर वेष के प्रताप से जगत् पूजता है; परन्तु एक-न-एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनकाकपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहू का हाल हुआ।

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।। हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।।---अर्थ--बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान न होता है, जैसे जगत् में जाम्बवान् और हनुमानजी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।। साधु-असाधु सदन सुख सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।---अर्थ--पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच ( नीचे की ओर बहनेवाले ) जल के संग कीचड़ बन जाती है। साधु के घर तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर केे तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं।

धूम कुसंगति कालिख होई। लिखिअ पुराण मंजु मसि सोई।। सोई जग अनल अनिल संघाता। होई जलद जग जीवन दाता।।---अर्थ--कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने में काम आता है और वही धुआँ, जल अग्नि और पवन के संग से बादलहोकर जगत् को जीवन देनेवाला बन जाता है।

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलक्षण लोग।।---अर्थ--ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र---ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर और विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं।

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपयश दीन्ह।।---अर्थ--महीने के दोनो पखवाड़े में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है ( एक का नाम शुक्ल और दूसरे का कृष्ण रख दिया )। एक को चन्द्रमा को बढ़ानेवाला और दूसरे को उसका घटानेवाला समझकर  जगत् ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया।
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।---अर्थ--जगत् में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं सबके चरणकमलों की सदा दोनो हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।

देव-दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब। बंदउँ किंनर रजनीचर कृपा करहु अब सर्ब।।---अर्थ--देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किंनर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझपर कृपा कीजिए।

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ वासी।। सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।---अर्थ--चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के ( स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज ) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए सारे जगत् को मैं श्री सीताराममय जानकर दोनो हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।। निज बुधि बल भरोस मोहि नाही। ताते विनय करउँ सब पाहीं।।---अर्थ--मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये। मुझे अपने बुद्धि बल का भरोसा नहीं है, इसलिये मैं सबसे विनती करता हूँ।

करन चहउँ रघुपति गुण गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।। सूझ एकउ अंग उपाऊ। मन ति रंक मनोरथ राऊ।।---अर्थ--मैं श्रीरघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्त मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजी का चरित अथाह है। इसके लिये मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल है, किन्तु मनोरथ राजा है।

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिय अमिय जग जुरइ छाछी।। छमिहहिं सज्जन मोरि ढ़िठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।---अर्थ--मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है;चाह तो अमृत पीने की है, पर जगत् में छाछ भी नहीं मिलती। सज्जन मेरी ढ़िठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बालक जैसे वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे।

जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।। हँसिहहिं क्रूर कुटिल कुविचारी।जे पर दोष भूषणधारी।।---अर्थ--जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरे के दोषों को ही गहने के तरह धारण किये रहते हैं ( अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे होते हैं ), हँसेंगे।

निज कबित्त केहि लाग नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।। जै पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग माहीं।। ---अर्थ--अच्छी हो या फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती ? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष इस संसार में बहुत कम हैं।

जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।। सज्जन सुकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।।---अर्थ--हे भाई ! जगत् में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं) समुद्र सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर ( दूसरों का उत्कर्ष देखकर ) उमड़ पड़ता है।

भाग छोट अभिलाष बड़ करउँ एक विश्वास। पैहहिं सुनि सुख सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।---अर्थ--मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जनसभी सुख पायेगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे।

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।। हंसहिं बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकहि।।---अर्थ--किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेढ़क पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं।

कबित रसिक राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।। भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसे नहीं खोरी।।---अर्थ--जो तो कविता के रसिक हैं और जिनका श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम करेगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं।

प्रभु पद प्रीति सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहिं फीकी।। हरि हर पद रति मति कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।---अर्थ--जिन्हें तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान् विष्णु ) और श्री हर ( भगवान् शिव ) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते ), उन्हें श्रीरघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी।

राम भगति भूषित जियँ जानी।सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।। कबि होऊँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब विद्या हीनू।।---अर्थ--सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्रीरामजी के भक्ति से भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं तो कवि हूँ, वाक्यरचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ।

आखर अरथ अलंकृत नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।। भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुण बिबिध प्रकारा।।---अर्थ--नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छन्द-रचना, भावों और रसों के आधार पर भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष  होते हैं।

कबित बिबेक एक नहीं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।---अर्थ--इनमें से काव्य संबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं करे कागज पर लिखकर ( शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ।
भनिति मोरि सब गुण रहित बिस्व बिदित गुण एक। सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक।।---अर्थ--मेरी रचना सब गुणों से रहित है; इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे बिचाररकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान हैं, इनको सुनेंगे।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुराण श्रुति सारा।। मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।---अर्थ-- समें श्रीरघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है एवं अमंगलों को हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं।

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।। बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी।।---अर्थ--जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी पति के बिना शोभा नहीं पाती।

सब गुण रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी।। सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुण ग्राही।।---अर्थ-- इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई गुणों से रहित कविता को भी , राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करनेवाले होते हैं।

जदपि कवित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं।। सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहि न सुसंग  बड़प्पनु पावा।।---अर्थ--यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में  ययही एक भरोसा है।.भले संग से भला किसने बड़प्पन न नहीं पाया ?


धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।। भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल हरनी।।---अर्थ---धुआँ भी अगगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुएपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत् का कल्याण करनेवाली रामकथा रुपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। ( इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी )।

मंगल करनी कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की। गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।। प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहिं सुजन मन भावनी। भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनी पवनी।।---अर्थ--तुलीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों  को हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कविा रुपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी ( गंगाजी ) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजी के सुन्दर यश के संग से यह कविता सुन्दर तथा सज्जनों के मन को भानेवाली हो जायगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।

प्रिय लागहिं अति सबहिं मम भनिति राम जस संग। दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिय मलय प्रसंग।।---अर्थ--श्रीरामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वत के संग से काष्टमात्र ( चन्दन बनकर ) वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ ( की तुच्छता ) का विचार करता है ?

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।---अर्थ--श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उज्जवल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकरसब लोग उसे पीते हैं। उसी तरह गँवारू भाषा होने पर भी श्री सीता-रामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं।

मणि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।। नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।---अर्थ--मणि, माणिक और मोती जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर (गहना मणि- माणिक का ) को ही ये सब अधिक शोभायमान होते हैं।


तैसहिं सुकबि कबित बुध कहहिं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहिं।। भगति हेतु बधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवहिं धाई।।---अर्थ--इसी तरह, बद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की विता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता  वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है )। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं।

रामचरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।। कबि कोबिद अस हृदय बिचारी। गावहिं हरिहर कलिमल हारी।।---अर्थ--सरस्वतीजी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरितरूपी सरोवर में उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कव और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरनेवाले श्रीहरि के यश का ही गान करते हैं। 
कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।। हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।---अर्थ--संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं ( कि मैं क्यों इनके बुलाने पर आयी )। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं। (स्वाति नक्षत्र के पानी का बूँद सीप में पड़ने से वह मोती हो जाता है।)

जौं बरसइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।---अर्थ--इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपि जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुन्दर कविता होती है।

जुगुति बेधि पुनि पोहि अहिं रामचरित बर ताग। पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।---अर्थ--उन कवितारूपि मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपि सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिसे अत्यंत अनुरागरूपि शोभा होती है ( वे अत्यानतिक प्रेम को प्राप्त होते हैं।

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेस मराला।। चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलिमल भाँड़े।।---अर्थ--जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान और वेष हंस का है, जो वेदमार्ग छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़े हैं।

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।। तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी।।---अर्थ--जो श्रीरामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगा धींगी करनेवाले, धर्मध्वजी ( धर्म की झूठी ध्वजा फहरानेवाले--दम्भी )  और कपट के धन्धों का बोझ ढ़ोनेवाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है।

जौं अपने अवगुण सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहीं लहऊँ।। ताते मैं अति अल्प बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने।।---अर्थ--यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़ेमें ही समझ लेंगे।

समुझि बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोऊ न कथा सुनि देइहिं खोरी।। एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका।।---अर्थ--मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं।

कबि न होऊँ नहीं चतुर कहावऊँ। मति अनुरूप राम गुण गावउँ।। कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा।।---अर्थ--मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्रीरघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि।
जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं।। समुझत अमित राम प्रभुताई।। करत कथा मन अति कदराई।।---अर्थ--जिस हवा से सुमेरु---जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्रीरामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है।

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुराण। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान।।---सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण---ये सब 'नेति-नेति' कहकर ( पार नहीं पाकर 'ऐसा नहीं' 'ऐसा नहीं' कहते हुए ) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं।

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई।। तहाँ बेद अस कारण राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।---अर्थ--यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी ( अकथनीय ) ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। ( अर्थात् भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता; परन्तु जिससे जो बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिये। क्योंकि भगवान के गुणगान रूपि  भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है।

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा।। व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहि धरि देह चरित कृत नाना।।---अर्थ--जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबसे व्यापक एवं विश्वरूप है, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है।

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी।। जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहि करुणा करि कीन्ह न कोहू।।---वह लीला केवल भक्तों के हित के लिये ही है; क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिसपर कृपा कर दी, उसपर फिर कभी क्रोध नहीं किया।


गईं बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।। बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी।।---अर्थ--वे प्रभु श्रीरघुनाथजी गयी हुई वस्तु को फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनिवाज ( दीनबन्धु ), सरलस्वभाव, सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्रीहरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल ( मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम ) देनेवाली बनाते हैं।