Tuesday, 26 January 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड
 नाम रूप अति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।। अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।---अर्थ--नाम और रूप की गति की कहानी विशेषता की कथा ) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है और दोनो का यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया है।

    राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार। तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जौं चाहसि उजियार।।---अर्थ--तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनो ओर उजाला चाहता है तो मुखरुपि द्वार की जीभ रुपि देहली पर राम-नाम रुपि मणिदीपक को रख।
 
   नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी।। ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा।।---अर्थ--ब्रह्मा के बनाये हुए इस प्रपंच ( दृश्य जगत् ) से भली-भाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए ( तत्वज्ञानरुपी दिन में ) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिवर्चनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं। 
 
      जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ।। साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए।।---अर्थ--जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को ( यथार्थ महिमा को ) जानना चाहते हैं, वे ( जिज्ञासु ) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। ( लौकिक सिद्धियों को जाननेवाले अर्थार्थी ) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों ) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं।

  जपहिं नाम जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकटहोहिं सुखारी।। राम भगत जग चारि प्रकारा। ुकृती चारिउ अनघ उदारा।।---अर्थ-- ( संकट से घबराये हुए ) आर्त भक्त नाम जाप करते हैं तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत् में चार प्रकार के ( 1. अर्थार्थी---धनादि की चाह से भजनेवाले, 2. आर्त---संकट की निवृति के लिये भजनेवाले, 3. जिज्ञासु---भगवान् को जानने की इच्छा से भजनेवाले, 4. ज्ञानी---भगवान् को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजनेवाले ) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं।

चहूँ चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानि प्रभुहिं बिसेषि पिआरा।। चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।---अर्थ--चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है; इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो ( नाम को छोड़कर ) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। 

   सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष हृद तिन्हहुँ किये मन मीन।।---अर्थ--जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी ) कामनाओं से रहित और श्रीरामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुन्दर प्रेमरूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है ( अर्थात् वे नामरूपी सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते )।   

             अगुन सगुन दुइ ब्रह्म स्वरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।। मोरें मत बड़नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।---अर्थ--निर्गुण और सगुण---ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनो ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनो में बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनो को वश में कर रखा है। 

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की।। एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सह जुग ब्रह्म बिबेकू।। उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।। ब्यापकु एक ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनन्द रासी।।---अर्थ--सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढ़िठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात करता हूँ। ( निर्गुण और सगुण )  दोनो प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है   जो काठ के अन्दर है परन्तु दीखता नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है जो प्रत्यक्ष दीखती है। ( तत्वतः दोनों एक ही हैं; केवल प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती है। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्वतः एक ही हैं। इतना होने पर भी ) दोनो ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनो सुगम हो जाते हैं। इसी से मैने नाम को ( निर्गुण ) ब्रह्म से और ( सगुण ) राम से बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है; सत्ता, चैतन्य और आनन्द की धनराशि है।

 अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी।। नाम निरूपननाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते।।---अर्थ--ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत् के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके ( नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर ) नाम का जतन करने से ( श्रद्धापूर्वक नामजपरूपि साधन करने से ) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य।


  निरगुन ते एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार। कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार।।---अर्थ--इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यन्त बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ कि नाम ( सगुण ) राम से भी बड़ा है।                                                                                      

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