Thursday, 14 January 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड

तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहऊँ नाइ राम पद माथा।। मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई।।---अर्थ--उसी बल से ( महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देनेवाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही ) मैं श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से ( वाल्मीकि व्यास आदि ) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गायी है। भाई ! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिये सुगम होगा।

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहिं जाहिं।।---अर्थ--जो अत्यंत बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उनपर पुल बँधा देता है तो अत्यन्त छोटी चीटियाँ भी उसपर चढ़कर बिना परिश्रम के ही पार चली जाती हैं। ( इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्रीरामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)।

एहि प्रकार बल मनहिं देखाई। करिहऊँ रघुपति कथा सुहाई।।ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना।।---अर्थ--इस प्रकार मन को दिखलाकर मैं श्रीरघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्रीहरि का सुयश वर्णन किया है।

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।। कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा।।---अर्थ--मैं उन सब ( श्रेष्ठ कवियों ) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के उन कवियों को भी मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है।

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भावाँ जिन्ह हरि चरण बखाने।। भए जे अहहिं जे होइहहिं आगे। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागे।।---अर्थ--जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंन भाषा में हरिचरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ।

होहु प्रसन्न देहु वरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू।। जो प्रबंध बुध नहीं आदरहिं। सो श्रम बादि बाल कबि कहहिं।।---अर्थ--आप सब यह प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो; क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं।

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम कब कहँ हित होई।। राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा।।---अर्थ--कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम है जो गंगाजी की तरह सबका हित करनेवाली हो। श्रीरामजी की कीर्ति तो बड़ी सुन्दर ( सबका अनन्त कल्याण करनेवाली ही ), परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है ( अर्थात् इन दोनो का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है।

तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सियनि सुहावनि टाट पटोरे।।---अर्थ--परन्तु हे कवियों ! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिये सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है।
सरल कबित कीरति बिमल सोई आदरहिं सुजान। सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं सुजान।।---अर्थ-- चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैर को भूलकर सराहना करने लगें।

सो न कोई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर। करहु कृपा हरि जस कहऊँ पुनि पुनि करऊँ निहोर।।---अर्थ--ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरे बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है। इसलिये बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों ! आप कृपा करें, जिससे मैं हरियश का वर्णन कर सकूँ।
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल। बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल।।---अर्थ--कवि और पण्डितगण ! आ जो रामचरित्ररुपि मानसरोवर के सुन्दर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझपर कृपा करें।

बंदउँ मुनि पद कंजु रामायण जेहि निरमयउ। सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषण सहित।।---अर्थ--मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी खर (कठोर) से विपरीत बड़ी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात् दोष से रहित है।

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोरिधि सरिस। जिन्हहिं न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु।।---अर्थ--मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसारसमुद्र के पार होने के लिये जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद नहीं होता।
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं किन्ह जहँ। संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनि।।---अर्थ--मैं  ब्रह्माजी के चरण-रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए।

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि। होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि।।---अर्थ--देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह---इन सबके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथों को पूरा करें।

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता।। मज्जन मान पाप हर एका। कहत सुनत हर एक अबिबेका।।---अर्थ--फिर मैं सरस्वतीजी और देवनदी गंगाजी की वन्दना करता हूँ। दोनो पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती हैं और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है।

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी। सेवक स्वामी सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के।।---श्रीमहेश और पार्वतीजी को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबंधु और नित्य दान देनेवाले हैं, जो सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदासजी का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करनेवाले हैं।

कलि बिलोकि जग हित गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।। अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रकट प्रभाउ महेस प्रतापू।।---अर्थ--जिन शिव- पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत् के हित के लिये, शाबरमंत्रसमूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्रीशिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।

सो उमेश मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगलमूला। सुमिरि शिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ।।---अर्थ--वे उमापति शिवजी मुझपर प्रसन्न होकर ( श्रीरामजी की ) कथा को आनन्द और मंगल को उत्पन्न करनेवाली बनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनो को स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चावभरे चित्त से श्रीरामचरित्र का वर्णन करता हूँ।

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।। जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहहिं समझि सचेता।। होइहहिं राम चरण अनुरागी। कलिमल रहित सुमंगल भागी।।---अर्थ--मेरी कविता श्रीशिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात शोभित होती है। जो इस कथा को प्रेमसहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहे सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुन्दर कल्याण के भागी होकर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जायेंगे।

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ। तौं फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ।।---अर्थ--यदि मुझपर श्रीशिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैने इस भाषा, कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो।

बंदउँ अवधपुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।। प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी।।---अर्थ--मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करनेवाली श्रीसरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ जिनपर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की ममता थोड़ी नहीं है।

सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए।। बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग साची।।---अर्थ--उन्होंने (अपनी पुरी में रहनेवाले) सीताजी की निंदा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौसल्यारूपि पूर्व दिशा की प्रार्थना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। विस्व सुखद खल कमल तुसारू।। दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी।। करउँ प्रणाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी।। जिन्हहिं बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता।।---अर्थ--जहाँ (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिये पाले के समान श्रीरामचन्द्रजी रूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुन्दर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वो मुझपर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पायी तथा जो श्रीराम के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं।

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।।---अर्थ--मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया।
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।। जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई।।---अर्थ--मैं परिवार सहित राजा जनक जी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्रीरामचन्द्रजी के देखते ही वह प्रगट हो गया।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम व्रत जाइ न बरना।। राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।---अर्थ--सबसे पहले मैं श्रीरामजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्रीरामजी के चरणकमलों में भौंरे के तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता।

बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुखदाता।। रघुपति कीरति बमल पताका। दण्ड समान भयउ जस जाका।।---अर्थ--मैं श्रीलक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुन्दर और भक्तों को सुख देनेवाले हैं। श्रीरघुनाथजीकी कीर्ति रूपि विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी) का यश ( पताका को ऊँचा करके फहरानेवाले ) दंड के समान हुआ।

सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।। सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।।---अर्थ--जो हजार सिरवाले और जगत् के कारण ( हजार सिरों पर जगत् को धारण कर रखनेवाले ) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिये अवतार लिया है, वे गुणों की खानि कृपासिंधु सुमित्रानंदन श्रीलक्ष्मणजी मुझपर सदा प्रसन्न रहें।

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी।। महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना।।---अर्थ--मैं श्रीशत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वार सुशील और श्रीभरतजी के पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर श्रीहनुमानी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्रीरामचन्द्रजी ने स्वयं ( अपने मुख से ) वर्णन किया है।

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ज्ञान धन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।---अर्थ--मैं पवनकुमार श्रीहनुमानजी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरुपी वन को भष्म करने के लिये अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भँवर में धनुष-वाण लिये श्रीरामजी निवास करते हैं।

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा।। बंदउँ सबके चरन सुहाए। अधम शरीर राम जिन्ह पाए।।---अर्थ--वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जामवंतजी, राक्षसों के राजा विभिषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबे सुन्दर चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम ( पशु और राक्षस आदि ) शरीर में भी श्रीरामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया।

रघुपति चरित उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।। बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे ।।---अर्थ--पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुरसमेत जितने श्रीरामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो श्रीरामजी के निष्माम सेवक हैं।

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिज्ञान बिसारद।। प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा।।---अर्थ--शुकदेवजी, सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परमज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ। हे मुनिश्वरों ! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये।

जनककुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुणानिधान की।। ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपा निर्मल अति पावउँ।।---राजा जनक की पुत्री, जगत् की माता और करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी की प्रियतमा श्रीजानकीजी के दोनो चरणकमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ।

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरण कमल बंदउँ सब लायक।। राजिवनयन धरे धनु सायक। भगत विपति भंजन सुखदायक।।---अर्थ--फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुषवाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले भगवान् श्रीरघुनाथजी के सर्वसमर्थ चरणकमलों की वन्दना करता हूँ।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। बंदउँ सीता राम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।---अर्थ--जो वाणी और उसके अर्थ और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तुवास्तव में अभिन्न (एक ) हैं, उन श्रीसीतारामजी के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।। बिधि हरिहरमय बेद प्रान सो। अगुन अनुपम गुन निधान सो।।---अर्थ--मैं श्रीरघुनाथजी के नाम 'राम' की वन्दना करता हूँ, जो कृशानु ( अग्नि ), भान् (सूर्य) और हिमकर ( चन्द्रमा ) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है; निर्गुण उपमारहित और गुणों का भण्डार है।

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतू उपदेसू।। महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ।।---अर्थ--जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है, तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ शुद्ध करि उलटा जापू।। सहस नामसम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी।।---अर्थ--आदिकबि श्रीवाल्मीकीजी रामनाम के प्राप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गये। श्रीशिवजी के इस वचन को सुनकर क  एक राम नाम सहस्त्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति ( श्रीशिवजी ) के साथ रामनाम का जाप करती रहती है।

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषण तिय भूषण ती को।। नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।---अर्थ--नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्रीशिवजी हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियों में भूषणरूप ( पतिव्रताओं में शिरोमणि ) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया ( अर्थात् उन्हें अपना अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया )। नाम के प्रभाव को श्रीशिवजी भली-भाँति जानते हैं, जिस ( प्रभाव ) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया।

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास। राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।---अर्थ-- श्रीरघुनाथजी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, तुलतीदास कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और 'राम' नाम के दो सुन्दर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं।

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ।। सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू।।---अर्थ--दोनो अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रुपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिये सुलभ और सुख देनेवाले हैं, और जो इस लोक में और परलोक में नि्वाह करते हैं ( अर्थात् भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं )।

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के।। बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती।।---अर्थ--ये कहने, सुनने और स्मरण करने में सबके लिये सुलभ और सुख देने वाले हैं, और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं ( अर्थात् भगवान् के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।

नर नारायन सरिस सुभ्रता। जग पालक बिसेषि जन त्राता।। भगति सुतिय कल करन विभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषण।।---अर्थ--ये दोनो अक्षर नर-नारायण के समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत् का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं। ये भक्तिरूपिणी सुन्दर स्त्री के कानों के सुन्दर आभूषण ( कर्णफूल ) हैंऔर जगत् के हित के लिये निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं।

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर वसुधा के।। न मन मंजु कंज मधुकर से जीह जसोमति हरि हलधर से।।---अर्थ--ये सुन्दर गति ( मोक्ष ) रूपि अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करनेवाले हैं, भक्तों के मन रूपि सुन्दर कमल में विहार करनेवाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपि यशोदाजी के लिये श्रीकृष्ण और बलरामजी के समान ( आनन्द देनेवाले ) हैं।

एक छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ। तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ।।---अर्थ--तुलसीदास कहते हैं---श्रीरघनाथजी के नाम के दोनो अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक ( रकार ) छत्ररूप ( रेफ ) और दूसरा ( मकार ) मुकुटमणि ( अनुस्वार ) रूप से सब अक्षरों के ऊपर हैं। 
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी। नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।---अर्थ--समझने में नाम और नामी एक-- से हैं, किन्तु दोनो में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है ( अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होे पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्रीरामजी अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं )। नाम और रूप दोनो ईश्वर की उपाधि हैं; ये  ( भगवान् के नाम और रूप ) दोनो अनिवर्चनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर ( शुद्ध भक्तियुक्त ) बुद्धि से ही इनका ( दिव्य अविनाशी ) स्वरूप जानने में आता है।

 को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।। देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहीं नाम बिहीना।।---अर्थ-- इन ( नाम और रूप ) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी ) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता।  



रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।। सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदय सनेह बिसेषें।।---अर्थ--कोई-सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाय तो विशेष प्रेम के सथ वह रूप हृदय में आ जाता है।                                                                                                                                               

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