Friday, 4 March 2016

बालकाण्ड


बालकाण्ड




अति बड़ि मोरि ढ़िठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।। समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्ह नहिं सपने।।---अर्थ--यह मेरी बहुत बड़ी ढ़िठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है ( अर्थात् नरक में भी मेरे लिये ठौर नहीं है ) । यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डर से डर हो रहा है, किन्तु भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तो स्वप्न में भी इसपर ( मेरी इस ढ़िठाई और दोष पर ) ध्यान नहीं दिया।


सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।। कहत नसाइ होइ हिय नीकी। रीझत राम जानि जन जी की।।---अर्थ--मेरे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी  ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्तरूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की ( उल्टे ) सराहना की। क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाय ( अर्थात् मैं चाहे अपने को भगवान् का सेवक कहता-कहलाता रहूँ ), परन्तु बहृदय में अच्छापन होना चाहिये। ( हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्रीरामचन्द्रजी के दास के हृदय की ( अच्छी ) स्थिति जानकर रीझ जाते हैं।


रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिय की।। जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली।।---अर्थ--प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती ( वे उसे भूल जाते हैं ) और उनके हृदय ( की अच्छाई--नीकी ) को सौ-सौ बार याद करते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बाली को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली।


सोइ करतूति विभीषण केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।। ते भरतहिं भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने।।---वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्रीरामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्रीरघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया।


प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किये आपु समान। तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान।।---अर्थ-- प्रभु ( श्रीरामचन्द्रजी ) तो वृक्ष के नीचे और बन्दर डाली पर ( अर्थात् कहाँ मर्यादापुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीरामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदनेवाले बन्दर )। परन्तु ऐसे बन्दरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदास कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं है।


राम निकाईं रावरी है सबही को नीक। जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।---अर्थ--हे श्रीरामजी ! आपकी अच्छाई से सभी का भला है (अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करनेवाला है )। यदि यह बात सच है तो तुलीदासजी का भी सदा कल्याण ही होगा।
एहि बिधि निज गुण दोष कहि सबहिं बहुरि सिर नाइ। बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।---अर्थ--इस प्रकार अपने गुण दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।


जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहिं सुनाई।। कहिहउँ सोई संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुख मानी।।---अर्थ--मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भद्वाजजी को सुनायी थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा; सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें।
शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।। सोई शिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।---अर्थ--शिवजी ने पले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने कागभुसुण्डीजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।


तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।। ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।---अर्थ--उन कागभुसुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनो वक्ता और श्रोता ( याज्ञवल्क और भरद्वाज ) समान शीलवाले और समदर्शी हैं और श्रीहरिकी लीलाको जानते हैं।


जानहिं तीनि काल निज ज्ञाना। करतल गत आमलक समाना।। औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।---अर्थ--वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए पआँवले के समान ( प्रत्यक्ष ) जानते हैं। और भी जो सुजान ( भगवान् की लीलाओं का रहस्य जाननेवाले ) हरिभक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं।



मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझि नहीं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।---अर्थ--फिर वही कथा मैंने बराह-क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी; परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार ( अच्छी तरह ) समझ नहीं।

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