Thursday, 31 March 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड



श्रोता बकता ज्ञाननिधि कथा राम के गूढ़। किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलिमल ग्रगित विमूढ़।। ---अर्थ-- श्रीरामजी की गूढ़ कथा के वक्ता ( कहनेवाले ) और श्रोता ( सुननेवाले ) दोनो ज्ञान के खजाने ( पूरे ज्ञानी ) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था।

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।। भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरे मन प्रबोध जेहिं होई ।।---अर्थ--तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुदधि के अनुसार कुछ समझ में आयी। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जायगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो।

जस कछु बुधि बिबेक कल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें। निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।---अर्थ--जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और बिबेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरनेवाली कथा रचता हूँ, जो संसाररूपी नदी पार करने के लिये नाव है।

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष विभंजनि।। रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।---अर्थ--रामकथा पण्डितों को विश्वास देनेवाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करनेवाली और कलियुग के पापों का नाश करनेवाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिये मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिये अरणि ( मंथन की जानेवाली लकड़ी ) है, ( अर्थात् इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है )।

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।। सोई वसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।---अर्थ--रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिये सुन्दर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करनेवाली और भ्रमरूपी मेढ़कों को खाने के लिये सर्पिणी है।

असुर सेन सम नरक निकंदनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि।। संत समाज पयोधि रमा सी। विस्व भार भर अचल छमा सी।।---अर्थ--यह रामकथा असुरों की सेन के समान नरकों का नाश करनेवाली और साधुरूप देवताओं के कुल का हित करनेवाली पार्वती ( दुर्गा ) है। यह संत-समाजरूपी क्षीरसमुद्र के लिये लक्ष्मीजी के समान है और संपूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है।

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन सुकृति हेतु जनु कासी। रामहिं प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसीदास हित हियँ हुलसी सी।।---अर्थ--यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिये यह जगत् में यमुना जी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिये मानो काशी ही है। यह श्रीरामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिये हुलसी ( तुलसीदासजी की माता ) के समान हृदय से हित करनेवाली है।

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी।। सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुपति भगति प्रेम परमिति सी।।---अर्थ--यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख संपति की राशि है। सद्गुणरूपि देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिये माता अदिति के समान है। श्रीरघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है।

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु। तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।---अर्थ--तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुन्दर ( निर्मल ) चित्त चित्रकूट है, और सुन्दर स्नेह ही वन है, जिसमें श्रीसीतारामजी विहार करते हैं।

रामचरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू।। जग मंगल गुणग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।---अर्थ--श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र सुन्दर चिंतामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुन्दर ऋंगार है। श्रीरामचन्द्रजी के गुणसमूह जगत् का कल्याण करनेवाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देनेवाले हैं।

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।। जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल व्रत धरम नेम के।।---अर्थ--ज्ञान, वैराग्य और योग के लिये सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोगक नाश करने के लिये देवताओं के वैद्य ( अश्विनीकुमार ) के समान है। ये श्रीसीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिये माता-पिता हैं और संपूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं।
 
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के।। सचिव सुभट भूपति विचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के।।---अर्थ--पाप, संताप और शोक का नाश करनेवाले तथा इसलोक और परलोक के प्रिय पालन करनेवाले हैं। विचार ( ज्ञान ) रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभरूपी अपार समुद्र के सोखने के लिये अगस्त्य मुनि हैं।

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के।। अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के।।---अर्थ--भक्तों के मन रुपी वन में बसनेवाले काम, क्रोध और कलियुग के पापरुपी हाथियों के मारने के लिये सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रुपी दावानल के  बुझाने के लिये कामना पूर्ण करनेवाले मेघ हैं।

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंग भाल के।। हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से।।---अर्थ--विषयरुपी साँप का जहर उतारने के लिये मंत्र और महामणि है। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटनेवाले बुरे लेखों ( मन्द प्रारब्ध ) को मिटा देनेवाले हैं। अज्ञानरुपी अंधकार के हरण करने के लिये सूर्यकिरणों के समान और और सेवकरुपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं।

अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरिहर से।। सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से।।---अर्थ--मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरिहर के समान सुलभ और सुख देनेवाले हैं। सुकविरूपी शरद्-ऋतु के मनरूपी आकाश को सुशोभित करने के लिये तारागण के समान और श्रीरामजी के भक्तों के तो जीवनधन ही हैं।

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से।। सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से।।---अर्थ---संपूर्ण पुण्यों के फल महान् भोगों के समान है। सेवकों के मनरुपी मानसरोवर के लिये हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान है।

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दम्भ पाषंड। दहन राम गुण ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड।।---अर्थ--श्रीरामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड के जलाने के लिये वैसे ही हैं जैसे इंधन के लिये प्रचण्ड अग्नि।
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु। सज्जन कुमुद चकोर चित हित विसेषि बड़ लाहु।।---अर्थ--रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देनेवाले हैं, परन्तु सज्जन रुपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिये तो विशेष हितकारी और महान् लाभदायक है।

कीन्ह प्रश्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी।। सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई।।---अर्थ--जिस प्रकार श्रीपार्वतीजी ने श्रीशिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्रीशिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा।

जेहि यह कथा सुनी नहीं होई। जानि आचरजु करे सुनि सोई।। कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहीं आचरज करहिं जस जानी।।रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।। नाना भाँति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा।।---अर्थ--जिसने यह कथा पहले सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य करे।जो ग्यानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है ( रामकथा अनंत है)।उनके मनमें ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रका से श्रीरामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं।

कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।। करिय न संशय अस डर आनी। सुनिय कथा सादर रति मानी।।---अर्थ---कल्पभेद के अनुसार श्रीहरि के सुन्दर चरित्रों को मुनीश्ररों ने अनेों प्रकार से गाया है। हृदय में ऐसा विचारकर संदेह न कीजिये और आदरसहितप्रेम से इस कथा को सुनिये।

राम अनंत अनंत गुण अमित कथा विस्तार। सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह के बिमल विचार।।---अर्थ--श्रीरामचन्द्रजी अनंत हैं, उनके गुण भी अनंत हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे।

एहि बिधि सब संशय करि दूरी। सिर धरि गुरु पद पंकज धूरी।। पुनि सबहिं बिनवऊँ कर जोरी। करत कथा जेहि लाग न खोरी।।---अर्थ--इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्रीगुरुजी के चरण कमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे।


सादर सिवहिं नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा।। संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा।।---अर्थ--अब मैं आदरपूर्वक श्रीशिवजी को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत् १६३१ में मैं इस कथा का आरम्भ करता हूँ। 

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