सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी।। बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू।।___अर्थ___ हे मुनि ! यह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी नो पार्वतीजी से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता ( राज्य करता ) था।
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना।। तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन
धाम महा रनधीरा।।___अर्थ___वह धर्म की धुरी को धारण करनेवाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान् था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के भण्डार और बड़े ही रणधीर थे।
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही।। अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा।।___अर्थ___राज्य का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में [ पर्वत के समान अटल रहता था।
भाइहि भाइहि परम सप्रीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती।। जेठे सुतहिं राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा।।___ अर्थ___भाई_भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित [ सच्ची ] प्रीति थी। राजा नो ज्येष्ट पुत्र को राज्य दिया और अपने भगवान् [ को भजन ] के लिये वन को चल दिये।
जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरि दोहाई देस। प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस।।___जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गयी। वह वेद में बतायी हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया।
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना।। सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा।।___अर्थ___राजा का हित करनेवाला शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान् तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा बड़ा प्रतापी और रणधीर था।
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा।। सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना।।___अर्थ___साथ में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब_के_सब रण में जूझ मरनेवाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे।
विजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई।। जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई।।___अर्थ___दिग्विजय के लिये सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन ( मुहूर्त ) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ_तहाँ बहुत_सी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया।
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दिन्हे।। सकल अवनि मंडल जेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला।।___अर्थ___अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों ( भूमिखण्डों ) को वश में कर लिया और राजाओं से दण्ड ( कर ) ले_लेकर उन्हें छोड़ दिया। संपूर्ण पृथ्वीमण्डल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र ( चक्रवर्ती ) राजा था।
स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु।।___अर्थ___संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था।
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई।। सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी।।___अर्थ___राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुन्दर कामधेनु ( मनचाही वस्तु देनेवाली ) हो गयी। [ उनके राज्य में ] प्रजा [ सब प्रकार के ] दुःखों से रहित और सुखी थी, और सभी स्त्री_पुरुष सुन्दर और धर्मात्मा थे।
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती। गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा।।___अर्थ___धर्मरुचि मंत्री का श्रीहरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिये सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा, गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण___ इन सबकी सदा सेवा करता रहता था।
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने।। दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना।।___अर्थ___बेदों में राजाओं के जो धर्म बताये गये हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा।। बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए।।___अर्थ___उसने बहुत_सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ, सुन्दर बगीचे, ब्राह्मणों के लिये घर और देवताओं के सुन्दर विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाये।
जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग।।___अर्थ____वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गये हैं, राजा ने एक_एक करके उन सब यज्ञों को प्रेमसहित हजार_हजार बार किया।
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना।। करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ज्ञानी।___अर्थ___[ राजा के ] हृदय में किसी फल की टोह ( कामना ) न थी।राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान् वासुदेव को अर्पित करके करता था।
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा।। बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ।।___अर्थ___एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत से उत्तम_उत्तम हिरण मारे।
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू।। बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं।।___अर्थ___राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। ( दाँतों के कारण वह ऐसा दीख पड़ता था ) मानो चन्द्रमा को ग्रसकर ( मुँह में पकड़कर ) राहू वन में आ छिपा हो। चन्द्रमा बड़ा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है।
कोल कराल दसन छबि गाई। रवि बिसाल पीवर अधिकाई।। घुरुघुरात बस आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ।।___अर्थ___ यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गयी। [ इधर ] उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोड़े की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाये चौकन्ना होकर देख रहा था।
नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु।।___अर्थ___नील पर्वत के शिखर के समान विशाल [ शरीरवाले ] उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगातर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी।। तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना।।___अर्थ___ अधिक शब्द करते हुए घोड़े को [ अपनी तरफ ] आता देखकर सूअर परम वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया।
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा।। प्रकटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा।।___अर्थ___राजा तक_तककर तीर चलाता है, परन्तु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भागा जाता था; और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ ( पीछे ) लगा चला जाता था।
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नहिन गज बाजि निबाहू।। अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मद तजइ नरेसू।।___अर्थ___सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी_ घोड़े का निबाह ( गम ) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा।
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहा गभीरा।। अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई।।___अर्थ___राजा को बड़ा धैर्यवान् देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसने जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा; पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया।
खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत।।___ अर्थ ___बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख_प्यास से व्याकुल राजा नदी_तालाब खोजता_खोजता पानी बिना बेहाल हो गया।
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा।। जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गया पराई।।___अर्थ___ वन में फिरते_फिरते उसने एक आश्रम देखा; जहाँ कपट से मुनि का वेष बनाये एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था।
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी।। गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी।।___अरअर्थ___प्रतापभानु का समय ( अच्छे दिन ) जानकर और अपना कुसमय ( बुरे दिन ) अनुमानकर उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मिला ( मेल किया )।
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा।। तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतारबि तेहिं तब चीन्हा।।___अर्थ___ दरिद्र की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा प्रतापभानु उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है।
राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना।। उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा।।___अर्थ___राजा प्यासा होने के कारण [ व्याकुलता में ] उसे पहचान न सका। सुन्दर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया। परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बतलाया।
भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ। मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ।।___अर्थ___राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया।
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ।।आसन दीन्ह अस्त रबि जानी।। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी।।___अर्थ____सारी थकावट मिट गयी, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने [ राजा को बैठने के लिये ] आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला___
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें।। चक्रवर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें।।___अर्थ___तुम कौन हो ? सुन्दर युवक होकर, जीवन की परवा न करके, वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के_से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा।। फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़े भाग देखउँ पद आई।।___अर्थ___[ राजा ने कहा___] हे मुनीश्वर ! सुनिये, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिये फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाये हैं।
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा।। कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा।।___अर्थ___हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुनि ने कहा___ हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है।
निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान। बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान।।___अर्थ___हे सुजान ! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना।
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ। आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ।।___अर्थ___तुलसीदासजी कहते हैं___ जैसी भवितव्यता ( होनहार ) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है, या उसको वहाँ ले जाती है।
भलेहिं नाथ आतुर धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा।। नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरम बंदि निज भाग्य सराहे।।___अर्थ___हे नाथ ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वन्दना करके अपने भाग्य की सराहना की।
पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई।। मोहि मुनीस सुर सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी।।___अर्थ___फिर सुन्दर कोमल वाणी से कहा___हे प्रभो ! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर ! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम [ धाम ] विस्तार से बतलाइये।
तेेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना।। बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा।।___अर्थ___राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्धहृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल_बल से अपना काम बनाना चाहता था।
समुझि राजसुख दुःखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती।। सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना।।___अर्थ___वह शत्रु अपने राज्य_सुख को समझ करके ( स्मरण करके ) दुःखी था। उसकी छाती [ कुम्हार के ] आँवे के आज की तरह [ भीतर_ही_भीतर ] सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को याद कर वह हृदय में हर्षित हुआ।
कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत। नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत।।___अर्थ___वह कपट में प्रेरक बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला___अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत ( घर_द्वारहीन ) हैं।
कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सरिखे गलित अभिमाना।। सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ।।___अर्थ___राजा ने कहा___जो आपके सदृश ( के तरह ) विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाने रखते हैं। क्योंकि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है ( प्रकट संतवेष में मान होने की संभावना है और मान से पतन की)।
तेहि करें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।। तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहिं संदेहा।।___अर्थ___इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन ( सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित ) ही भगवान् को प्रिय होते हैं। आप_सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिवजी को भी संदेह हो जाता है [ कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी ]।
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी।। सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी।।___अर्थ___आप जो हों सो हों ( अर्थात् जो कोई भी हों ), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी ! अब मुझपर कृपा कीजिये। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर___
सब प्रकार राजहिं अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई।। सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला।।___अर्थ___सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह ( कपट तपस्वी ) बोला___हे राजन् ! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते हुए बहुत समय बीत गया।
अब लगी मोहि न मिलें कोउ मैं न जनावउँ काहु। लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।।___अर्थ___अबतक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ; क्योंकि लोक की प्रतिष्ठा अग्नि के समान है जो तपरूपी वन को भष्म कर डालती है।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।___अर्थ___तुलसीदासजी कहते हैं___सुन्दर वेष देखकर मूढ़ नहीं, [ मूढ़ तो मूढ़ ही हैं, ] चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुन्दर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है।
तातें गुपुत रहऊँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं।। प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ।।___अर्थ___[ कपट_तपस्वी ने कहा___] इसी से मैं जगत् में छिपकर रहता हूँ। श्रीहरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाये ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें।। अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही।।___अर्थ___तुम पवित्र और सुन्दर बुद्धिवाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझपर प्रीति और विश्वास है। हे तात ! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा।
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहिं उपज विश्वासा।। देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी।।___अर्थ___ज्यों_ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों_ही_त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगानेवाले ( कपटी ) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला___
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई।। कहहु नाम कर अर्थ बखानी। मोहित सेवक अति आपन जानी।।___अर्थ___हे भाई ! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा___मुझे अपना अत्यन्त [ अनुरागी ] सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिये।
आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरि बहोरि।।___अर्थ___[ कपटी मुनि ने कहा___ ] जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है।
जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं।। तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्णु भए परित्राता।।___अर्थ___हे पुत्र ! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत् को करते हैं। तपही के बल से विष्णु संसार का पालन करनेवाले बने हैं।
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।। भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहा सो लागा।।___अर्थ___तपही के बस से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह ( तपस्वी ) पुरानी कथाएँ कहने लगा।
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका।। उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी।।___अर्थ___कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन ( स्थिति ) और संहार ( प्रलय ) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कहीं।
सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ।। कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही।।___अर्थ___राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा___राजन् ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा।
सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव।।___ अर्थ ___ हे राजन् ! सुनो, ऐसी नीति है कि राजालोग जहाँ_तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुमपर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है।
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा।। गुर प्रसाद सब जानिय राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा।।___अर्थ___तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन् ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं।
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई।। उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछें तोरे।।___अर्थ___हे तात ! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन ( सरलता ), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है; इसलिये मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ।
अब प्रसन्न मैं संशय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं।। सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्ह बिधि नाना।___अर्थ___अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन् ! जो मन को भावे वही माँग लो। सुन्दर ( प्रिय ) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और [ मुनि के ] पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की।
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें।। प्रभुहिं तथापि प्रसन्न बिलोकी।। मागि अगम बर होऊँ असोकी।।___अर्थ___हे दयासागर मुनि ! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ ( अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ) मेरी मुट्ठी में आ गये। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर [ क्यों न ] शोकरहित हो जाऊँ।
जरा मरन दुख रहित रवि, समर जितै जनि कोउ। एकछत्र रिपुहीन महि, राज कलप सत होउ।।___अर्थ___बुढ़ापे और मृत्यु के दुःख में रहित शरीर हो। संग्राम में मुझसे कोई नहीं जीते, सौ कल्पों तक पृथ्वी पर मेरा अकण्टक एकछत्र राज्य हो।
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ।। कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा।।___अर्थ___तपस्वी ने कहा___ हे राजन् ! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी ! केवल ब्राह्मणों को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवायेगा।
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा।। जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौं तुअ बस बिधि बिष्णु महेसा।।___तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान् रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हे नरपति ! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जायेंगे।
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई। बिप्र श्राप बिनु सुनि महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला।।___ अर्थ___ब्राह्मणकुल से जोर_जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन् ! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा।
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू।। रन प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना।।___राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा___हे स्वामी ! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु ! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा।
एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि। मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि।। मिलब हमारे भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि।।___अर्थ___’एवमस्तु' ( ऐसा ही हो ) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला___[ किन्तु ] तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से [ कहना नहीं, यदि ] कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं।
ताते मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकजा।। छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी।___अर्थ___हे राजन् ! मैं तुमको इसलिये मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जायगा, मेरा यह वचन सत्य जानना।
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा। आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं।।___अर्थ___हे प्रतापभानु ! सुनो, इस बात को प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी।
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा।। राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता।___अर्थ___राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा___हे स्वामी ! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से कहिये, कौन रक्षा कर सकता है ? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं; पर गुरु से विरोध करने पर जगत् में कोई भी बचानेवाला नहीं है।
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें।। एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा।।___ अर्थ___ यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो ( भले ही ) मेरा नाश हो जाय। मुझे इसकी चिंता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो ! [ केवल ] एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है।
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