Friday, 22 February 2019

बालकाण्ड

तासु तनय दिलीप नृप भयऊ। बन तप हेतु उतर दिसि गयऊ।। तहाँ अगम तप कीन्ह नृपाला। भये कालबस गये कछु काला।।___अर्थ___अंशुमान का पुत्र राजा दिलीप हुआ। तब अंशुमान भी उत्तर की ओर तप करने बन में चले गये। वहाँ उन्होंने कठिन तप किया और समय बीतने पर शरीर त्याग दिया।

कहहुँ कवन दिलीप प्रभुताई। सेवैं सकल नृपति जेहि आई। जुगवत जेहिं नित सुरपति रहहीं। महिमा तासु कौन कवि कहहीं।।___अर्थ___दिलीप की प्रभुता क्या वर्णन करूँ ? जिनकी सब राजा आकर सेवा करते थे, जिनका सुख स्वयं इन्द्र भी देखते थे, उनकी महिमा का वर्णन कवि कैसे कर सकता है।

भयो भगीरथ अस सुत जासू। पितु सम प्रीति अधिक उर तासू।। तिनहिं बोलि नृप दीन्हेउ राजू। आप चले उठि तप के काजू।।___अर्थ___दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए जिनके हृदय में पिता के समान अत्यन्त ही प्रेम था। राजा ने उनको बुलाकर राज्य दिया और आप उठकर तप के लिये वन को चल दिये।

मन महँ करत पंथ अनुमाना। सुरसरि आव तजउँ तनु प्राना।। पितु मन तन दीन्हेउ तिमि देऊँ। फिरि निज नगरक नाम न लेऊँ।।___अर्थ___वे मार्ग में अपने मन विचार करते हुए चले कि या तो गंगाजी को लाऊँगा या प्राण ही दे दूँगा, जैसे पिताजी ने तन मन दे दिया वैसे ही मैं दे दूँगा और लौटकर नगर का नाम भी नहीं लूँगा।

यहि बिधि करत बिचार, नृप कीन्हे अति प्रबल तप।। बीते कुछ एक काल, देह तजि कोउ प्रकट नहिं।।___अर्थ___ यह विचार करके तब राजा दिलीप ने प्रबल तप किये। अपार समय बीतने पर देह त्याग दिया परन्तु कोई देवता प्रगट न हुआ।

जेहि सुरसरि लगि तजि तनु भूपा। सो तजि मूढ पियहिं जलकूपा।। इहाँ भगीरथ अस मन भयऊ। पितु न आव बहु दिन चलि गयऊ।।___अर्थ___ जिन गंगाजी के निमित्त राजाओं ने शरीर त्याग दिये, उनको छोड़कर मूर्खलोग कुएँ का जल पीते हैं। यहाँ भगीरथ ने मन में विचार किया कि बहुत दिन बीत गये, पिताजी नहीं आए।

नाम कुकुत्स्थ तनय एक रहेऊ। दीन्हा राज नीति बहु कहेऊ।। कहि सब पूर्व कथा सुत पांहा। दीन्ह असीस चले नरनाहा।।___ अर्थ___काकुत्स्थ नामक भगीरथ के एक पुत्र था, उसे राज्य दिया और भगीरथ ने उसे अनेक राजनीति समझाई। पूर्व की कथा पुत्र से कही और आशीष देकर राजा चले गये।

निकसत नगर शकुन भल पाये। अति हिनि विड़वन जहँ नृप आये।। देखि भगीरथ वन सुख पावा। सुरसरि हित कहँ मन लावा।।___अर्थ___नगर से निकलते ही सुन्दर शकुन मिले और राजा अत्यन्त घने वन में आये।
भगीरथ ने वन को देखकर सुख पाया और गंगाजी को लाने के लिये तप में मन लगा दिया।

एक चरण दोउ भुजा उठाये। रवि सन्मुख चितवहिं मन लाये।। वर्ष सहस बीते अहि भाँती। जात न जाने दिन अरु रातीं।।___अर्थ____एक पैर और दोनों भुजाएँ उठाये हुए मन लगाकर सूर्य की ओर देखने लगे। इस तरह एक हजार वर्ष बात गये परन्तु उन्होंने दिन रात जाते हुए नहीं जाना।

देखि उग्र तप अज चलि आये। बोले बचन नृपहिं मन भाये।। चहहिं नृपति जो लै वरदाना। बोले नृप करि अजहिं प्रणामा।।___अर्थ___राजा का घोर तप देखकर ब्रह्माजी चले आये और राजा से मनोहर वचन बोले___हे राजन् ! जो चाहे सो वरदान लो। तब प्रणाम करके चतुर राजा बोले___

जो मागो सो जानत अहहू। सो मन माँगन प्रभु पुनि कहहू।।____अर्थ___हे प्रभु ! जो मैं माँगने चाहता हूँ सो आप जानते हैं। फिर मुझसे माँगने को क्यों कहते हैं।
तदपि कहौं प्रभु देहु वर, सब सन्तन कर वृद्धि। दूसर माँगहुँ जोरि कर, गंगा आवहिं सिद्धि।।___अर्थ___हे प्रभु ! तो भी मैं कहता हूँ कि यह वर दीजिये कि सब संतों की वृद्धि हो और दूसरा वर हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि सिद्धि की दाता गंगाजी भूतल पर आवें।।

एवमस्तु कहि पुनि विधि कहहीं। सुरसरि देहुँ राखि को सकहीं।। छूट जाहि पुनि तुरत रसातल। फिरहिं न नृपति बहुरि सुनु भूतल।।___अर्थ___’ऐसा ही होगा’ यह कहकर ब्रह्माजी फिर बोले कि गंगाजी को तो ला दूँगा, पर उसे धारण कौन कर सकेगा ? छूटते ही वह तुरंत पाताल को चली जावेंगी और फिर पृथ्वी पर वापस न लौटेंगी।

तेहि ते कहौं एक तोहि पाहीं। अति दयालु शंकर जग माहीं।। सोई शंकर रखि सुरसरि आजू। उनहिं जपे तव होइहैं काजू।।___अर्थ____इस कारण एक बार आपसे कहता हूँ कि जगत् में शिवजी बड़े दयालु हैं। आज वे ही शिवजी गंगाजी को धारण कर सकते हैं। अतः उनका नाम जपने से ही आपका कार्य होगा।

अस कहा बिधि अंतरहित भये। बहुरि भगीरथ शिव पहिं गये।। बिबुध बर्ष अंगुष्ठ अधारा। बार बार शिव नाम उचारा।।___अर्थ____यह कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और भगीरथ शिवजी के पास गये। वे देवताओं के वर्ष तक अंगूठे के आधार पर खड़े रहे और बारम्बार शिवजी का नाम उच्चारण किया।

शिव दयालु प्रगटे तब आई। हाथ जोरि नृप विनय सुनाई।। मैं राखी सुरसरि कह ईशा। बहुरि रमापति ध्यान करीशा।।___अर्थ___ तब दयालु शिवजी आकर प्रगट हो गए, तब राजा ने हाथ जोड़कर विनती की। शिवजी बोले कि मैं गंगाजी को धारण करूँगा। फिर वे भगवान का ध्यान करने लगे।

उहाँ देवसरि शिव वचन, सुनि मन कीन्ह विचार। जाउँ रसातल शिव सहित, जात न लावों बार।।___अर्थ___ब्रह्मलोक में गंगाजी ने शिवजी का वचन सुनकर मन में विचार किया कि मैं शिवजी सहित पाताल चली जाऊँगी, जाते देर नहीं लगाऊँगी।

अन्तर्यामी शिवहिं उपाई। निज सिर जटा सो अगम बनाई।। यहाँ भगीरथ अस्तुति कीन्हीं। सुनि मृदु गिरा छाँड़ि बिधि दीन्हीं।।___अर्थ___अन्तर्यामी शिवजी ने यह उपाय किया कि अपने सिर पर अगम जटा बनाई। इधर भगीरथ के स्तुति करने पर कोमल वाणी सुनकर ब्रह्माजी ने गंगाजी को छोड़ दिया।

छूटे शोर भयउ जग भारी। चकित देव अहि दिग्गज चारी।। सुरसरि पुनि हर जटा समानी। वर्ष एक तहँ रही भुलानी।।___अर्थ___गंगाजी के छूटने पर जगत् में भारी शोर हुआ, देवता, शेषजी और दिग्गज भी चकित हो गये। फिर गंगाजी शिवजी की जटाओं में समा गयीं और एक वर्ष तक ( जटाओं में ) भुला रहीं।

कौतुक देखि सकल सुर हरषे। कहि जय जयति सुमन बहु बरसे।। बहुरि भगीरथ सुमिरन कीन्हा। डारि जटा शिव बुन्दक दीन्हा।।___अर्थ___यह कौतुक देखकर सब देवता प्रसन्न हुए और ‘ जय_जय कहकर बहुत फूल बरसाये। फिर भागारथी ने शिवजी का स्मरण किया तो शिवजी ने एक बूँद छोड़ दी।

जेहि ते भईं तीनि पुनि धारा। एक गई नभ एक पतारा।। गगन भाँति भइ अघ नासिनि। देवन धरा नाम मंदाकिनी।।___अर्थ___उस बूँद से फिर तीन धारा प्रकट हुईं, एक आकाश और एक पाताल हो गई। पाप को नष्ट करनेवाली जो धारा आकाश को गई, उसका नाम देवताओं ने मंदाकिनी रखा।



दूसरि गईं पताल, नाम प्रभावति हरण दुख। तीसरि गंग विशाल, सब सन्तन को करन सुख।।___अर्थ___दूसरी धारा पाताल को गई, जिसका नाम ‘प्रभावती’ है और जो सब दुःखों को हरनेवाली है। तीसरी धारा गंगाजी हैं जो सब संतों को सुख देनेवाली हैं।




जल प्रवाह निकसत नृपति, उर अति भयो अनंद। जैसे उमरत सिंधु तब, पूर्ण कला लखि चन्द।।___अर्थ___ जल का प्रवाह देखकर राजा भगीरथ के हृदय में अत्यन्त आनन्द हुआ जैसे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ पड़ता है।



आय भगीरथ पुनि सिर नाये। बोली सुरसरि बचन सुहाये।। वेगवन्त नृप रथ लै आनू। तुरग तुरग शुभ गति जिमि भानू।।___अर्थ___फिर भगीरथ ने आकर सिर नवाया। तब गंगाजी सुन्दर वचन बोलीं___ हे राजा, शीघ्रगामी रथ ले आओ जिसके घोड़ों की गति सूर्य के घोड़ों के समान श्रेष्ठ हो।



तेहि रथ चढ़ि नृप चले मम आगे। चलिहौं मैं तव पीछे लागे।। सुनि नृप दिव्य तुरग रथ आना। चले हृदय सुमिरत भगवाना।।___अर्थ___उस रथ पर चढ़कर हे राजन् ! आप मेरे आगे चलिये और मैं आपके पीछे चलूँगी। यह सुनकर राजा तुरंत सुन्दर घोड़ों से युक्त रथ ले आये और मन में भगवान का स्मरण करते हुए चले।



चली अग्र करि नृपहिं सुरसरी। देवन मुदित सुमन झरी करी।। चलत तेज कछु बरनि न जाई। टूटि गिरहिं तरु शैल सुहाई।।___अर्थ___राजा को आगे करके गंगाजी चलीं और देवताओं ने प्रसन्न होकर फूल बरसाये। चलने में उनके तेज की कुछ वर्णन नहीं किया जाता। पर्वत वृक्ष और छोटी शिलायें टूटती हैं।



करैं कुलाहल सब बहु भाँती। कमठ नक्र झषब्याल सोमाती।। मज्जन करहिं देव तहँ आई। मुनि गति सिद्ध रहे सब छाई।।___अर्थ___कछुए, मगर, मछली व सर्प मतवाले होकर अनेक शब्द करते हैं। देवता वहाँ आकर स्नान करते हैं। गंगाजी की ऐसी महिमा सुनकर सब सिद्धों ने उनके तट पर आश्रम बनाये।



तर्पण कर मन लाय, हर्ष हृदय नहिं जात कहि। दर्शन से अघ जाय, तरैं सकल मुनिजन कहै।।___अर्थ___मन लगाकर तर्पण करने से हृदय में अवर्णनीय आनन्द होता है। मुनिजन कहते हैं कि गंगाजी के दर्शन से ही पाप छूट जाते हैं और शीघ्र ही तर जाते हैं।



मज्जन कर हरषाय, सुर अजादि सनकादि ऋषि। पान करत अघ जाय, अस मत सब कोऊ कहैं।।___अर्थ___गंगाजी से स्नान करके देवता, ब्रह्माजी तथा सनकादिक ऋषि भी प्रसन्न होते हैं और पान करने से सब पाप दूर हो जाते हैं__ ऐसा मत सब कोई कहते हैं।



करै जे मज्जन तप मन लाई। तिनकी महिमा कहि न सिराई।। रथ पर जात सोह नृप कैसे। तेजवन्त रवि देखिय जैसे।।___अर्थ___जो मन लगाकर स्नान, जप करते हैं उनकी महिमा कही नहीं जाती। रथ पर जाते हुए राजा कैसे सुशोभित हैं जैसे तेजवन्त सूर्य दीख पड़ें।



लाँघे शैल सुहावने देसा। पाछे सुरसरि अग्र नरेसा।। हरिद्वार समीप जब आये। तीर्थ देखि सुरसरि मन भाए।।___अर्थ____पहाड़ और सुन्दर देश लाँघते हुए राजा और पीछे गंगाजी चले आते हैं। जब हरिद्वार के निकट आये तो तीर्थ देखकर गंगाजी का मन प्रसन्न हो गया।



तीर्थ निरखि मन भा सुख भारी। आदि प्रयाग पहुँचि अघहारी।। तहँ मज्जन कीन्हे अघ जाई। बहुरि देवसरि काशी आई।।___अर्थ___तीर्थ देखकर मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर पाप हरनेवाली गंगाजी आदि प्रयाग में पहुँची। वहाँ स्नान करने से सब दुःख छूट जाते हैं। फिर गंगाजी काशीजी में आईं।



सो शिवपुरी सहज सुखदाई। बरनि न जाई मनोहरताई।। औरौं तीर्थ विविध विधि जानी। गई तहाँ किमि कहौं बखानी।।___अर्थ___वह शिवजी की पुरी स्वाभाविक ही सुखदायिनी है जिसकी मनोहरता कही नहीं जाती और भी अनेक तीर्थ जानकर गंगाजी वहाँ गईं जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।



नगर लोगन कहँ करत सनाथा। जाइ चली इहि विधि रघुनाथा।।___अर्थ___ हे रामचन्द्रजी,  मार्ग के लोगों को सवार करती हुई इस प्रकार गंगाजी चली जाती है।


मिली जाई पुनि उदधि महँ, उदधि हृदय सुख मान।। लगे कहन भागीरथहिं, तुम सम धन्य न आन।।___अर्थ___इस प्रकार से वे समुद्र में जाकर मिलीं। तब समुद्र मन में प्रसन्न होकर भगीरथ की बड़ाई करने लगे कि आपके समान धन्य दूसरा कोई नहीं है।



कीन्हों अस जस करहि न कोई। तप महिमा बल कस न होई।। सगर तनय तारे ततकाला। हर्षवन्त तब भरे नृपाला।।___अर्थ___आपने ऐसा तप किया जैसा कोई नहीं करेगा। तप के बल की महिमा ऐसी क्यों न हो ? स्तर सके पुत्र तो उसी समय तर गये। तब राजा बड़ा प्रसन्न हुआ।



अबलौं रहे जो कुल महँ कोऊ। तिनके संग तरे अब सोऊ।। तुम समान नृप और न भयऊ। जग विख्यात अचल यश लयऊ।।___अर्थ___और जो अबतक कोई कुल में तरने से शेष रहे उनके साथ अब वे भी तर गए। आपके समान और कोई राजा नहीं हुआ, आपने जग विख्यात अचल यश प्राप्त किया है।



सकल सुरन्ह सँग तहाँ विधाता। नृप सन आय कही अस बाता।। धन्य भगीरथ जश यश लयऊ। तुम समान नृप अवर न भयऊ।।___अर्थ___वहाँ सब देवताओं को साथ लेकर ब्रह्माजी आये और राजा से यह बात कही_धन्य हो भगीरथ ! जगत् में आपने बड़ा यश पाया, आपके समान और कोई नृप नहीं हुआ।



आपनि सत्य प्रतिज्ञा कियऊ। सम्मत वेद जनत सुख दयऊ।। गंगासागर सब कोई कहहीं। अघ उलूक देखत रवि डरहीं।।___अर्थ___आपने प्रतिज्ञा सत्य की और संतजनों को सुख दिया। इस स्थान को सब कोई गंगासागर कहेंगे और पापरूपी उल्लू सूर्यरूपी गंगासागर से डरेंगे।

भागारथी नाम अरु कहहीं। सुनि सुर सिद्ध नाग यश लहहीं।। अस विधि कहि निज लोकहि आये। यहाँ भगीरथ अति सुख पाये।।___अर्थ___और गंगाजी को ‘भागारथी’ भी कहेंगे जिसे सुनकर देवता, सिद्ध और नाग यश लेंगे। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अपने लोक को चले गये और भगीरथ ने बड़ा सुख पाया।



पायो अमितसुख बहुरि पूजेउ सुरसरिहीं मन लायकै। तब दीन्ह आशिष समुद्र गंगा नृप गयो सुख पाइकै।। इहि भाँति सुनि गंगा कथा तब राम ऋषि चरणन नये। कह दास तुलसी राम लखनहिं महामुनि आशिष दये।।___अर्थ___तब भगीरथ ने बड़ा सुख पाया और मन लगाकर गंगाजी की फिर पूजा की। तब गंगाजी ने प्रसन्न होकर आशीष दी और राजा सुख पाकर घर को गये। इस भाँति गंगाजी की कथा सुनकर श्रीरामजी मुनि विश्वामित्र के चरणों में प्रणाम किये। तब महामुनि ने श्रीराम लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया।



कौसिक आशिष अमिय सम, पाय हरषि रघुनाथ। प्रभु संशय सब इमि गई, लवा निरखि जिमि बाज।।___अर्थ___ विश्वामित्रजी का अमृत के समान आशीर्वाद पाकर श्रीरामजी प्रसन्न हुए और उनके सब संदेह ऐसे जाते रहे जैसे बाज को देखकर बटेर उड़ जाते हैं।



आशिष सुधा समान सुनि, हर्ष श्रीरघुनाथ। अति सुख पाइ कहेउ पुनि, बेगि चलिय मुनिनाथ।।___अर्थ____ श्रीरामजी अमृत के समान आशिष सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और फिर सुख पाकर बोले__ हे मुनिनाथ ! शीघ्र चलिये।

No comments:

Post a Comment