उठे लखन निसि बिगत सुनि, अरुनसिखा धुनि कान। गुरु तें पहिले जगतपति, जागे राम सुजान।।___ अर्थ___रात बीतने पर मुर्गों का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। श्रीरामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही उठ गये।
सकल सैर करि जाइ नहाये। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाये। समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।___अर्थ___नित्यक्रिया से निवृत होकर स्नान किया, फिर मुनि को प्रणाम किया। गुरुजी की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले।
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत ऋतु रही लोभाई। लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।___अर्थ___उन्होंने जाकर राजा का सुन्दर बाग देखा, जहाँ बसंत ऋृतु लुभा रही है। उसमें अनेक मनोहर वृक्ष लगे हैं। रंग_बिरंगी लताओं के मण्डप छाये हैं।
नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सर रूख लजाए।। चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।___ अर्थ___वृक्षों में सुन्दर नये पत्ते और फूल लगे हैं जो अपनी संपत्ति से कल्पवृक्ष को भी लज्जित कर रहे हैं। पपीहा, कोयल, तोता, चकोर आदि पक्षी बोल रहे हैं और मोर भली भाँति से नाच रहे हैं।
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा। बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जल खग कूजत गुंजत भृंगा।___ अर्थ____बाग के बीच में मणि जड़ित विचित्र सीढ़ियों से युक्त सरोवर सुशोभित है। उसके निर्मल जल में अनेक रंग के कमल खिल रहे हैं, जल_पक्षी बोल रहे हैं और भौंरे गूँज रहे हैं।
बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु, हरषे बन्धु समेत। परम रम्य आरामु यहु, जो रामहिं सुख देत।।___अर्थ___ बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण सहित प्रसन्न हुए। यह बाग ( वास्तव में ) परम रमणीय है, जो रामचन्द्रजी को सुख दे रहा है।
चहुँ दिसि चितइ पूँछी मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।। तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।___अर्थ___ चारों ओर देखकर, मालियों से पूछकर प्रसन्न मन से वे पत्र_पुष्प लेने लगे। उसी समय पार्वती का पूजन करने के लिये माता की भेजी हुई सीताजी वहाँ आईं।
संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं।। सर समीप गिरिजागृह सोहा। बरनि न जाई देखि मनु मोहा।।___अर्थ___सीताजी के साथ सब सुन्दर और चतुर सखियाँ मनोहर बाणी से गीत गा रही हैं। सरोवर के पास ही पार्वतीजी का मन्दिर सुशोभित है, जिस की शोभा कही नहीं जाती, देखकर मन मोहित हो जाता है।
मज्जनु करि सर लखन समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।। पूजा कीन्ह अधिक अनुरागा। निज अनुरुप सुभग बरु मागा।।___ अर्थ___जानकीजी सखियों सहित सरोवर में स्नान कर प्रसन्नमन से पार्वतीजी के मन्दिर में गईं। वहाँ बड़े स्नेह से पार्वतीजी की पूजा करके अपने योग्य सुन्दर वर माँगा।
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।। तेहिं दोउ बन्धु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।___ अर्थ____ एक सहेली सीताजी का संग छोड़कर फुलवाड़ी देखने गयी थी। उसने आकर दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में मगन होती हुई सीताजी के पास आई।
तासु दसा देखीं सखिन्ह, पुलक गातु जल नैन। कहु कारनु निज हरष कर, पूछहिं सब मृदु बैन।।___अर्थ____उनकी दशा सखियों ने देखी कि शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है। सब मधुर वाणी से पूछने लगीं कि अपने आनन्द का कारण बताओ।
देखन बागु कुअँर दुइ आये। बय किसोर सब भाँति सुहाये।। स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।___अर्थ___सखी ने कहा___दो राजकुमार बाग देखने आये हैं, किशोर अवस्था के हैं, सब प्रकार से सुन्दर हैं, श्याम_गौर वर्ण हैं, उनका बखान मैं कैसे करूँ ? वाणी के नयन नहीं हैं और नयन बिना वाणी के हैं।
सुनी हरषीं सब सखी सयानी। सिर हियँ अति उत्कंठा जानी।। एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।___ अर्थ___ यह सुनकर सीताजी के हृदय में उत्कंठा जानकर सब चतुर सखियाँ प्रसन्न हुईं। एक सखी कहने लगी__ हे सखी ! वे वही राजकुमार हैं जिनको सुना है कि कल मुनि के संग आये हैं।
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी।। बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।___अर्थ___ जिन्होंने रूप की मोहिनी डालकर जनकपुर में सब नर_नारियों को अपने वश में कर लिया है। उनकी छबि का जहाँ_तहाँ सब लोग वर्णन कर रहे हैं।उन्हें अवश्य देखिये, वे देखने योग्य हैं।
तासु बचन अति सियहिं सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।। चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।___अर्थ___उनके वचन सीताजी को बहुत अच्छे लगे, दर्शन करने के लिये नेत्र बेचैन हुए। उसी समय सखी को आगे करके जानकीजी चलीं। पुरानी प्रीति को कोई जान नहीं सकता।
सुमिरि सिय नारद बचन, उपजी प्रीति पुनीत। चकित बिलोकत सकल दिसि, जनि सिसु मृगी सभीत।।___अर्थ___ नारदजी के वचनों को स्मरण करके सीताजी के हृदय में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई और चकित होकर चारों ओर ऐसे देखने लगी मानें मृगी डरकर इधर_उधर देख रही है।
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनी। कहत लखन सम राम हृदय गुनि।। मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा विश्वविजय कहँ कीन्ही।।____अर्थ____ सीताजी के कंकण, करधनी और पायजेब की ध्वनि सुनकर रामचन्द्रजी हृदय में विचारकर लक्ष्मणजी से कहने लगे___ ऐसा लगता है मानो कामदेव ने संसार जीतने का डंका बजाया है।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।। भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।___ अर्थ____ऐसे कहकर फिर उस ओर देखा। सीताजी के मुख रुपी चन्द्रमा के लिये उनके नेत्र चकोर बन गये। सुन्दर नेत्र स्थिर रह गये मानो महाराजा निमि ने लजाकर उनके पलकों पर अपना निवास छोड़ दिया।
देखि सीय सोभा सुखु सोभा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।। जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।____अर्थ____ सीताजी की शोभा देखकर रामजी ने सुख पाया। मन में उसकी बड़ाई करते हैं, पर मुख से कहते नहीं बनता। मानो ब्रह्मा ने अपनी सब चतुरता रचकर संसार में प्रत्यक्ष दिखाई हो।
सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।। सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।___अर्थ___वह ( सीताजी की शोभा ) सुन्दरता को भी सुन्दर करती है। मानो कीर्ति रूपी भवन में दीपक की ज्योति हो रही हो। सब उपमाएँ तो कवियों ने झूठी कर डाली हैं, मैं सीताजी की उपमा किससे दूँ।
सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु, आपनि दशा बिसारि। बोले सुचि मन अनुज सन, बचन समय अनुहारि।।___अर्थ___ प्रभु हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन कर अपनी दशा को विचारकर पवित्र मन से लक्ष्मणजी से समयानुकूल वचन बोले___।
रात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।। पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं।।___अर्थ___ हे भाई ! यह वही जानकी है जिसके कारण धनुष_यज्ञ हो रहा है। पार्वतीजी का पूजन करने के लिये सखियाँ इसे ले आई हैं। यह फुलवारी को प्रकाशित करती फिर रही है।
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मन छोभा।। सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता।।___ अर्थ___जिसकी अलौकिक शोभा को देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। इसका पूरा_पूरा कारण तो विधाता जानें परन्तु, हे भाई ! सुनो, मेरे दाहिने अंग फड़क रहे हैं।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।। मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।___ अर्थ____ रघुबंशियों का तो यह सहज स्वभाव है कि वे मन से भी कभी बुरे मार्ग में पाँव नहीं धरते। मुझे तो अपने मन का भरोसा है कि जिसने स्वप्न में भी पराई स्त्री को नहीं ताका।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु सन पीठी। नहिं पावहिं पर किस मन डीठी।। महाजन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। रे नरबर थोरे जग माहीं।।___ अर्थ___ जो शत्रु को रण में पीठ नहीं दिखाते, पराई स्त्री जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पाती तथा माँगनेवाले जिनके यहाँ ‘नहीं’ पाते, ऐसे उत्तम पुरुष संसार में कम हैं।
करत बतकही अनुज सन, मन सिय रूप लोभान। मुख सरोज मकरंद छबि, करइ मधुप इव पान।। __ अर्थ___ रामचन्द्रजी बात तो लक्ष्मणजी से कर रहे थे पर मन सीताजी के रूप पर लुभाया हुआ उनके मुख रूपी कमल के शोभारूपी रस को भौंरे के समान पान कर रहा था।
चितवत चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता। जहँ बिलोकि मृग सावक नैनी। जनि तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।___अर्थ____ सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं, मन में चिंता है कि राजकिशोर कहाँ गये। वह बाल मृगनयनी जिस ओर देखती हैं वहीं मानो सफेद पंक्तियों की वर्षा हो जाती है।
लता ओट तब सखिन्ह लखाये। स्याम गौर किसोर सुहाये।। देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।___ अर्थ___ तब सखियों ने लता की आड़ में श्याम और गौर राजकुमार दिखाये। उनका रूप देख जानकीजी के नेत्र ललचा उठे मानो अपनी संपति को पाकर प्रसन्न हुए हों।
थके नयन रघुपति छबि देखे। पलकन्हिहूँ परिहरे निमेषें।। अधिक स्नेह देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।___ अर्थ____ सीताजी के नेत्र रघुनाथजी की छबि देखकर चकित हो गये। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण देह बिह्वल हो गयी मानो चकोर शरदऋतु के चन्द्रमा को देख रही हो।
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।। जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहा न सकहिं कुछ मन सकुचानी।।___ अर्थ___ नेत्रों के मार्ग से श्रीरामजी को हृदय में लाकर सयानी सीताजी ने पलकरूपी किवाड़ बन्द कर दिये। जब सहेलियों ने जानकीजी को प्रेम के वश में जाना, तब ही वे मन में सकुचाई। कुछ कह न सकी।
लता भवन तें प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाई। निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ।।____अर्थ____उसी समय लताकुंज में से दोनों भाई प्रकट हुए मानो दो चन्द्रमा बादलरूपी पट को खोलकर निकल आये हों।
सोभा सीवँ सुभग दोउ वीरा। नील पीत जलजाभ शरीरा।। मोर पंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कलीके।।___ अर्थ___ दोनों सुन्दर भाई शोभा की सीमा हैं, नीले और पीले कमल के समान शरीर हैं। सिर पर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच_बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे गुथे हुए हैं।
भाल तिलकश्रम बिन्दु सुहाये। श्रवन सुभग भूषण छबिछाये।। बिकट भृगुटि कर घूँघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।___अर्थ___ माथे पर तिलक एवं पसीने की बूँदें सुशोभित हैं, कानों,में आभूषण की छबि छा रही है। टेढ़ी भौंहे और घुँघराले बाल हैं, न ये कमल के समान अरुण नयन हैं।
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।। मुख छबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहिं।।___ अर्थ____ सुन्दर ठोड़ी, नाक और गाल हैं। हँसी की शोभा उनको मोह लेती हैं। मुख की शोभा तो,मुझसे कही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत से कामदेव सजा जाते हैं।
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बल सींवा।। सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुँवर सखी सुठि लोना।।___ अर्थ___ छाती पर मणियों की माला है, शंख के समान सुंदर गला है और कामदेव के हाथी के बच्चे के समान भुजायें हैं जो बल की सीमा हैं। जिसके बायें हाथ में फूलों से,भरा हुआ दोना है, हे सखी ! वह लाँवला कुँवर तो बहुत सुन्दर है।
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