Thursday, 12 September 2019

बालकाण्ड

कटि पट पीत धर, सुषमा सील निधान। देखि भानुकुलभूषनहिं, बिसरा सखिन्ह अपान।।___अर्थ___ सिंह की_सी पतली कमर में पीताम्बर धारण किये, शोभा और शील के भूषण श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने आप को भूल गईं।

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।। बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।___अर्थ____एक चतुर सखी धीरज धरकर और हाथ पकड़कर सीताजी से बोली___ पार्वतीजी का ध्यान फिर कर लेना राजकुमारों को क्यों नहीं देख लेतीं।

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सन्मुख दोउ रघुसिंघ निहारे।। नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।___अर्थ____ तब सीताजी ने सकुचाकर आँखें खोलीं और अपने सामने दोनों रघुवंशी सिंहों को देखा। नख से चोटी तक श्रीरामचन्द्रजी की शोभा देखकर और पिता का पन  स्मरण करके उनका मन बहुत घबराया।

पर बस सखीन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता।। पुनि आउब एहि बेरिया काली। अस कहि मन बिहँसि एक आली।।___ अर्थ___ सखियों ने जब सीताजी को विवश देखा तब सब डरकर कहने लगीं___ बहुत देर हो गयी है। कल इसी समय फिर आवेंगी ऐसे कहकर एक सखी मन मेंहँसी।

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयऊ बिलम्बु मातु भय मानी।। धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितु बस जाने।।___ अर्थ___ सखी की गूढ़ बाणी सुनकर सीताजी लज्जित हुईं और बिलम्ब हुआ जानकर माता ने डर माना। फिर धीरज कर रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और अपने को पिता के वश में जानकर लौटीं।

देखन मिस मृग बिहग तरु, फिरइ बहोरि बहोरि। निरखि निरखि रघुवीर छबि, बाढ़इ प्रीति न थोरि।।___ अर्थ___ पशु, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बारम्बार लौटती हैं और रामचन्द्रजी की छबि को देखकर उनकी प्रीति बहुत बढ़ती जाती है।

जानि कठिन सिब चाप बिसूरति। चलि राखि उर स्यामल मूरति।। प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।__ अर्थ___शिवजी के धनुष को कठोर जानकर सीताजी सुख पाती हुईं श्रीरामजी की साँवली मूर्ति हृदय में रखकर चलीं। प्रभु ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुण की खान जानकी को जाते हुए जाना।

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही।। गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी।।___ अर्थ____ तब पूर्ण प्रेमरूपी उत्तम स्याही से अपने हृदय पट पर उनका स्वरूप चित्रित कर लिया। सीताजी फिर पार्वतीजी के मन्दिर में गईं और चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़कर बोलीं___

जयजयजय गिरिराजकिसोरी। जय महेस मुख चन्द्र चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगतजननि दामिनि दुति गाता।।___ अर्थ___हे गिरिराजकिशोरी पार्वती ! आपकी जय हो ! हे महादेवजी के मुखरूपी चन्द्रमा की चकोरी ! आपकी जय हो। हे हाथी के मुखवाले गणेशजी और छ: मुखवाले स्वामी कार्तिकेयजी की माता ! हे जगदम्बा ! हे बिजली के समान प्रकाशित शरीरवाली ! आपका जय हो।

नहिं तव आदि  मध्य अनुमाना। अमिति प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभवकारिनि। बिश्वबिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।___अर्थ___आपका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, वेद भी आपकी महिमा को नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली ! आपकी जय हो।


पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम रन रेख। महिमा अमित न सकहि कहि, सहस सारदा सेष।।___ अर्थ____ हे माता ! पति को देवता माननेवाली श्रेष्ठ स्त्रियों में आपकी पहली गिनती है। हजारों सरस्वती और शेषजी भी आपकी अनंत महिमा का वर्णन नहीं कर सकते।

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पियारी।। देबि पूजी पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।____अर्थ___ हे वर देनेवाली ! हे त्रिपुरारी शिवजी की प्रियतमा ! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवि ! आपके चरण_कमल पूजने से देवता, मनुष्य और मुनि सब सुखी होते हैं।


मोर मनोरथ जानहु नीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।। कीन्हेहु प्रकट न कारन तेहीं। असि कहि चरण गहे बैदेही।।___ अर्थ___ मेरी मनोकामना आप भली_भाँति जानती हैं क्योंकि आप सदैव सबही के मन मन्दिर में वास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर सीता ने उमा के चरण पकड़ लिये।


बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसाद सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।___ अर्थ___ श्रीपार्वतीजी सीताजी की विनती और प्रेम के वश में हो गईं। उनकी माला खसक पड़ी और मूर्ति मुसकाई। उसको सीताजी ने आदरसहित सिर पर धारण किया। पार्वतीजी का हृदय आनन्द से भर गया और बोलीं__

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो वर मिलेउ जाहिं मनु राचा।।___ अर्थ____ हे सीता ! हमारी सच्ची असीस सुनो, तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। नारदजी का वचन पवित्र और सत्य है वही वर तुम्हें मिलेगा जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है।

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो। करुनानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषी अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली।।___ अर्थ___ जिसमें तुम्हारा मन लगा है, वही स्वभाव से ही सुन्दर साँवला वर तुमको मिलेगा। वह करुणानिधान तथा सर्वज्ञ हैं, तुम्हारे सील और स्नेह को जानते हैं। इस भाँति पार्वतीजी की असीष सुनकर सीताजी हृदय में प्रसन्न होती हुईं भवानी को पूजकर अपने घर को चलीं।

जानि गौरि अनुकूल, सिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।___ अर्थ___ पार्वतीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदयँ में जो आनन्द हुआ वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मंगलसूचक बायें अंग फरकने लगे।

हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुरु समीप गवने दोउ भाई।। राम कहा सब कौसिक पाहीं। सहज सुभाऊ न छल नाहीं।।___ अर्थ___ सीताजी की सुन्दरता को हृदय में सराहना करते हुए दोनों भाई गुरु के पास गये। रामचन्द्रजी ने सब बात विश्वामित्रजी से कह दिया, क्योंकि वे सरल स्वभाव के हैं, छल तो उन्हें छूता भी नहीं।

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्हि दीन्ही। सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।___ अर्थ___ फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिये कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्रीराम_ लक्ष्मण सुखी हुए।

करि भोजनु मुनिबर विग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।। बिगत दिवस गुरु आयसु पाई। सन्ध्या करन चले दोउ भाई।।___ अर्थ___भोजन करके ज्ञानी मुनि कुछ प्राचीन कथा कहने लगे। दिन बीत जाने पर मुनि की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले।

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुख पावा। बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।___ अर्थ____ पूर्व दिशा से सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ। श्रीरामजी ने उनको सीताजी के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि सीताजी के मुख के समान यह चन्द्रमा नहीं है।

जनमु सिंधु पुनि बन्धु बिशप, दीन मलीन सकलंक।। सिय सुख समता पाव किमि, चन्दु बापुरो रंक।।___ अर्थ___ जन्म खारे समुद्र से, फिर विष इसका भाई, दिन में तेजहीन, ऐसा बेचारा चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है।

घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसई राहु निज संधिहिं पाई।। कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही।।___अर्थ___फिर यह नित्य घटता बढ़ता है, बिरही लोगों को दुःख देता है, राहु इसे अपनी संधि में पाकर ग्रस लेता है। यह चकवे को दुःख देनेवाला और कमल का बैरी है। हे चन्द्रमा ! तुझमें बहुत से अवगुण हैं।

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होहिं दोषु बर अनुचित कीन्हे।। सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।___ अर्थ___ सीताजी के मुख की तुमसे उपमा देने में अनुचित कर्म का बड़ा भारी दोष होगा। इस प्रकार सीताजी के मुख की सोभा चन्द्रमा के बहाने से वर्णन कर, बहुत रात हो गई जानकर वे गुरु के पास चले।

करि मुनि चरन सरोज प्रणामा। आयसु पाइ कीन्ह विश्रामा। बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे।।___ अर्थ___ मुनि के चरणकमलों में प्रणाम कर, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया। रात हारने पर श्रीरामचन्द्रजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे___


उभय अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।। बोले लखन जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।___अर्थ____ हे तात ! देखो, अरुणोदय हो गया जो कमल, चकवा और संसार को सुख देनेवाला है। यह सुनकर लक्ष्मणजी हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को प्रकट करनेवाली मधुर वाणी बोले__

अरुणोदय सकुचे कुमुद, उडगन जोति मलीन। जिमि तुम्हार आगमन सुनि, भए नृपति बलहीन।।___ अर्थ___ जैसे अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई है और तारागणों की ज्योति मन्द पड़ गयी है, इसी प्रकार आपका आना सुनकर राजालोग निर्बल हो गये हैं।

नृप सब नखत करहिं उजियारी। टारि न सकहिं चापतम भारी।। कमल कोक मधुकर खगनाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।___अर्थ___ सब राजालोग तारों के समान उजाला कर तो हैं परन्तु वे धनुषरूपी घोर अन्धकार को नहीं मिटा सकते। कमल, चकवा, भौंरे और अनेक पक्षी रात बीत जाने पर जैसे प्रसन्न हो गये हैं,

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटे धनुष सुखारे।। उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।___अर्थ____ इसी प्रकार हे स्वामी ! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य के उदय होने से बिना परिश्रम अन्धकार का नाश हो गया, तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश फैल गया।

रवि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।। तव भुजबल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।___ अर्थ____ हे रघुनाथजी ! सूर्य ने अपने उदय होने के बहाने से आपका प्रताप सब राजाओं को दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल को प्रकट करने के लिये ही धनुष तोड़ने की प्रथा चली है।

बन्धु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।। नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आये। चरन सरोज सुभग सिर नाये।।___अर्थ___भाई के वचन सुनकर प्रभु मुसकाए। फिर शौच क्रिया से निवृत होकर स्वभाव से ही पवित्र रामजी ने स्नान किया।


सतानन्द तब जनक बोलाये। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाये।। जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिये दोउ भाई।।___ अर्थ____ तब राजा जनकजी ने सतानन्दजी को बुलाया और तुरन्त विश्वामित्र मुनि के पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई। विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर दोनों भाइयों को बुलाया।

सतानन्द पद बन्दि प्रभु, बैठे गुरु पहिं जाइ। चलहु तात मुनि कहें तब, पठवा जनक बोलाइ।।___अर्थ___सतानन्दजी के चरणो में प्रणाम कर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गुरु के पास जा बैठे। तब मुनि ने कहा___ हे तात ! चलो राजा जनकजी ने बुलावा भेजा है।

सीय स्वयंवर देखिय जाई। ईस काहि धौं देइ बड़ाई।। लखन कहा जग भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जा पर होई।।___अर्थ___ अब सीताजी का स्वयंवर जाकर देखना चाहिये, ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा___ हे नाथ ! वही यश का पात्र होगा जिस पर आपकी कृपा होगी।

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्ह असीस सबहिं सुखु मानी।। पुनि मुनिबृन्द समेत कृपाला। देखन चले धनुष मखसाला।।___अर्थ___सब मुनि सुन्दर वाणी सुनकर प्रसन्न हुए। सबने खुश होकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनिमण्डली सहित कृपालु रामजी धनुष_यज्ञशाला देखने चले।

रंगभूमि आये दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।। चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।___अर्थ____रंगभूमि में दोनों भाई आये हैं, यह समाचार जब नगरवासियों ने पाया तो सब बालक, युवा, बूढ़े_नर, सभी घर का राम छोड़कर चले।

देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिये हँकारी।। तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू।।___ अर्थ____ जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गयी है, तब सब सेवकों को बुलाकर कहा___ तुम सब तुरन्त लोगों के पास जाओ और सबको यथायोग्य आसन दो।

कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह, बैठारे नर नारि। उत्तम मध्यम नीच लघु, निज निज थल अनुहारि।।___ अर्थ___उन्होंने विनयपूर्वक मधुर वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच, लघु सब स्त्री_ पुरुषों को अपने_अपने योग्य स्थान पर बैठाया।

राजकुँवर तेहि अवसर आये। मनहुँ मनोहरता तन छाये।। गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर स्यामल गौर सरीरा।।___ अर्थ___उसी समय राजकुमार आ पहुँचे। मानो मनोहरता उनके शरीरों पर छायी हो। वे गुणों के समूह, चतुर, शूरवीरों में श्रेष्ठ, सुन्दर साँवेर शरीरवाले हैं।

राज समाज विराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।। जिन्हकें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।___ अर्थ___ वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हैं जैसे तारागणों में दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, उन्होंने प्रभु की मूर्ति वैसी ही देखी।


देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।। डरे कुटिल नृप प्रभुहिं निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।___ अर्थ___बड़े रणधीर राजा प्रभु को ऐसा देख रहे हैं मानो वीर रस शरीर धारण किये हैं। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डरे, मानो भयानक मूर्ति हो।

रहे असुर छल जो नृप वेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।। पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषण लोचन सुखदाई।।___अर्थ___ जो असुर छल से राजा के वेष में वहाँ बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। पुरबासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों में शिरोमणि और नयनों को सुख देनेवाला देखा।

नारि बिलोकहिं हरषि हियँ, निज निज रुचि अनुरूप। जनु सोहत सिंगार धरि, मूरति परम अनूप।।___ अर्थ____ स्त्रियाँ हृदय में प्रसन्न हो अपनी_ अपनी रुचि के अनुसार देख रही हैं। मानो श्रृंगाररस बहुत सुन्दर मूर्ति धारण किए शोभायमान हैं।

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीखा। बहु मुख पग लोचन सीसा।। जनक जाति अवलोकहिं कैसे। सजन लगे प्रिय लागहिं जैसे।___अर्थ___पण्डितों ने प्रभु को विराट रूप में देखा जिसके बहुत से मुख, चरण, हाथ नेत्र और सिर हैं। जनकजी के सजातियों ने अपने सगे प्रियजन के समान देखा।

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।। जोगिन्ह परम तत्वमय भाषा। सान्त सुद्ध सम सहज प्रकासा।।___अर्थ___ जनक सहित रानियाँ उनको पुत्र के समान देखने लगीं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शान्त, शुद्ध एकरस और स्वभाव से ही प्रकाशित परम तत्व को रूप में दिखे।

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।। रामहिं चितव भाँय जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहीं कथनीया।।___अर्थ___ हरिभक्तों को दोनों भाई इष्टदेव के समान सब सुख देनेवाले जान पड़े। सीताजी श्रीरामचन्द्रजी को जिस भाव से देख रही थी, वह स्नेह और सुख तो कहा ही नहीं जाता।

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।। एहि बिधि रहा जाहि जिय भाऊ। तेहिं तस देखे कोसलराऊ।।___ अर्थ___वे उस स्नेह और सुख का हृदय में अनुभव तो करती हैं परन्तु उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि किस प्रकार से उसको कहे ? जिसका जैसा भाव था उसने श्रीरामचन्द्रजी को वैसा ही देखा।

राजत राज समाज महुँ, कोसलराज किसोर। सुन्दर स्याम गौर तन, बिस्व बिलोचन चोर।।___ अर्थ___साँवले और गोरे शरीरवाले और संसार के नेत्रों को चुरानेवाले अयोध्यानरेश के कुमार राजसभा में सुशोभित हैं।

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