Tuesday, 19 November 2019

बालकाण्ड

सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।। सरदचन्द सम  मुख नीके। नीरज नयन भावतेजी के।।___ अर्थ____ दोनों के स्वरूप स्वभाव से ही मन को हरनेवाले हैं। करोड़ों कामदेव की उपमा भी उनके आगे तुच्छ हैं। शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा को लजानेवाला सुन्दर मुख और कमल के समान मनभावने नेत्र हैं।

चितवन चारु मार मनु हरनी। भावति हृदयँ जाति नहिं बरनी।। कल कपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला।।___अर्थ___ कामदेव के घमंड को हरनेवाली सुन्दर चितवन मन को भली लगती है। परन्तु वाणी से कही नहीं जा सकती। सुन्दर गालों पर कानों के कुण्डल झूल रहे हैं। सुन्दर ठोड़ी और मधुर वाणी है।

कुमुद बन्धु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।। भालबिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।___ अर्थ____ चन्द्रमा की किरणों को लजानेवाली हँसी, कमान के समान टेढ़ी भौंहें और मनोहर नासिका हैं। चौड़े मस्तकों पर तिलक झलक रहे हैं और बालों को देखकर भौंरों की पांति लजा रही है।

पीत चौतनीं सिरन्हिं सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।। रेखें रुचिर कम्बु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा  की सीवाँ।।___अर्थ___पीली चौकोनी टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं जिन पर फूलों की कलियाँ बनाई हुईं हैं। शंख के समान सुन्दर कण्ठ में मनोहर तीन रेखाएँ हैं जो मानो तीनों लोकों की सुन्दरता की सीमा हैं।

कुंजर मनि कण्ठा कलित, उरन्हि तुलसिका माल। बृषभकन्ध केहरि ठबनि, बल निधि बाहु बिसाल।।___ अर्थ___हृदयों पर गजमुक्ताओं के कण्ठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हो रही हैं। बैलों के_से ऊँचे कन्धे हैं, सिंह की सी चाल है और भुजाएँ बल की समुद्र और लम्बी हैं।

कटि तूनीर पीतपट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।। पीत जस उपबीत सुहाये। नख सिख मंजु महाछबि छाये।।___अर्थ____ कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं, हाथों में बाण और बायें कन्धे पर सुन्दर धनुष और पीले जनेऊ सुशोभित हैं। नख से चोटी तक सब अंग शोभायमान हैं।

देखि लोग सब भये सुखारे। एकटक लोचन टलत न टारे।। हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब  जाई।।___अर्थ____उन्हें देखकर सबलोग सुखी हुए। नेत्र एकटक और तारे भी नहीं चलते। राजा जनक दोनों भाइयों को देखकर प्रसन्न हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के चरणकमलों पकड़ लिये।

करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।। जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।___अर्थ___ विनती करके अपनी कथा सुनाई और रंगभूमि की सब रचना मुनि को दिखाई। जहाँ_ जहाँ दोनों राजकुमार जाते हैं, वहाँ_वहाँ चकित होकर देखने लगते हैं।

निज निज रुख रामहिं सबु देखा। कोई न जान कछु मरमु बिसेषा।। भलि रचना मुनि नृप सन कहुऊ। राजा मुदित महासुख लहेऊ।।___अर्थ___सबों ने अपनी अपनी ओर से श्रीरामजी को देखा, पर यह भेद किसी ने नहीं जाना। मुनि ने राजा से कहा__ रंगभूमि की रचना बहुत अच्छी है, यह सुन राजा प्रसन्न हुए तथा बड़ा सुख पाया।

सब मंचन्ह तें मंच एक, सुन्दर सुखद बिसाल। मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।___सब मंचों से एक मंच सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल था। उसपर राजा ने मुनि समेत दोनो भाइयों को बैठाया।

प्रभुहिं देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।। असि प्रतीति सबके मन माहीं। राम चाप तोरब सकि नाहीं।।____अर्थ___प्रभु को देखकर सब राजा मन में ऐसे निराश हो गये जैसे चन्द्रमा के उदय होने ये तारे मन्द पड़ जाते हैं। सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि श्रीरामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं है।

बिनु भंजेहु भव धनुष बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।। अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रताप बल तेजु गवाँई।।___ अर्थ___ शिवजी के इस बड़े धनुष को बिना तोड़े भी सीताजी रामजी के गले में ही जयमाला डालेंगी। हे भाई ! ऐसा बिचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने अपने घर चलो।

बिहँसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।। तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बियाहा।।___ अर्थ___इस बात को सुनकर दूसरे राजा जो अज्ञान से अंधे और घमंडी थे, हँस पड़े और बोले___ धनुष तोड़ने पर भी ब्याह होना कठिन है। फिर बिना धनुष तोड़े तो  राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है ?

एक बार कालउ किन होउ। सिय हित समर जितब हम सोउ।। यह सुनि अपर भूप मुसकाने। धरमशील हरिभगत सयाने।।___ अर्थ____ काल ही क्यों न हो एक बार तो सीताजी के लिये समर में हम उसे भी जीतेंगे। यह सुनकर अन्य धर्मात्मा एवं हरिभक्त और चतुर राजा हँसने लगे।

सीय बियाहबि राम, गरब दूरि करि नृपन्ह के। जीति को यह संग्राम, दसरथ के रन बाँकुरे।।___ अर्थ___ राजाओं का घमण्ड दूर करके रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे। महाराज दशरथजी के रणबाँकुरे पुत्रों को संग्राम में जीत ही कौन सकता है ?

ब्यर्थ करहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।। सिख हमारि पुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता।।___ अर्थ___ वृथा गाल मत बजाओ, मन के लड्डुओं से भूख शान्त नहीं होती। हमारी परम पवित्र सीख को सुनकर अपने मन में सीताजी को जगत्माता जानो।

जगतपिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी। सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बन्धु सम्भु उर बासी।।____ अर्थ___और रामचन्द्रजी को जगतपिता समझकर नेत्र भरकर इनकी शोभा देख लो। सुन्दर, सुखदेनेवाले और और गुणों की राशि ये दोनों भाई महादेवजी के हृदय में वास करते हैं।

सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजल निरखि मरहु कत धाई। करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।____अर्थ____पास ही अमृत का समुद्र छोड़कर, मृगतृष्णा के जल को देखकर दौड़कर क्यों मरे जाते हो ? जिसे जो अच्छा लगे सो करो, हमने तो,आज जन्म लेने का फल पा लिया।

अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।। देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरसहिं सुमन करहिं कल गाना।।___ अर्थ____ऐसे कहकर भले राजा प्रेम में मगन हुए और अनुपम रूप को देखने लगे। देवता भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए देख रहे थे और पुष्प बरसाते हुए मधुर गीत गा रहे थे।

जानि सुअवसरु सीय तब, पठई जनक बुलाइ। चतुर सखी सुन्दर सकल, सादर चलीं लवाइ।।___ अर्थ___ तब राजा जनक ने  शुभ समय जानकर सीताजी को बुला भेजा। चतुर और सुन्दर रूपवाली सखियाँ आदर सहित उन्हें लिवा चलीं।

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी।। उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।___ अर्थ____सीताजी की शोभा कही नहीं जा सकती, क्योंकि वे जगत् की माता और रूप और गुण की खान हैं। सब उपमायें मुझको तुच्छ जान पड़ती हैं क्योंकि वे सब संसारी स्त्रियों के अंग लग चुकी हैं।

सिय बरनिअ तेई उपमा देई। कुकबि कहाई अजसु को लेई।। जौं पटरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।___ अर्थ___सीताजी का किसी से उपमा देकर कुकबि ( तुलसीदास कहते हैं ) नहीं कहाना। यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना करें तो ऐसी स्त्री इस संसार में कहाँ है।

गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुःखित अतनु पति जानी।। बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमा सम किमि बैदेही।।___अर्थ___ सरस्वती बहुत बोलनेवाली हैं, पार्वतीजी अर्धांगिनी हैं (  उनका आधा अंग शिवजी का है ) रति पति को अनंग जानकर बहुत दुःखी रहती है और विष और बारुणी जिनके प्यारे भाई हैं उन लक्ष्मीजी के समान सीताजी को कहा ही कैसे जाय?

जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई।। सोभा रजु मन्दरु सिंगारू। मथै पानि पंकज जिमि मारू।।___ अर्थ___ जो छबिरूपि अमृत का समुद्र हो और दिव्यरूप का कछुआ हो, शोभारूपी रस्सी हो, श्रृंगार रूपी मन्दराचल हो और कामदेव स्वयं अपने करकमलों से मथें।

एहि बिधि उपजै लच्छि जब, सुन्दरता सुख मूल।। तदपि सकोच समेत कबि, कहहिं सीय समतूल।।___ अर्थ ___इस प्रकार जब सुन्दरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हों, तो भी कवि सीताजी को संकोच के साथ लक्ष्मी के समान कह सकते हैं।

चली संग लै सखी सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।। सोलह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।___ अर्थ____ चतुर सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर बाणी से सुरीले गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साड़ी शोभायमान हैं। जगत्माता जानकीजी की शोभा अतुलनीय है।

भूषन सकल सुदेश सुहाये। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाये।। रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।___ अर्थ____सब गहने सब अंगों में सुशोभित हैं जिन्हें अंग अंग में सजाकर सखियों ने पहनाये हैं। रंगभूमि में जब सीताजी ने चरण रखा तो रूप देखकर सब नर नारी मोहित हो गये।

हरषि सुरन्ह दुंदुभि बजाईं। बरसि प्रसून अपछरा गाई।। पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।___अर्थ___ देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है। सीताजी ने अचानक सब राजाओं की ओर देखा, दृष्टि को कहीं नहीं रोकी।

सीय चकित चित रामहिं चाहा। भए मोहवश सब नरनाहा।। मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।___ अर्थ___ सीताजी चकित चित्त से रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा मोह के वश हो गये। फिर मुनि के पास बैठे दोनों भाइयों को देखा तो दोनो नेत्र अपनी निधि पाकर मानो वहीं स्थिर हो गये।

गुरजन लाज समाजु बड़, देखि सीय सकुचानि। लगी बिलोकन सखिन्ह तन, रघुबीरहिं उर आनि।।___ अर्थ___परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्रीरामजी को हृदय में रखकर सखियों की ओर देखने लगीं।

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।। सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।___ अर्थ____रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की शोभा देखकर नर नारियों ने पलक झपकाना छोड़ दिया।

हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।। बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू।।___ अर्थ___हे विधाता ! जनकजी के हठ को जल्दी दूर करे और उन्हें हमारी_सी अच्छी बुद्धि दो, जिससे वे बिना विचार किये ही अपने प्रण को छोड़कर सीताजी का श्रीरामजी से विवाह कर दें।

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू।। एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।___ अर्थ____ संसार उन्हें भला कहेगा क्योंकि यह सबको भला ही लगेगा। हठ करने से अंत में हृदय में दुख होगा। इसी लालसा में सब मग्न हैं कि जानकी के योग्य तो यह साँवला वर ही है।

तब बन्दीजन जनक बोलाये। बिरिदावली कहत चलि आये।। कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।___ अर्थ___ तब जनकजी ने बन्दीजनों को बुलाया, वे पूर्वजों का यश बखानते हुए चले आए। राजा ने कहा___जाकर हमारा प्रण सबसे कहो। भाट हृदय में प्रसन्न होते हुए चले।

बोले बन्दी बचन बर, सुनहु सकल महीपाल। पन बिदेह कर कहहिं हम, भुजा उठाइ बिसाल।।___ अर्थ___भाट सुन्दर बचन बोले___ हे राजा लोगों ! सुनो, जनकजी का प्रण हम ऊँची भुजा उठाकर कहते हैं।

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।। रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवहिं सिधारे।।___ अर्थ____ राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहू है। यह भारी और कठोर है, यह सबको मालूम है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी धनुष को देखकर चुपचाप लौट गए।

सोइ पुरारि कोदण्डु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।। त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।___ अर्थ___उसी कठोर शिव_धनुष को इस राज_समाज में आज जो तोड़ेगा, उसे ही तीनों लोकों की विजय समेत सीताजी बिना विचारे ही हठपूर्वक वरेंगी।

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे।। परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।___ अर्थ___ प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो अभिमानी राजा थे वे क्रोधित हुए, कमर बाँध घबराकर उठे और अपने_ अपने इष्टदेवों को शीश नवाकर चले।

तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप, उठइ न चलहिं लजाइ। मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिकु अधिकु गरुआइ।।___ अर्थ___ मूर्ख राजा झुँझलाकर धनुष पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तब लजाकर चल देते हैं। मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर धनुष अधिक अधिक भारी हो रहा है।

सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसे बिनु बिराग सन्यासी।। कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।___ अर्थ___ सब राजा हँसी के योग्य हो गये जैसे बिना वैराग्य के सन्यासी हँसने योग्य हो जाता है। वे उस धनुष के यश, विजय और शूरवीरता विवश होकर हार गये।

श्री हत भए हारी हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।। नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।___ अर्थ___राजालोग हृदय में हार मानकर कांतिहीन हो गए और अपने_अपने समाज में जा बैठे। उन राजाओं को असफल देखकर जनकजी घबराये और ऐसे बचन बोले जो मानो क्रोध से भरे हों।

दीप दीप के भूपति नाना। आये सुनि हम जो पनु ठाना।। देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आये रनधीरा।।___अर्थ____मैंने जो प्रण किया है उसे सुनकर द्वीप द्वीप के अनेकों राजा आये हैं तथा बहुत से रणधीर भी आये हैं।

कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि, कीरति अति कमनीय। पावनिहार बिरंचि जनु, रचेउ न धनु दमनीय।।___ अर्थ___धनुष को तोड़कर बड़ी विजय, बहुत ही सुन्दर कीर्ति_ रूपी मनोहर राजकुमारी को पानेवाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं।

कहहु काहि यह लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।। रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भर भूमि न सके छुड़ाई।।___ अर्थ___ कहो, किसे यह लाभ भला नहीं लगा ? किसी ने इस शिव_ धनुष को नहीं चढ़ाया। अरे भाई चढ़ाना और तोड़ना तो अलग रहा, कोई तिल भर भूमि भी नहीं छुड़ा सका।

अब जनि कोउ माखे भटमानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।। तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहु।।___ अर्थ___ अब कोई अपने को योद्धा मानकर घमण्ड मत करे। मैंने जान लिया कि पृथ्वी वीरों से खाली हो गयी है। अब आशा छोड़कर अपने_ अपने घर जाओ, ब्रह्माजी ने जानकी का विवाह नहीं लिखा।

सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ।। जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौं पनु करि होतेउँ न हँसाई।।___,अर्थ___ यदि अपनी प्रतिज्ञा भंग करूँ तो पुण्य क्षीण हो जाय, कन्या कुँआरी ही रहे तो क्या करूँ ? हे भाई ! यदि मैं जानता कि पृथ्वी पर कोई शूरवीर नहीं है तो प्रण करके मैं अपनी हँसी नहीं कराता।

जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भये दुखारी।। माखे लखन कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौहें।।___ अर्थ___ जनकजी के वचन सुनकर सब नर_ नारी सीताजी को देखकर दुःखी हुए। परन्तु लक्ष्मणजी को क्रोध आ गया, भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे, आँखें क्रोध से लाल हो गयीं।

कहि न सकत रघुबीर डर, लगे वचन जनु बान। नाइ राम पद कमल सिरु, बोले गिरा प्रमान।।___ अर्थ___ रामजी के डर से कुछ नहीं कह सकते, पर जनकजी के वचन उन्हें बाण से लगे। रामजी को चरणों में सिर नवाकर यथोचित वचन बोले___

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।। कही जनक जस अनुचित बानी। विद्यमान रघुकुल मनि जानी।।___ रघुवंशियों में कोई भी जहाँ होता है उस सभा में ऐसी कठोर बात कोई नहीं कहता, जैसी अनुचित बात जनकजी ने रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी को बैठे जानकर भी कही है।

सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।। जौं राउर अनुशासन पावौं। कन्दुक इन ब्रह्माण्ड उठावौं।।___ अर्थ___ हे सूर्यकुल_कमल_भास्कर ! सुनिए, मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुछ अभिमान से नहीं, यदि मैं आपकी आज्ञा पाऊँ तो गेंद के समान ब्रह्मांड को उठा लूँ।

काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।। तब प्रताप महिमा भगवाना। का बापुरो पिनाक पुराना।। ___अर्थ___और उसे कच्चे घड़े के समान फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली के समान तोड़ सकता हूँ। ये बेचारा पुराना धनुष क्या वस्तु है ?

नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुक करौं बिलोकिअ सोऊ।। कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।___ अर्थ____ हे नाथ ! ऐसा जानकर आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। कमल की डण्डी के समान धनुष को चढाऊँ और सौ योजन तक लेकर दौड़ा चला जाऊँ।

तोरौं छत्रक दण्ड जिमि, तब प्रताप बल नाथ। जौं न करौं प्रभु पद सपथ, पुनि न धरौं धनु हाथ।।___अर्थ___ हे नाथ ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कठफूल की डंडी के समान तोड़ डालूँ, यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि फिर मैं धनुष को हाथ से न पकड़ूँगा।

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।। सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।___ अर्थ____ जब लक्ष्मणजी क्रोध के साथ यह बचन बोले तब पृथ्वी हिलने लगी और दिशाओं के हाथी काँप उठे। सब लोग और राजा डर गये। सीताजी मन में प्रसन्न हुईं और जनकजी सकुचा गये।

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भये पुनि पुनि पुलकाहीं। सयनहिं रघुपति लखनु नेबारे। प्रेम सहित निकट बैठारे।।___ अर्थ___ गुरु विश्वामित्रजी, रामजी और सब मुनिजन मन में प्रसन्न हुए और बारम्बार पुलकित होने लगे। श्रीरामजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया।

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।। उठहु राम भंजहु सिव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।___अर्थ___विश्वामित्र शुभ समय जानकर बड़ी प्रेम भरी वाणी से बोले___ हे राम ! उठो, शिव_ धनुष तोड़ो और जनकजी का संताप दूर करो।

सुनि गुर बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।। ठाढ़े भए उठी सहज सुभाएँ। ठवनि जुवा मृगराज लजाएँ।।__ अर्थ___ गुरु के वचन सुनकर चरणों में सिर नवाया। उनके मन में हर्ष, शोक कुछ भी न हुआ। वे अपने खड़े होने की शान से सिंह को भी लज्जित करते थे।

उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बाल पतंग। बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।।___ अर्थ___उदयाचलरूपी मंच पर रामचन्द्रजी के उदय होते ही संतजन_रूपी कमल खिल गये और भौंरारूपी नेत्र प्रसन्न हुए।

नृपन्ह केरि आसा निस नासी। बचन नखत अवलीन प्रकासी।। मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।___ अर्थ___ राजाओं की आशारूपी रात्रि नष्ट हो गई और उनके दुर्वचनरूपी नक्षत्रों का प्रकाश नहीं रहा। घमण्डी राजा कुमुद के समान सिकुड़ गये और कपट वेषधारी राजा उल्लू के समान छिप गये।

भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।  गुरुपद बंदि सहित अनुरागा। रामु मुनिन्ह सन आयसु मागा।।___ अर्थ___ चकवारूपि मुनि और देवता शोक से रहित हुए और फूल बरसाकर अपनी सेवा जताने लगे। श्रीरामजी ने गुरु के चरणों की वन्दना कर प्रेमसहित मुनियों से आज्ञा माँगी।

सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।। चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारे।।___ अर्थ___ सब जगत के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर मतवाले गजराज के समान चाल से स्वाभाविक ही चले। रामचन्द्रजी के चलते ही नगर के सब नर_नारी रोमांच से भर गये और वे सुखी हुए।

बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुण्य प्रभाउ हमारे।। तौं सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं।।___ अर्थ____उन्होंने पितर और देवताओं की वन्दना कर अपने सत्कर्मों को याद किया कि हमारे पुण्यों की कुछ प्रभाव हो तो हे गणेश गोसाईं ! रामजी शिवजी के धनुष को कमल के डंडी के समान तोड़ डालें।

रामहिं प्रेम समेत लखि, सखिन्ह समीप बोलाई। सीता मातु सनेह बस, बचन कहइ बिलखाइ।।___ अर्थ ___ रामचन्द्रजी को प्रेमसहित देखकर और सखियों को पास बुलाकर, सीताजी की माता प्रीतिवश बिलखकर यह वचन बोलीं___


सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे।। कोई न बुझाई कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।___ अर्थ___ हे सखी ! ये सब तमाशा देखनेवाले जो हमारे हितू कहलाते हैं उनमें से कोई भी गुरु विश्वामित्र से यह समझाकर नहीं कहता कि सब बालक हैं, ऐसा हठ अच्छा नहीं है।



रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।। सो धनु राजकुँअर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।___ अर्थ___रावण और बाणासुर ने धनुष छुआ तक नहीं और सब राजालोग बल लगाकर हार गये, वही धनुष राजकुमार के हाथ में देते हैं। हंस के बच्चे क्या मन्दराचल को उठा सकते हैं?




भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।। बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजबन्त लघु गनिअ न रानी।।___ अर्थ____ राजा की चतुराई जाती रही, हे सखी ब्रह्मा की गति कुछ जानी नहीं जाती। यह सुन चतुर सखी मधुर बाणी से बोली___ हे रानी ! तेजधारी लोगों को छोटा नहीं समझना चाहिए।



कहँ कुम्भज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।। रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु त्रिभुवन तम भागा।।___ अर्थ___ कहाँ तो अगस्त्य मुनि और कहाँ अपार समुद्र ! उन्होंने उसे सोख लिया जिससे अब संसार में  उनका सुयश फैल रहा है। सूर्य_मण्डल देखने से छोटा प्रतीत होता है परन्तु उसके उदय होने से त्रिलोक का अन्धकार दूर हो जाता है।



मन्त्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब। महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब।।___ अर्थ___मन्त्र बहुत छोटा होता है परन्तु ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देवता उसके अधीन हैं। महामत्तवाले गजराज को छोटा_सा अंकुश वश में कर लेता है।



काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।। देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजव धनुषु राम सुनु रानी।।___ अर्थ____ कामदेव ने फूलों का ही धनुष लेकर सब भवनों को अपने वश में कर रक्खा है। हे देवी ! ऐसा जानकर संशय छोड़ दो। सुनो, हे रानी ! यह रामजी धनुष को अवश्य तोडेंगे।



सखी बचन सुनी भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।। तब रामहिं बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।___ अर्थ___ सखी के वचन सुन रानी को विश्वास हुआ, दुख दूर हो गया और श्रीरामजी के प्रति बहुत प्रेम बढ़ा। उसी समय रामजी को देखकर सीताजी मन में  जिस किस देवता की विनती करने लगीं।



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