मासपरायण ग्यारहवाँ विश्राम
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।। जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही सुन्दर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेव को लजानेवाली है। महावर से युक्त चरणकमल बड़े सुहावने लगते हैं, जिनपर मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा छाये रहते हैं।
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती।। कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।_अर्थ_पवित्र और मनोहर पीली धोती प्रातःकाल के सूर्य और बिजली की ज्योति को हरे लेती है। कमर में सुंदर किंकिणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओं में सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं।
पीत जनेऊ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।। सोहित ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषण राजे।।_अर्थ_पीला जनेऊ महान् शोभा दे रहा है। हाथ की अंगूठी चित् को चुरा लेती है। ब्याह के सब साज सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौड़ी छाती पर हृदय के पहनने के सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं।
पियर उपरना काखासोती। दुहुँ आचरन्हि लगे मनि मोती।। नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना।।_अर्थ_पीला दुपट्टा काँखासोती ( जनेऊ के तरह ) शोभित हैं, जिसके दोनों छोरों पर मणि और मोती लगे हैं। कमल के समान सुन्दर नेत्र हैं, कानों में सुन्दर कुण्डल हैं और मुख तो सारी सुन्दरता का खजाना ही है।
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा।। सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुतामनि गाथे।।_अर्थ_सुन्दर भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाट पर तिलक तो सुन्दरता का घर ही हे। जिसमें मंगलमय मोती और मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहरमौर माथे पर सोह रहा है।
गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित्त चोरहीं। पुर नारि सुंदर सुंदरीं बरहिं बिलोकि सब तिन तोरहीं। मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं। सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।__अर्थ_सुंदर मौर में बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अंग चित्त को चुराये लेते हैं। सब नगर की स्त्रियाँ और देवसुन्दरियाँ दूलह को देखकर तिनका तोड़ रही हैं ( उनकी बलैयाँ ले रही हैं ) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मंगलगान गा रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं।
कोहबरहिं आने कुअँर कुँअरि सुआसिन्ह सुख पाइ कै। अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।। लहकौरि गौरि सिखाव रामहिं सीय सन सारद कहैं। रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।_ अर्थ_सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियों को कोहबर ( कुलदेवता के स्थान ) में लायीं और अत्यन्त प्रेम से मंगल गीत गा_गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वतीजी श्रीरामचन्द्रजी को लहकौर ( वर_वधू का परस्पर ग्रास देना ) सिखाती हैं और सरस्वतीजी सीताजी को सिखाती हैं। रनिवास हास_विलास के आनन्द में मग्न है, [ श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी को देख_देखकर ] सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर रही हैं।
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सरूपनिधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।। कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं। बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।_अर्थ_अपने हाथ की मणियों में सुन्दर रूप के भण्डार श्रीरामचन्द्रजी की परछाहीं दीख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शन में वियोग होने के भय से बाहुरूपी लताको और दृष्टि को हिलाती डुलाती नहीं हैं। उस समय हँसी खेल और विनोद का आनन्द और प्रेम कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर वर_कन्याओं को सब सुन्दर सखियाँ जनवासे को लिवा चलीं।
तेहि समय सुनि असीस जहँ तहँ नगर नभ आनंदु महा। चिरु जिअहुँ जोरी चारयो मुदित मन सबही कहा।। जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी। चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।_अर्थ_उस समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिये, वहीं आशीर्वाद की ध्वनि सुनायी दे रही हैं और महान् आनन्द छाया है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि सुंदर चारों जोड़ियाँ चिरंजीवी हों। योगीराज, सिद्ध मुनीश्वर और देवताओं ने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को देखकर दुंदुभी बजायी और हर्षित होकर फूलों की वर्षा करते हुए ‘ जय हो, जय हो, जय हो’ कहते हुए वे अपने अपने लोक को चले।
सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास। सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।_ अर्थ_ तब ( चारों कुमार ) बहुओं सहित पिताजी के पास आये। ऐसा मालूम होता था कि शोभा, मंगल और आनन्द से भरकर जनवासा उमड़ पड़ा।
पुनि जेवनार भई बहु भाँति। पठए जनक बोलाइ बराती।। परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।_अर्थ_फिर बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बरातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने पुत्रोंसहित गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवड़े पड़ते जाते हैं।
सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।। धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहीं बरना।।_अर्थ_आदर के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी के चरण धोये। उनका शील और सनेह वर्णन नहीं किया जा सकता।
बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।। तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।_अर्थ_ फिर श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्रीशिवजी के हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्रीरामचन्द्रजी के ही समान जानकर जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोए।
आसन उचित सबहिं नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।। सादर लगे परन जेवनारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।_अर्थ_राजा जनकजी ने सभी को उचित आसन दिये और सब परसनेवालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पड़ने लगीं, जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनायी गयी थीं।
सूपोदन सरभि सरपि सुंदर स्वादु पुनीत। छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत।।_चतुर और विनीत रसोइये सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल_भात और जायका [ सुगन्धित ] घी क्षणभर में सबके सामने परस गये।
पंच कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।। भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने।।_अर्थ_सबलोग पंचकौर करके ( अर्थात्’ प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा’ इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर ) भोजन करने लगे। गाली का गाना सुनकर वे अत्यन्त प्रेममग्न हो गये। अनेकों तरह के अमृत के समान ( स्वादिष्ट ) पकवान परसे गये, जिनका बखान नहीं हो सकता।
परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।। चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई।।_अर्थ_चतुर रसोइये नाना प्रकार के व्यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकार के ( चव्यर्, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात् चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीकर खानेयोग्य ) भोजन की विधि कही गयी है, उनमें से एक_एक विधि के इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित बहु भाँति।। जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।_अर्थ_ छहों रसों के बहुत तरह के सुंदर ( स्वादिष्ट ) व्यंजन हैं। एक_एक रस के अनगिनती प्रकार के बने हैं। भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले_लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से गाली दे रही हैं ( गाली गा रही हैं )।
समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।। एहि बिधि सबहिं भोजन कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।_अर्थ_समय की सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाजसहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं। इस रीति से सभी ने भोजन किया और तब सबको आदरसहित आचमन ( हाथ_मुँह धोने के लिये जल ) दिया गया।
देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज। जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज।।_अर्थ_फिर पान देकर जनकजी ने समाजसहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर ( चक्रवर्ती ) श्रीदशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले।
नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।। बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।_अर्थ_जनकपुर में नित्य नये मंगल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सवेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुणसमूह का गान करने लगे।
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।। प्रातक्रिया करि गे गुर पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।_अर्थ_चारों कुमारों को सुन्दर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है ? वे प्रातःक्रिया करके गुरु वसिष्ठजी के पास गये। उनके मन में महा आनन्द और प्रेम भरा है।
करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।। तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आज मैं पूरन कामा।।_अर्थ_राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृत में डुबोयी हुई वाणी बोले_हे मुनिराज ! सुनिये, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया।
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं।। सुनि गुर कर महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनिबृंद बोलाई।।_अर्थ_ हे स्वामिन् ! अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह ( गहनों_कपड़ों ) से सजी हुई गायें दीजिये। यह सुनकर गुरुजी ने राजा की बड़ाई करके फिर मुनिगणों को बुलवा भेजा।
बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि। आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।_अर्थ_तब बामदेव, देवर्षि नारद, बाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियों के समूह आये।
दंड प्रणाम सबहिं नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।। चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं।।__अर्थ_राजा ने सबको दण्डवत् प्रणाम किया और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिये। चार लाख उत्तम गायें मँगवायीं, जो कामधेनु के समान अच्छे स्वभाववाली और सुहावनी थीं।
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महीप महीदेवन्ह दीन्हीं।। करत बिनय बहुबिधि नरनाहू। लहेऊँ आजु जगजीवन लाहू।।_अर्थ_उन सबको सब प्रकार से [ गहनों_कपड़ों से ] से सजाकर राजा प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणों को दिया। राजा बहुत तरह से विनती कर रहे हैं कि जगत् में मैंने आज ही जीने का लाभ पाया।
पाइ असीस महीस अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।। कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रविकुलनंदन।।_अर्थ_[ ब्राह्मणों से ] आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुए। फिर याचकों के समूह को बुला लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ ( जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुल को आऩंदित करनेवाले दशरथजी ने दिये।
चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकरकुलनाथा।। एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।_अर्थ_वे सब गुणानुवाद गाते और ‘सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो, कहते हुए चले। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के विवाह का उत्सव हुआ। जिन्हें सहस्त्र मुख हैं वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ। यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।_अर्थ_बार बार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं_हे मुनिराज ! यह सब आपके ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है।
जनक सनेह सील करतूती। नृप सब भाँति सराह विभूती।। दिन उठि विदा अवधपति मागा। राखहिं जनक सहित अनुरागा।।_अर्थ_राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह सील करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन ( सवेरे ) उठकर अयोध्यानरेश विदा माँगते हैं। पर जमकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं।
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।। नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू।।_अर्थ_आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित नया आनंद और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता।
बहुत दिवस बीते एहि भाँति। जनु सनेह रजु बँधे बराती।। कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहिं समुझाई।।_अर्थ_इस प्रकार बहुत दिन बीत गये, मानो बराती स्नेह की रस्सी से बँध गये हैं। तब विश्वामित्रजी और सतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा__
अब दशरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू।। भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए।।_अर्थ_यद्यपि आप स्नेह [ वश उन्हें ] नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिये। ‘हे नाथ, बहुत अच्छा’ कहकर जनकजी ने मंत्रियों को बुलवाया। वे आये और ‘जय जीव’ कहकर उन्होंने मस्तक नवाया।
अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ। भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।_अर्थ_[जनकजी ने कहा_] अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर ( रनिवास में ) खबर कर दो। यह सुनकर मंत्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गये।
पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।। सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।_अर्थ_जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जायगी, तब वे व्याकुल होकर एक_दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गये मानो संध्या के समय कमल सकुचा गये हों।
जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।। बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।_अर्थ_आते समय जहाँ_जहाँ बराती ठहरे थे, वहाँ_वहाँ बहुत प्रकार का सीधा ( रसोई का सामान ) भेजा गया। अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती_
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