चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।। तिन्ह पर कुअंरि कुअंर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे।।_अर्थ_स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने अपने हाथ से बनाये थे। उनपर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोये।
धूप दीप नैबेद बेदबिधि। पूजे बर दुलहिनी मंगलनिधि।। बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढ़रहीं।।_अर्थ_ फिर वेद की विधि के अनुसार मंगलों के निधान दूलह और दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएं बारंबार आरती कर रही हैं और वर_वधूओं के सिरों पर सुन्दर पंखे तथा चंवर ढल रहे हैं।
बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरी प्रमोद मातु सब सोहीं।। पावा परम तत्व तनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं।।_अर्थ_अनेकों वस्तुएं निछावर हो रही हैं; सभी माताएं आनंद से भरी हुईं ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया।
परम रंक जनु पारस पावा। अंधहिं लोचन लाभु सुहावा।। मूक बदन तनु सारद छाई। मानहुं समर सूर जय पाई।।_अर्थ_जन्म का दरिद्रि मानो पारस पा गया। अंधे को सुंदर नेत्रों का लाभ हुआ। गूंगे के मुख में मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली।
एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु। भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।_अर्थ_इन सुखों से भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएं पा रही हैं। क्योंकि रघुकुल के चन्द्रमा श्रीरामजी विवाह करके भाइयों सहित घर आये हैं।
लोक रीति जननि करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं। मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ राम मनहिं मुसुकाहिं।।_अर्थ_ माताएं लोकरीति करती हैं और दूलह_दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान् आनंद और विनोद को देखकर श्रीरामजी मन_ही_मन मुस्करा रहे हैं।
देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।। सबहि बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।_अर्थ_मन की सभी वासनाएं पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भली-भांति पूजन किया सबकी वन्दना करके माताएं यही वरदान मांगती हैं कि भाइयों सहित श्रीरामजी का कल्याण हो।
अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं।। भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।_अर्थ_देवता छिपे हुए ( अन्तरिक्ष से ) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएं आनन्दित हो आंचल भरकर ले रही हैं। तदनन्तर राजा ने बरातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियां, वस्त्र, मणि ( रत्न ) और आभूषणादि दिये।
आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहिं।। पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन सकल बनाए।।_अर्थ_आज्ञा पाकर, श्रीरामजी को हृदय में रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने घर गये। नगर के समस्त स्त्री_पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाये। घर_घर बनावे बजने लगे।
जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।। सेवक सकल बजनिया नाना। पूरन किए दान सनमाना।।_अर्थ_याचक लोग जो जो मांगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही_वही देते हैं। संपूर्ण सेवकों और बाजेवालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से संतुष्ट किया।
देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ। तब गुर भूसुर सहित गृह गवनु कीन्ह नरनाथ।।_अर्थ_सब जोहार ( वन्दन ) करके आशिष देते हैं और गुणसमूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया।
जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।। भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठी भाग्य बर जानी।।_अर्थ_वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देख कर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियां आदर के साथ उठीं।
पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजी बहुविधि भूप जेवांए।। आदर दान प्रेम परितोषे। देत असीस चले मन तोषे।।_अर्थ_ चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भली_भांति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर, दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे संतुष्ट मन से आशीर्वाद दे ते हुए चले।
बहुबिधि कीन्ह गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।। कीन्हि प्रशंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्ही पग धूरी।।_अर्थ_राजा ने गाधिपुत्र विश्वामित्र जी की बहुत तरह से पूजा की और कहा_हे नाथ ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया।
भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासु।। पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्ह बिनती उर प्रीति न थोरी।।_अर्थ_उन्हें महल के भीतर ठहरने का उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे ( अर्थात् जिसमें राजा और महल की सारी रानियां स्वयं उनके इच्छानुसार उनके राम की ओर दृष्टि रख सकें ), फिर राजा गुरु वसिष्ठ जी के चरण कमलों की पूजा की और विनती की। उनके हृदय में प्रीति कम न थी ( अर्थात् बहुत प्रीति थी।)
बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीसु महीसु।।_अर्थ_बहुओंसहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार गुरुजी के चरणों की वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं।
बिनय कीन्ह उर अति अनुरागें। सुख संपदा राखि सब आगें।। नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा।। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।_अर्थ_राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने आकर ( उसे स्वीकार करने के लिये ) विनती की। परन्तु मुनिराज ने ( पुरोहित के नाते ) केवल अपना नेग मांग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया।
उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।। बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराई।।_अर्थ_फिर सीताजी सहित श्रीरामजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठ जी हर्षित होकर अपने स्थान को गये। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाये।
बहुरि बोलाइ सुवासिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्ही।। नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं।।_अर्थ_फिर सब सुआसिनिओं को ( नगरभर की सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदि को ) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर ( उसी के अनुसार ) उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग अपना-अपना नेग_जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं।
प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भांति सनमाने।। देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरसि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।_अर्थ_ जिन मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उसका राजा ने भली_भांति सम्मान किया। देवगण श्रीरघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए_।
चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ। कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदय समाइ।।_अर्थ_नगाड़े बजाकर और ( परम) सुख प्राप्त कर अपने_अपने लोकों को चले। वे एक_दूसरे से श्रीरामजी का यश कहते जाते हैं। हृदय में प्रेम समाता नहीं है।
सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयं भरि पूरि उछाहू।। जहं रनिवास तहां पंगु धारे। सहित बधूटिन्ह कुंअर निहारे।।_अर्थ_सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भांति आदर_सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह ( आनन्द ) भर गया। जहां रनिवास था, वे वहां पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा।
लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु देता।। बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियं हरषि दुलारीं।।_अर्थ_राजा ने आनन्द सहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है ? फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर, बार बार हृदय में हर्षित उन्होंने उनका दुलार ( लाड़ चाव ) किया।
देखि समाजु मुदित रनिवासू। सबकें उर आनंद कियो बासू।। कहेउ भूप जिमि भयऊ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू।।_अर्थ_यह समाज ( समारोह ) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनंद ने निवास कर लिया। तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सबको हर्ष होता है।
जनक राज गुन सील बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।। बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।_अर्थ_राजा जनक के गुण, शील, महत्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी की करनी सुनकर सब रानियां बहुत प्रसन्न हुईं।
सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति। भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।_अर्थ_पुत्रोंसहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किये। ( यह सब करते करते पांच घड़ी रात बीत गयी।
मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुख मूल मनोहर जामिनि। अंचइ पान सब काहू पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।_अर्थ_सुंदर स्त्रियां मंगलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गयी। सबने आचमन करके पान खाये और फूलों की माला, सुगंधित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गये।
रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।। प्रेम प्रमोदु बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब आज्ञा पाकर अपने_अपने घर को चले। वहां के प्रेम, विनोद, आनंद, महत्व, समय, समाज और मनोहरता को___।
कहि न सकहिं सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।। सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरि कि धरनी।।_अर्थ_सैकड़ों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, शिव और गणेश भी जिसका वर्णन नहीं कर सकते, उसका वर्णन मैं कैसे कर सकता? कहीं केंचुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है ?
नृप सब भांति सबहिं सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी।। बधू लरिकनी पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाईं।।_अर्थ_राजा ने सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा_बहुएं अभी बच्ची हैं, पराये घर से आयी हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं ( जैसे पलकें नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुंचाती हैं वैसे ही इन्हें सुख पहुंचाना।)
लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ। अब कहि गे विश्रामगृहं राम चरन चितु लाइ।।_अर्थ_ लड़के थके हुए नींद के वश हो रहे, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन चले गये।
भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलंग डसाए।। सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपोतीं नाना।।_अर्थ_राजा के स्वभाव से ही सुन्दर वचन सुनकर ( रानियों ने ) मणियों से जुड़े सुवर्ण के पलंग बिछवाये। ( गद्दों पर ) गौ के दूध के फेन के समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछायीं।
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनि मंदिर माहीं।। रतनदीप सुनि चारु चंदोवा। कहत न बनइ जान जेहि जोवा ।।_अर्थ_सुन्दर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मन्दिर में फूलों की मालाएं और सुगंध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नों के दीपकों और सुन्दर चंदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो वही जान सकता है।
सेज रुचिर रचित रामु उठाए। प्रेम सहित पलंग पौढ़ाए।। अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयध तिन्ह कीन्ही।।_अर्थ_इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर ( माताओं ने ) श्रीरामचन्द्र जी को उठाया और प्रेम सहित पलंग पर पौढ़ाया। श्रीरामजी ने बार बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी अपनी शय्याओं पर सो गये।
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