Sunday, 28 March 2021

बालकाण्ड

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा।। तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।_अनगिनत बैलों और कहारों पर भर_भरकर ( लाद_लादकर ) भेजी गयी। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुंदर शय्याएँ ( पलँग ) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तह ( ऊपर से नीचे तक ) सजाये हुए,





मत्त सहस दस सिंधु साजे। जिन्हहिं देखि दिसिकुंजर लाजे।। कनक बसन  मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।_अर्थ_दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियों में भर_भरकर सोना, वस्त्र और रत्न ( जवाहिरात ) और भैंस, गाय तथा नाना प्रकार की चीजें दी।





दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि। जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।_अर्थ_[ इस प्रकार]  जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की संपदा भी थोड़ी जान पड़ती थी।





सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई। चलिहिं बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानी।।_अर्थ_इस प्रकार सब समान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गयीं, मानो थोड़े जल में मछलियाँ छटपटा रही हों।





पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।। होएहु संतत पियहि पियारी। चिरु अहिवात असीस हमारी।।_अर्थ_वे बार बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं_ तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशिष है।





सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।। अति सनेह बस सखी सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।_अर्थ_सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं।





सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाईं।। बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।_अर्थ_आदर के साथ सब पत्रियों को [ स्त्रियों के धर्म ] समझाकर रानियों ने बार_बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों रचा।





तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानुकुल केतु। चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।_अर्थ_उसी समय सूर्यवंश के पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिये जनकजी के महल को चले।





चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।। कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।_अर्थ_स्वभाव से ही सुन्दर चारों भाइयों को देखने के लिये नगर के स्त्री पुरुष दौड़े। कोई कहता है_ आज ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है।





लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।। को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।_अर्थ_राजा के चारों पुत्र,  इन प्यारे मेहमानों के [ मनोहर रूप को ] नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी ! कौन जाने, किस पुण्य से बिधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि बनाया है।





मरनशीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।। पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें।।_अर्थ_मरनेवाला जिस तरह अमृत पा जाय, जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाय और नरक में रहनेवाला ( या नरक के योग्य ) जीव जैसे भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाय, हमारे लिये इनके दर्शन वैसे ही हैं।





निरखि राम शोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।। एहि बिधि सबहिं नयन फलु देता। गए कुअँर सब राजनिकेता।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी की शोभा को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गये।





रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु। करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।_अर्थ_रूप के समुद्र सब भाइयो को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान् प्रसन्न मन से निछावर और आरती करती हैं।





देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेम बिबस पुनि पुनि पद लागीं।। रही न लाज प्रीति उर छाईं। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्जी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गयीं और प्रेम के वश होकर बार_बार चरणों लगीं। हृदय में प्रीति छा गयी, इससे लज्जा नहीं रह गयी। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है।





भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।  बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।_अर्थ_ उन्होंने भाइयोंसहित श्रीरामजी को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से षटरस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्रीराचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी बाणी बोले_





राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।। मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।_अर्थ_महाराज अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के लिये यहाँ भेजा है। हे माता ! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिये और हमें अपना बालक जानकर सदा स्नेह बनाये रखियेगा।





सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।। हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।_अर्थ_इन वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंवे सब कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की।





करि बिनय सीय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै। बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।। परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।। तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।_अर्थ_विनती करके उन्होंने सीताजी को श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार_बार कहा_ हे तात् !  हे सुजान ! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति ( हाल ) मालूम है। परिवार को, पुरवासियों को, मुझको  और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसी के स्वामी ! इसके सील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा।






तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोष दलन करुणायतन।।_अर्थ_तुम पूर्णकाम हो, सुजानशिरोमणि हो और भावप्रिय हो ( तुम्हें प्रेम प्यारा है )। हे राम ! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करनेवाले, दोषों को नाश करनेवाले और दया के धाम हो।





अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।। सुनि सनेह सानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।_अर्थ_ऐसा कहकर रानी चरणों को पकड़कर [ चुप ] रह गयीं। मानो उनकी वाणी प्रेमरुपी दलदल में समा गयी हों। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया।





राम विदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रणाम बहोरि बहोरि।। पाइ असीस बहुरि सिर नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार_बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयोंसहित श्रीरघुनाथजी चले।





मंजु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी।। पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेंटहिं महतारी।।_अर्थ_ श्रीरामजी की सुन्दर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गयीं। फिर धीरज धारण कर कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें ( गले लगाकर ) भेंटने लगीं।





पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।। पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।_अर्थ_पुत्रियों को पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्पर में कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी ( अर्थात् बहुत प्रीति बढ़ी )। बार_बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल की ब्यायी हुई गाय को कोई उसके बालक बछड़े [ या बछिया ] से अलग कर दे।





प्रेम बिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु। मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवास।।_अर्थ_सब स्त्री_पुरुष और सखियोंसहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। [ ऐसा लगता है ] मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है।





सुक सारिका जानकीं ज्याए। कनक पिंजनन्हि राखि पठाए।। ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ  न केही।।_अर्थ_ जानकीजी ने जिन तोता और मैना को पाल_पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था। उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा ( अर्थात् सबका धैर्य जाता रहा )।





भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसे कहि जाती।। बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।_अर्थ_जब पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गये, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती। तब भाइसहित जनकजी वहाँ आये। प्रेम से उमड़कर उनके नेत्रों में [ प्रेमाश्रुओं का ] जल भर आया।






सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।। लीन्ह रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।_अर्थ_वे परम वैराग्यवान् कहलाते थे; पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। [ प्रेम के प्रभाव से ] ज्ञान की महान् मर्यादा मिट गयी ( ज्ञान का बाँध टूट गया )।





समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।। बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं।।__अर्थ_सब बुद्धमान मंत्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया। बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवायी।





प्रेम बिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस। कुअँरि चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।_अर्थ_ सारा परिवार प्रेम  विवस है। राजा ने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया।






बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुल रीति सिखाई।। दासीं दास दिये बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।_अर्थ_राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति सिखायीं। बहुत से दास_दासी दिये, जो सीताजी के प्रिय और विश्वासपात्र सेवक थे।





सीय चलत व्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।। भुसूर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।_अर्थ_सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मंत्रियों के समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिये साथ चले।





समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।। दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।_अर्थ_समय देखकर बाजे बजने लगे। बरातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया।





चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।। सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।_अर्थ_उनके चरणकमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशिष पाकर राजा आनंदित हुए और गणेशजी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मंगलों के मूल अनेकों शकुन हुए।





सुर प्रसून बरसहिं हरषि करहिं अपछरा गान।। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।_अर्थ_देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर अयोध्यापुरी को चले।





नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।। भूषन बसन बाजि गज दीन्हे।।_अर्थ_राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मंगनों को बुलाया। उनको गहने_कपड़े, घोडे_हाथी और प्रेम से पुष्ट करके सबको संपन्न अर्थात् बलयुक्त कर दिया।





बार-बार बिरिदावली भाषी। फिरे सकल रामहिं उर राखी।। बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनक प्रेम बस फिरै न चहहीं।।-अर्थ-वे बारंबार विरुदावली ‌‌बखानकर और श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में रखकर लौटे। कोसलाधीस दशरथजी बार-बार लौटने को कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते।





पुनि कह भूपति बचने सुहाए। फिरिय महीप दूरि बड़ि आए।। राउ बहोरि उतरि भए काढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन साढ़े।।-अर्थ-दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे-हे राजन् ! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथ जी रथ  से उतरकर खड़े हो गये उनके नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ गया।






‌तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधा तनु बोरी।। करौं कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्ह बड़ाई।।_अर्थ_तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेह रूपी अमृत में डुबोकर बचन बोले_मैं किस तरह बनाकर ( किन शब्दों में ) विनती करूं। हे महाराज ! आपने मुझे बड़ाई दी है।





कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भांति। मिलनि परस्पर बिनय अति प्रीति न हृदय समाति।।-अर्थ-अयोध्यानाथ दशरथ जी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी।





मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहिं सन पावा।। सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।-अर्थ-जनकजी ने मुनिमंडली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों---अपने दामादों से मिले।





जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन
 प्रेम जनु जाए।। राम करौं केहि भांति प्रशंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।-अर्थ-और सुन्दर कमल के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों। हे रामजी ! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूं ! आप मुनियों और महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस हैं। 





करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मधु त्यागी।। ब्यापकु ब्रह्म अलखु अबिनासी। चिदानन्दु निरगुन गुन रासी।।_अर्थ_जोगी लोग जिनके लिये क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योग-साधन करते हैं, जो सर्वव्यापक ब्रह्म अव्यक्त, अविनाशी, चिदानन्द, निर्गुण और गुणों की राशी हैं,।।




मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सहहिं सकल अनुमानी।। महिमा निगमु नेति कहि कहई।। जो तिहुं काल एकरस रहई।।_अर्थ_जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्क नहीं  कर सकते; जिनकी महिमा को वेद ,’नेति’  कहकर वर्णन करता है और जो ( सच्चिदानन्द ) तीनों कालों में एकरस ( सर्वथा निर्विकार ) रहते हैं।




नयन बिषय मो कहुं भयउ हो समस्त सुख मूल। सबइ राहु जग जीव कहीं भएं ईसु अनुकूल।।_अर्थ_वे ही समस्त सुखों के मूल ( आप ) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत् में जीव को लाभ_ही_लाभ है।





सबहि भांति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।। होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कल्प कोटिक हरि लेखा।।_अर्थ_आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पों तक गणना करते रहें।




मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहिए न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।। मैं कछु कहउं एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु स्नेह सुठि थोरे।।_अर्थ_तो भी हे रघुनाथजी ! सुनिये, मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह अपने  इस एक ही बल पर कि आप अत्यन्त थोड़े प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं।





बार बार मागउं कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।। सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।_अर्थ_मैं हाथ जोड़कर बार_बार हाथ जोड़कर यह मांगता हूं कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोड़े। जनकजी के श्रेष्ठ बचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किये हुए थे, पूर्णकाम श्रीरामचन्द्रजी संतुष्ट हुए।





करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ करि जाने।। बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेम मुनि आसिष दीन्ही।_अर्थ_ उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथ जी, गुरु विश्वामित्र जी और कुलगुरु वशिष्ठ जी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया।




मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्ह असीस महीस। भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।_अर्थ_फिर राजा ने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर बार_बार आपस में सिर नवाने लगे।





बार-बार करि बिनती बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।। जनक गहे कौसिक पद जाई।चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।_अर्थ_जनकजी की बार_बार विनती और बड़ाई करके श्रीरघुनाथजी सब भाईयों के साथ चले। जनक जी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिये और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्र में लगाया।





सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।। जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहिं।।_अर्थ_(उन्होंने कहा_ ) हे मुनीश्वर ! सुनिये, आपके सुन्दर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं; परन्तु ( असंभव समझकर ) जिसका  मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं।





जो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।। कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।_अर्थ_हे स्वामी ! वहीं सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियां आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात् पीछे-पीछे चलने वाली है। इस प्रकार बार_बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे।





चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।। रामहिं निरखि ग्राम नर नारी। पाई नयन बलु होहिं सुखारी।।_अर्थ_डंका बजाकर बरात चली। छोटे_बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं ( रास्ते के ) गांवों के स्त्री_पुरुष श्रीरामचन्द्र जी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं।





बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत। अवध समीप पुनीत दिन पहुंची आई जनेत।।_अर्थ_बीच बीच में सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बरात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ गई।




होन निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।। झांझि बिरव डिंडिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।_नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं; सुन्दर ढ़ोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है; हाथी घोड़े गरज रहे हैं।
विशेष शब्द करने वाली झांझें, सुहावनी डालियां तथा रसीले राग से शहनाइयां बज रही हैं।





पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।। निज निज सुंदर सदन संवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।_अर्थ_बरात को आती हुई सुनकर नगरवासी प्रसन्न हो गये। सबके शरीरों पर पुलकावली छा गयी। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया।





गलीं  सकल अरगजां सिंचाई। जहं तहं चौके चारु पुराईं।। बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।_अर्थ_सारी गलियां अरगजे से सिंचायी गयीं, जहां_तहां सुन्दर चौक पुराने गये। तोरणों, ध्वजा_पताकाओं और मण्डपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।





सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।। लगे सुभग तरु परसत धरनीं। मनिमय आलबाल कल करनी।।_अर्थ_फलसहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाये गये। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष ( फलों के भार से ) पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के ताले बड़ी सुन्दर कारीगरी से बनाये गये हैं।





बिबिध भांति मंगल कलश गृह गृह रचे संवारि। सुर ब्रह्मादि बिसाहिन सब रघुबर पुरी निहारि।।_अर्थ_अनेक प्रकार के मंगल_कलश घर_घर सजाकर बनाये गये हैं। श्रीरघुनाथजी की पुरी ( अयोध्या ) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते है।





भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।। मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।_अर्थ_उस समय राजमहल ( अत्यन्त ) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव का भी मन मोहित हो जाता था। शकुन, मनोहरता, ऋद्धि_सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति।





तनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृह छाए।। देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।_अर्थ_और सब प्रकार के उत्साह ( आनन्द ) मानो सहज सुन्दर शरीर धर_धरकर दशरथ जी के घर में छा गये हैं। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिये भला कहिये, किसे लालसा न होगी।





जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि।। सकल सुमंगल बजें आरती। गावहिं तनु बहु बेस भारती।।_अर्थ_सुहागिनी स्त्रियां झुंड_की_झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मंगलमय द्रव्य एवं आरती सजाये हुए गा रही हों।





भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।। कौसल्यादि राम महतारी। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।_ अर्थ_राजमहल में ( आनन्द के मारे ) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता कौशल्याजी आदि श्रीरामचन्द्रजी की सब माताएं प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गयीं।





दिए दान  बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि। प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाई पदारथ चारि।।_अर्थ_गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत_सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं मानो अत्यन्त दरिद्र चारों पदार्थ पाए गया हो।





मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।। राम दरस हित अति अनुरागीं। परिजन साजु सजन सब लागीं।।_अर्थ_सुख और महान् आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गये हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनों के लिये वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सामान सजाने लगीं।





बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्रां साजे।। हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।_अर्थ_अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनन्दपूर्वक मंगल साज सजाये। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल वस्तुएं।





अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।। तुम्हें पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन तनु नीर बनाए।।_अर्थ_तथा अक्षत ( चावल ), अंखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुन्दर मंजरियां सुशोभित हैं। नाना रंगों से चित्रित किये हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाते हों।





सगुन सुगंध न जाहीं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।। रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।_अर्थ_शकुन की सुगंधित वस्तुएं बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियां संपूर्ण मंगल साज सज रही हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुन्दर मंगलगान कर रही हैं।




कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएं मात। चलीं मुदित परिछनि करन पुलक प्रफुल्लित गाता।।_अर्थ_सोने के थालों को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान ( कोमल ) हाथों में लिये हुए माताएं आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गये हैं।





धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु तनु ठयऊ।। सुरतरु सुमन माल सुर बरसहिं। मनहुं बलाक अवलि मनु करषहिं।।_अर्थ_धूप के धुएं से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़_घुमड़कर  छा गये हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएं बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती जहै मानो बगुलों की पांति मन को ( अपनी ओर ) खींच रही हो।





मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुं पाकरिपु चाप संवारे।। प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।_अर्थ_सुंदर मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं मानो इन्द्रधनुष सजाये हों। अटारियों पर सुन्दर और चपल स्त्रियां प्रकट होती है और छिप जाती हैं ( आती_जाती हैं ); वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो बिजलियां चमक रही हों।





दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।। सुर सुगंध सुचि बरसहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।_अर्थ_नगाडों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेढ़क और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्ध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री_पुरुष सुखी हो रहे हैं।





समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रवेस रघुकुलमनि कीन्हां।। सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा। मुदित  महीपति सहित समाजा।।_अर्थ_( प्रवेश का समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने  शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाजसहित आनंदित होकर नगर में प्रवेश किया।






होहिं सगुन बरसहिं सुमन सुर दुंदुभि बजाइ। बिबुध बंधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।_अर्थ_शकुन हो रहे हैं, देवता दुंदुभि बजा_बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियां आनंदित होकर सुन्दर मंगलगीत गा_गाकर  नाच रही हैं।





मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।। जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।_अर्थ_मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर ( सबको प्रकाश देनेवाले, परम प्रकाश स्वरूप ) श्रीरामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जयध्वनि तथा निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनायी पड़ रही है।





बिपुल बाजने साजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।। बने बराति बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।_अर्थ_बहुत से बाजे बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मगन हैं। बराती ऐसे बने_ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनंदित हैं, सुख उनके मन में समाता ही नहीं है।





पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहिं भए सुखारे।। करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।_अर्थ_तब अयोध्यावासियों ने राजा को जोहार ( वन्दना )की। श्रीरामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गये। सब मणियां और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भरा है और शरीर पुलकित हो रहा है।





आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखहिं कुअंर बर चारी।। सिबिका सुभग ओहार उतारी। दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।_अर्थ_नगर की स्त्रियां आनंदित होकर आरती कर रही है और सुन्दर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर पर्दे हटा_हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं।





एहि बिधि सबही देते सुखु आए राजदुआर। मुदित मातु परिछन करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।_अर्थ_इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आये। माताएं आनन्दित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं।





करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।। भूषण मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भांती।।_अर्थ_वे बार_बार आरती कर रही है। उस प्रेम और महान् आनंद को कौन कह सकता है ! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगनित प्रकार की अन्य वस्तुएं निछावर कर रही है।





बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी।। पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन देखी।।_अर्थ_बहुओंसहित चारों पुत्रों को देखकर माताएं परमानन्द में मगन हो गयीं। सीताजी और श्रीरामजी की छबि को बार_बार देखकर वे जगत् में अपने जीवन को सफल मानकर आनंदित हो रही हैं।





सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं नित सुकृति सराही।। बरसहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।_अर्थ_सखियां सीताजी के मुख को बार बार देखकर अपने पुत्रों की सराहना करते हुए गान कर रही हैं। देवता क्षण_क्षण में फूल बरसाते, नाचते गाते तथा अपनी_अपनी सेवा_ समर्पण करते हैं।





देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढ़ंढ़ोरीं।। देत न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।_अर्थ_चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला; पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्रीरामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गयीं।






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