Monday, 11 October 2021

अयोध्याकाण्ड

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।। पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।_अर्थ_मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुन्दर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है ? ( उनसे ) श्रीरामचन्द्रजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसका हृदय जल उठा।





करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होई अकाजु कवनि बिधि राती।। देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवां तकइ केहि भांति।।_अर्थ_वह दुर्बुद्धि नीच जातिवाली दासी  विचार करने लगी किस प्रकार से यह काम रात_ही_रात में बिगड़ जाय, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूं।





भरत मातु पहिं गई बिलखानी। का अनमनि हसि कह हंसी रानी।। ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढ़ारइ आंसू।।_अर्थ_वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेई के पास गयी। रानी कैकेयी ने कहा_तू उदास क्यों है ? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी सांस ले रही है और त्रियाचरित्र करके आंसू ढ़रका रही है।





हंसि कह रानि गालु बड़ तोरे । दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।। तबहुं न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कालि जनु सांपिनि।।_अर्थ_रानी हंसकर कहने लगी कि तेरे बड़े गाल हैं ( तू बहुत बढ़_बढ़कर बोलने वाली है )। मेरा मन कहता है कि लक्ष्मण ने तुझे कुछ सीख दी है ( दण्ड दिया है ) । तब भी महापापिनी दासी कुछ नहीं बोलती। ऐसी लम्बी सांसे छोड़ रही है मानो काली नागिन ( फुफकार छोड़ रही ) हो।





सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपाल। लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।_अर्थ_तब रानी ने डरकर कहा_अरी ! कहती क्यों नहीं ? श्रीरामचन्द्र, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशल से तो हैं ? यह सुनकर कुबरी मंथरा के हृदय में बड़ी ही पीड़ा हुई।






कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।। रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।_अर्थ_( वह कहने लगी_) हे माई ! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूंगी ( बढ़_बढ़कर बोलूंगी ) । रामचन्द्र को छोड़कर आज और किसकी कुशल है, जिन्हें राजा युवराज पद दे रहे हैं।





भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।। देखहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।_अर्थ_आज कौशल्या को विधाता बहुत ही दाहिने ( अनुकूल ) हुए हैं; यह देखकर उनके हृदय में गर्व समाता नहीं। तुम स्वयं जाकर सब शोभा देख क्यों नहीं लेतीं, जिसे देखकर मेरे मन में क्षोभ हुआ है।





पूतु बिदेस न सोच तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।। नींद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।_अर्थ_ तुम्हारा पुत्र परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि स्वामी हमारे वश में हैं। तुम्हें तो तोशक_पलंग पर पड़े_पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखती।





सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहुं अरगानी।। पुनि अस कबहुंक कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउं तोरी।।_अर्थ_मंथरा के प्रिय वचन सुनकर किन्तु उसको मन की मैली जानकर रानी झुककर ( डांटकर ) बोली_बस, अब चुप रह घरफोड़ी कहीं की ! जो फिर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर निकलवा दूंगी।





काने खोरे कूबरे कुटिल कुचालि जानि। तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।_अर्थ_कानों, लंगड़ों और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिये। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी ! इतना कहकर भरत की माता कैकेयीजी मुस्करा दीं।






प्रियबादिनि सिख दीन्हिउं तोही। सपनेहुं तो पर कोप न मोही।। सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।_अर्थ_( और फिर बोलीं_) हे प्रिय वचन कहनेवाली मंथरा ! मैंने तुझको यह सीख दी है ( शिक्षा के लिये इतनी बात कही है )। मुझे तुझपर स्वप्न में भी क्रोध नहीं है। सुन्दर मंगलदायक शुभ दिन वही होगा जिस दिन तेरा कहना सत्य होगा ( अर्थात् श्रीराम का राज्यतिलक होगा )।





जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।। राम तिलक जौं सांचेहुं काली। देहु मागु मन भावत  आली।।_अर्थ_बड़ा भाई स्वामि और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की सुहावनी रीति ही है। यदि सचमुच कल ही श्रीराम का तिलक है, तो हे सखी ! तेरे मन को अच्छी लगे वहीं वस्तु मांग ले, मैं दूंगी।





कौशल्या सम सब महतारी। रामहिं सहज सुभाय पिआरी।। मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।_अर्थ_राम को सहज स्वभाव से सब माताएं कौशल्या के समान ही प्यारी हैं। मुझपर तो वे विशेष प्रेम करते हैं। मैंने उनकी प्रीति की परीक्षा करके देख ली है।





जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुं राम सिय पूत पुतोहू।। प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह के तिलक छोभु कस तोरें।।_अर्थ_यदि विधाता कृपा करके जन्म दें तो ( यह भी दें कि ) श्रीरामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्रीराम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके तिलक से ( उनके तिलक की बात सुनकर ) तुझे क्षोभ कैसा ?





भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ। हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।_अर्थ_तुझे भरत की सौगंध है, छल_कपट छोड़कर सच_सच कह। तू हर्ष के समय विषाद कर रही है, इसका कारण सुना।





एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।। फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रौरेहु लागा।।_अर्थ_( मन्थरा ने कहा_) सारी आशाएं तो एक ही बार कहने में पूरी हो गयी। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूंगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़ने के ही योग्य है, जो अच्छी बात कहने पर भी आपको दु:ख होता है।





कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ये तुम्हहि करुइ मैं माई।। हमहुं कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिन राती।।_अर्थ_जो झूठी सच्ची बातें बनाकर कहते हैं, हे माई ! वे ही तुम्हें प्रिय हैं और और मैं कड़वी लगती हूं ! अब मैं भी ठकुरसुहाती ( मुंहदेखी ) कहा करूंगी। नहीं तो दिन रात चुप रहूंगी।





करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनि लहिअ जो दीन्हा।। कोऊ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।_अर्थ_विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परबस कर दिया ! ( दूसरे को क्या दोष ) जो बोया सो काटती हूं, दिया सो पाती हूं। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है ? दासी छोड़कर क्या अब मैं रानी होउंगी ! ( अर्थात् रानी तो होने से रही )।





जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।। तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।_अर्थ_हमारा स्वभाव तो जलाने ही योग्य है। क्योंकि तुम्हारा अहित मुझसे देखा नहीं जाता। इसीलिये कुछ बात चलायी थी। किन्तु हे देवी ! हमारी बड़ी भूल हुई, क्षमा करो।





गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानी। सुरमायाबस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि।।_अर्थ_आधाररहित ( अस्थिर ) बुद्धि की स्त्री और देवताओं की माया के वश में होने के कारण रहस्ययुक्त कपटभरे प्रियभरे वचनों को सुनकर रानी कैकेयी ने दासी मंथरा को अपनी सुहृद ( अहैतुक हित करनेवाली ) जानकर उसका विश्वास कर लिया।





सादर पुनि पुनि पूंछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।। तसि मति फिरि अहइ जब भाबी। रहसि चेरि घात जनु फाबी।।_अर्थ_बार_बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही है, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गयी हो। जैसी भावी ( होनहार ) है, वैसी ही बुद्धि भी फिर गयी। दासी अपना दांव लगा जानकर हर्षित हुई।





तुम्ह पूछहु मैं कहत डेराउं। धरेहु मोर घरफोरी नाउं।। सजि प्रतीति बहुविधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।_अर्थ_तुम पूछती हो, किन्तु मैं कहते डरती हूं।  तुमने पहले ही मेरा नाम घरफोरी रख दिया है। इस तरह बहुत छल से पूर्ण मनगढ़ंत बात कहकर रानी को अपने वश में करके अयोध्या की साढ़ेसाती बोली_






प्रिय सिय राम कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह सो फुरि बानी।। रहा प्रथम अब ये दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।।_अर्थ_हे रानी ! तुमने जो कहा कि मुझे सीता_राम प्रिय हैं और राम को तुम प्रिय हो, सो यह बात सच्ची है। परन्तु यह बात पहले थी, वे दिन अब बीत गये। समय फिर जाने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।





भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।। जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूंधेहु करि उपाउ बर बारी।।_अर्थ_सूर्य कमल के कुल का पालन करनेवाला है, पर बिना जल के वहीं सूर्य उनको ( कमलों को ) जलाकर भस्म कर देता है। सौत कौसल्या तुम्हारी जड़ उखाड़ना चाहती है। अतः उपायरूपी श्रेष्ठ बाड़ ( घेरा ) लगाकर उसे रूंध दो ( सुरक्षित कर दो )।





तुम्हहि न सोच सोहाग बल निज बस जानहु राउ। मन मलीन मुंह मीठ नृपु राउर सरल सुभाउ।।_अर्थ_तुमको अपने सुहाग के ( झूठे ) विश्वास पर कुछ भी सोच नहीं है; राजा को अपने वश में जानती हो। किन्तु राजा मन के मैले और मुंह के मीठे हैं ! और आपका सीधा स्वभाव है।





चतुर गंभीर राम महतारी। बीचु पाई निज बात संवारी।। सौत तुम्हार कौसिलहिं माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई।।_अर्थ_( कौसल्या समझती है कि ) और सब सौतें तो मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरत की मां पति के बल पर गर्वित रहती हैं ! इसी से हे माई ! कोसल्या को तुम बहुत साल ( खटक ) रही हो। किन्तु वह कपट करने में चतुर है; अतः उसका हृदय का भाव जानने में नहीं आता ( वह उसे चतुरता से छिपाये रखती है )।





सेवहिं सकल सवति मोहि नीके। गरबित भरत मातु बल पी कें।। सालु तुम्हार कौसिलहिं माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई।।_अर्थ_(कौशल्या समझती है कि ) और सब सौतें मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरत की मां पति के बल पर गर्वित रहती है ! इसी से हे माई ! कौशल्या को तुम बहुत ही साल ( खटक ) रही हो। किन्तु वह कपट करने में चतुर है; अतः उसके हृदय का भाव जानने में नहीं आता (वह उसे चतुरता से छिपाये रहती है।





राजहि तुम पर प्रेम बिसेषी। सवति सुभाय सकइ नहिं देखी।। रचि प्रपंच भूपहिं अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।_अर्थ_राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। कौशल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती। इसीलिये उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, ( भरत की अनुपस्थिति में ) राम के राजतिलक के लग्न निश्चय करा लिया।





यह कुल उचित राम कहुं टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।। आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।_अर्थ_राम को तिलक हो, यह कुल ( रघुकुल ) के उचित ही है और यह बात सभी को सुहाती है;  और मुझे तो बहुत ही अच्छी लगती है। परन्तु मुझे तो आगे की बात से डर लगता है। दैव उलटकर इसका फल उसी ( कौशल्या ) को दे।





रूचि पचि कोटि कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु। कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।_अर्थ_इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़_छोलकर मंथरा ने कैकेयी को उल्टा_सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियां इस प्रकार ( बना_बनाकर ) कहीं जिस प्रकार विरोध बढे। 





भावी बस प्रतीति उर आई। पूंछ रानी पुनि सपथ देवाई।। का पूंछहु तुम्ह अबहूं न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।_अर्थ_होनहारवश कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। ( मन्थरा बोली_) क्या पूछती हो ? अरे तुमने अब भी नहीं समझा ? अपने भले_बुरे को ( अथवा मित्र शत्रु को ) तो पशु भी पहचान लेते हैं।





भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।। खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारे। सत्य कहें नहिं दोषु हमारे।।_अर्थ_पूरा पखवाड़ा बीत गया सामान सजते और तुमने खबर पायी है आज मुझसे।  मैं तुम्हारे राज्य में खाती पहनती हूं, इसलिेए सच कहने में मुझे कोई दोष नहीं है।





जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौं बिधि देइहि हमहि सजाई।। रामहिं तिलक कालि जौं भयऊ। तुम्ह कहुं बिपति बीजु बिधि बयऊ।।_अर्थ_यदि मैं कुछ बनाकर झूठ कहती होऊंगी तो विधाता मुझे दंड देगा। यदि कल राम को राजतिलक हो गया ( समझ रखना कि ) तुम्हारे लिये विधाता ने विपत्ति का बीज बो दिया।





रेख खंचाइ कहउं बलु भाषी। भामिनि भयहु दूध कई माखी।। जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौं घर रहहु न आन उपाई।।_अर्थ_मैं यह बात लकीर खींचकर बलपूर्वक कहती हूं, हे भामिनी ! तुम तो अब दूध की मक्खी हो गयी ! ( जैसे दूध में पड़ी हुई मक्खी को लोग निकालकर फेंक देते हैं, वैसे ही तुम्हें भी लोग घर से निकाल बाहर करेंगे ) यदि पुत्र सहित ( कौशल्या की ) चाकरी बजाओगी तो घर में रह सकोगी; ( अन्यथा घर में रहने का ) दूसरा उपाय नहीं।





कद्रूं बिनतहिं दीन्ह दुखु तुम्हहिं कौसिलां देब। भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।_अर्थ_कद्रू ने बिनता को दु:ख दिया था, तुम्हें कौशल्या देगी। भरत कारागार का सेवन करेंगे ( जेल की हवा खायेंगे ) और लक्ष्मण राम के नायाब ( सहकारी ) होंगे।





कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।। तन पसेउ कदली जिमि कांपी। कुबरी दसन जीभ तब चांपी।।_अर्थ_कैकेयी मंथरा की कड़वी बाणी सुनते ही डरकर सूख गयी, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले के तरह कांपने लगी। तब कुबरी ( मंथरा ) ने अपनी जीभ दांतों तले दबायी ( उसे भय कि कहीं भविष्य का अत्यन्त डरावना चित्र सुनकर कैकेयी की हृदय की गति न रुक जाय; जिससे उलटा सारा काम ही बिगड़ जाय )।






कहि कहि कोटि कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।। फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।_अर्थ_फिर कपट की करोड़ों कहानियां कह_कहकर उसने रानी को खूब समझाया कि धीरज रखो ! कैकेयी का भाग्य पलट गया, उसे कुचाल प्यारी लगी। वह बगुली को हंसिनी बनाकर ( वैरिन को हित मानकर ) उसकी सराहना करने लगी।





सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दाहिनि आंख नित फरकइ मोरी।। दिन प्रति देखउं राति कुसपने। कहउं न तोहि मोह बस अपने।।_अर्थ_कैकेयी ने कहा_मन्थरा सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आंख नित्य फड़का करती है। मैं प्रतिदिन रात को बुरे स्वप्न देखती हूं; किन्तु अपने अज्ञानवश तुझसे कहती नहीं।





काह करौं सखी सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउं काऊ।।_अर्थ_सखी ! क्या करूं, मेरा तो सीधा स्वभाव है। मैं दायां_बायां कुछ नहीं जानती।





अपनें चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह। केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअं दुसह दुखु दीन्ह।।_अर्थ_अपनी चलते ( जहां तक मेरा वश चला ) मैंने आज तक कभी किसी का बुरा नहीं किया। फिर न जाने किस पाप से दैव ने एक ही साथ मुझे दु:सह दु:ख दिया।





नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई।। अरि बस दैव जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।_अर्थ_मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूंगी; पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूंगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता है, उसके लिये तो जीने के अपेक्षा मरना ही अच्छा है।





दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।। अब कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुं दिन दूना।।_अर्थ_रानी ने बहुत प्रकार के दिन बचन कहे। उन्हें सुनकर कुबरी ने त्रियाचरित्र फैलाया। ( वह बोली_) तुम मन में ग्लानि मानकर ऐसा क्यों कह रही हो, तुम्हारा सुख_सुहाग दिन_दिन दूना होगा।





जेहिं राहुर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।। जब ते कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।_अर्थ_जिसने तुम्हारी बुराई चाही है, वही परिणाम में यह ( बुराईरूप ) फल पायेगी। हे स्वामिनी ! मैंने जबसे यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो दिन में भूख लगती है और न रात में नींद ही आती है।






पूंछेउं गुनिन्ह रेख तिन्ह खांची। भरत भुआल होहिं यह सांची।। भामिनि करहु तो कहौं उपाऊ। हैं तुम्हारी सेवा बस राऊ।।_अर्थ_मैंने ज्योतिषियों से पूछा, तो उन्होंने रेखा खींच कर ( गणित करके अथवा निश्चयपूर्वक )  कहा कि भरत राजा होंगे, यह सत्य बात है। सो हे भामिनि ! तुम करो, तो उपाय मैं बताऊं। राजा तुम्हारे सेवा के वश में हैं ही।





परउं कूप तुअ बचन पर सकउं पूत पति त्यागि। कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।_अर्थ_( कैकेयी ने कहा_)मैं तेरे कहने से कुएं में गिर सकती हूं, पुत्र और पति को भी छोड़ सकती हूं। जब तू मेरा बड़ा भारी दु:ख देखकर कुछ कहती हैं तो भला मैं अपने हित के लिये उसे क्यों न करूंगी ?





कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।। लखइ न रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।_अर्थ_कुबरी ने कैकेयी को ( सब तरह से ) कबूल करवाकर ( अर्थात् बलिपशु बनाकर ) कपटरूप छुरी को अपने  ( कठोर ) हृदयरूपी पत्थर पर टेया ( उसकी धार को तेज किया )। रानी कैकेयी अपने निकट के ( शीघ्र आनेवाले ) दु:ख को कैसे नहीं देखती जैसे बलि का पशु हरी_हरी घास चलता है ( पर यह नहीं जानता कि मौत सिर पर नाच रही है।





सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देखि मनहुं मधु माहुरी घोरी।। कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं। स्वामिनी कहिहु कथा मोहि पाहीं।।_अर्थ_मन्थरा की बातें सुनने में तो कोमल हैं, पर परिणाम में कठोर ( भयानक ) हैं। मानो वह शहद में घोलकर जहर पिला रही हो। दासी कहती है_हे स्वामिनी ! तुमने मुझको एक कथा कही थी,  उसकी याद है कि नहीं ?






दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुरावहु छाती।। सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू।_अर्थ_तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं। आज उन्हें राजा से मांगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनन्द तुम ले लो।





भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।। होई अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।_अर्थ_जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर मांगना, जिससे वचन न टलने पावे। आज की रात बीत गयी, तो काम बिगड़ जायगा। मेरी बात को हृदय से प्रिय ( प्राणों से भी प्यारी ) समझना।





बड़ कुघात करि पातकिनि कहेसि कोपगृह जाहु। काजु  संवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।_अर्थ_पापिनी मंथरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा_कोपभवन में जाओ। सब काम बड़ी सावधानी से बनाना, राजा पर सहसा विश्वास न कर लेना ( उनकी बातों में न आ जाना )।




कुबरिहि रानी प्राणप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।। तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कर भइसि अधारा।।_अर्थ_कुबरी को रानी प्राणों के समान प्रिय समझकर बार_बार उसकी बुद्धि का बखान किया और बोली_संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है। तू मुझ बही जाती हुई के लिये सहारा हुई है।





जौं बिधि पुरब मनोरथ काली। करौं तोहि चख पुतरि आली।। बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनी कैकेई।।_अर्थ_यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी ! मैं तुझे आंखों की पुतली बना लूं। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गयी।





बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुईं भई कुमति कैकेई केरी।। पाइ कपट जल अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।_अर्थ_विपत्ति ( कलह ) बीज है, दासी बर्षा_ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि ( उस बीज के बोने के लिये ) जमीन हो गयी। उसमें कपटरूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान उस अंकुर के दो पत्ते हैं और अंत में इसके दुख रूपी फल होगा।





कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।। राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।_अर्थ_कैकेयी कोप का सब साज सजकर ( कोपभवन में जा सोयी। राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गयी। राजमहल और नगर में धूमधाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता।





प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं मंगलचार। एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।_अर्थ_बड़े ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साज सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है कोई बाहर निकलता है; राजद्वार में बड़ी भीड़ हो रही है।





बालसखा सुनि हिय हरषाहीं। मिलि दस पांच राम पहिं ‌जाहीं।। प्रभु आदरहिं प्रेम पहिचानी। पूछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस पांच मिलकर श्रीरामचन्द्र जी के पास जाते हैं। प्रेम पहचानकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल_क्षेम पूछते हैं।





फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परस्पर राम बड़ाई।। को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।।_अर्थ_अपने प्रिय सखा श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक_दूसरे से श्रीरामचन्द्र जी की बड़ाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं_संसार में श्रीरघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहनेवाला कौन है ? 





जेहिं जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहं तहं ईसु देउ यह हमहीं।। सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।_अर्थ_भगवान् हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस जिस योनि में जन्में वहां_वहां ( उस उस, योनि में ) हम तो सेवक हों और सीतापति श्रीरामचन्द्र जी हमारे स्वामी हों और यह नाता अंत तक निभ जाय।





अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता हृदयं अति दाहू।। को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।_अर्थ_नगर में सबकी ही ऐसी अभिलाषा है। परन्तु कैकेयी के हृदय में बड़ी जलन हो रही है। कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती।





सांझ समय सानंद नृपु गयी कैकेई गेहं। गवनु निठुरता निकट किय तनु धरि देह सनेहं।।_अर्थ_सन्ध्या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल में गये। मानो साक्षात् स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरता के पास गया हो।





कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परन पाऊ।। सुरपति बसा बाहुबल जाकें। नरपति रहहिं सकल रुख ताकें।।_अर्थ_कोपभवन का नाम सुनकर राजा सहम गये। डर के मारे उनका पांव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल पर ( राक्षसों से निर्भय होकर ) बसता है और संपूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं,





सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।। सूल कुलिस अति अंगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।_अर्थ_वही राजा दशरथ स्त्री का क्रोध सुनकर सूख गये। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिये। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि का चोट अपने अंगों पर सहनेवाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव के पुष्प बाण से मारे गये।

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