Thursday, 21 October 2021

अयोध्याकाण्ड

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।। भूमि सयन पट मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना।।_अर्थ_राजा डरते डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गये। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दु:ख हुआ। कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है।   




कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवातु सूच तनु भावी।। जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रान प्रिया केहि हेतु रिसानी।।_अर्थ_उस दुर्बुद्धि कैकेयी को यह कुबेषता ( बुरा वेष ) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापन की सूचना दे रही हों। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले, ' हे प्राणप्रिय ! किसलिए रूठी हो ?’




केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। मानहुं सरोष भुअंग भामिनि बिषम भांति निहारई।। दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई। तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।_अर्थ_’ हे रानी ! किसलिये रूठी हो ?’ यह कहकर राजा उसे हाथ स्पर्श करते हैं तो वह उनके हाथ को ( झटककर ) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों ( वरदानों की ) वासनाएं उस नागिन की दो जीमें हैं और दोनों वरदान दांत हैं; वह काटने के लिये मर्म स्थान देख रही ‌है। तुलसीदास जी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे ( इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भांति देखने को ) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।



बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि। कारन मोहि  गजगामिनि निज कोप कर ।। _अर्थ_राजा बार बार कह रहे हैं_हे सुमुखी ! हे सुलोचनी ! हे कोकिलबयनी ! हे गजगामिनि ! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना।




अनहित तोर प्रिया केइं कीन्हां। केहि दइ सिर केहि जमु चह लीन्हा ।। कहुं केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।_अर्थ_ हे प्रिये ! किसने तेरा अनिष्ट किया ? किसके दो सिर हैं ? यमराज किसको लेना ( अपने लोक को ले जाना ) चाहते हैं ? कह, किस कंगाल को राजा कर दूं या किस राजा को देश से निकाल दूं।












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