प्रिया प्राण सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।। जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।_अर्थ_हे प्रिये ! मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सर्वस्व ( सम्पत्ति ), पुत्र, यहां तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश में ( अधीन ) हैं। यदि मैं तुमसे कुछ कपट करके कहता होऊं तो हे भामिनि ! मुझे सौ बार राम की सौगंध है।
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।। घरी कुघरी समुझि जियं देखू। बेगि प्रिया परिहरइ कुबेषू।।_अर्थ_तू हंसकर ( प्रसन्नतापूर्वक ) अपनी मनचाही बात मांग ले और अपने मनोहर अंगों को आभूषणों से सजा। मौका_बेमौका तो मन में विचारकर देख। हे प्रिय ! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे।
यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद। भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुं किरातिनि फंद।।_अर्थ_यह सुनकर और मन में रामजी की बड़ी सौगंध विचारकर मंदबुद्धि कैकेयी हंसते हुए उठी और गहने पहनने लगी; मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फंदा तैयार कर रही हो।
पुनि कह राउ सुहृद जियं जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।। भामिनि भयउ तोर मन भावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।_अर्थ_अपने जी में कैकेयी को सुहृद जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुन्दर वाणी से फिर बोले_हे भामिनी ! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर_घर आनन्द के बधावे बज रहे हैं।
रामहि देउं कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।। दलकि उठेउ सुनि हृदय कठोरू। तनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।_अर्थ_मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूं। इसलिए हे सुनयनी ! तू मंगल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय झलक उठा ( फटने लगा )। मानो पका हुआ फोड़ा छू गया हो।
ऐसिउ पीर बिहसि जेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।। लखहि न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरु पढ़ाई।।_अर्थ_ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हंसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती ( जिसमें उसका भेद न खुल जाय )। राजा उसकी कपट चतुराई को नहीं लग रहे हैं। क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है।
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।। कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।_अर्थ_यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं; परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटपूर्ण प्रेम बढ़ाकर ( ऊपर से प्रेम दिखाकर ) नेत्र और मुंह मोड़ती हुई बोली_
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुं न दे हुए न लेहु। देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।_अर्थ_हे प्रियतम ! आप मांग_मांग तो कहा करते हैं, पर देते_लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है ।
जानेउं मरमु राउ हंसि कहई। तुम्हहिं कोहाब परम प्रिय अहई।।_अर्थ_राजा ने हंसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म ( मतलब ) समझा। मानो करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती रखकर धरोहर ) रखकर फिर कभी मांगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसंग याद न रहा।
झूठेहुं हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।। रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाइ बरु बचनु न जाई।।_अर्थ_मुझे झूठ_मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार मांग लो। रघुकुल में सदा से यही रीति चली आयी है कि प्राण भले ही चले जायं, पर वचन नहीं जाता।
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।। सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।_अर्थ_असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुंघचियां मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम सुकृतों ( पुण्यों ) की जड़ है। यह बात वेद_पुराणों में प्रसिद्ध है और मधुजी ने भी यही कहा है।
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृति सनेह अवधि रघुराई।। बात दृढ़ाइ कुमति हंसि बोली। कुमति कुबिहग कुलह जनु खोली।।_अर्थ_उसपर मेरे द्वारा श्रीराम जी का शपथ करने में आ गयी ( मुंह से निकल पड़ी )। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत ( पुण्य ) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हंसकर बोली, मानो उसने कुमत ( बुरे विचार ) रूपी दुष्ट पक्षी ( बाज ) ( को छोड़ने के लिये उस ) की कुलही ( आंखों पर टोपी ) खोल दी।
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु । भिल्लिनि जिमि छाडन चहति बचनु भयंकरु बाजु।_अर्थ_राजा का मनोरथ सुन्दर वन है, सुख सुन्दर पक्षियों का समुदाय है। उसपर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है।
सुनहु प्राणप्रिय भावतजी का। देहु एक बर भरतहि टीका।। मांगउं दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।_अर्थ_( वह बोली_) हे प्राणप्यारे ! सुनिये, मेरे मन को भानेवाला एक वर तो दीजिये, भरत को राजतिलक; और हे नाथ ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर मांगती हूं, मेरा मनोरथ पूरा कीजिये।
तापस बेस बिषेसि उदासी। चौदह बरिस रामु बनवासी।। सुनि मृदु बचन भूप हियं सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।_अर्थ_तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से ( राज्य और कुटुम्बियों की ओर भली-भांति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भांति ) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल ( विनययुक्त ) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।। बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुं मनहुं तरु तालू।।_अर्थ_ राजा सहम गये, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज बन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो तार के पेड़ को बिजली ने मारा हो ( जैसे तार के पेड़ पर बिजली गिरने से वह बदरंगा हो जाता है, वहीं हाल राजा का हुआ।)
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु में लाग जनु सोचन।। मोर मनोरथु सुरतरु फूला। परत करिनि जिमि हतेउ समूला।।_अर्थ_माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बन्द कर राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। ( वे सोचते हैं_हाय ! ) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उसे उठाकर नष्ट कर डाला।
अवध उजारि कीन्ह कैकेईं। दीन्हसि अचल विपत्ति कै नेईं।।_अर्थ_कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल ( सुदृढ़ ) नींव डाल दी।
कवनें अवसर का भयउ गयऊं नारि बिस्वास। जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।।_अर्थ_किस अवसर पर क्या हो गया ! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धिरूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है।
नहिं बिधि राउ मनहिं मन झांका। देखि कुभांति कुमति मन माखा।। भरत कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।_अर्थ_इस प्रकार राजा मन_ही_मन झींक रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। ( और बोली_) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं ? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाते हैं ? ( क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूं ?)
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचन संभारे।। देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।_अर्थ_जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण_सा लगा तो आप सोच_समझकर बात क्यों नहीं कहते ? उत्तर दीजिये, नहीं तो शाहीन कर दीजिये। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा वाले ( प्रसिद्ध ) हैं।
देन कहेहु अब जनि बर देहू। तजहू सत्य जग अपजसु लेहू।। सत्य सराहि कहेउ बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।_अर्थ_आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिये। सत्य को छोड़ दीजिये और जगत् में अपयश लीजिये। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही मांग लेगी।
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचनु पनु राखा।। अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहु लोन जरे पर देई।।_अर्थ_राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कडवे वचन कहे रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो।
धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायं। सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायं।।_अर्थ_धर्म की धुरि धारण करनेवाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लम्बी सांस लेकर इस प्रकार कहा कि कि मुझे बड़े कुठौर मारा ( ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया।
आगें दीख जरत रिस भारी। मनहुं रोष तरवारि उघारी।। मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।_अर्थ_प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेई सामने इस प्रकार दिखायी पड़ी, मानो क्रोधरूपी तलवार म्यान से बाहर खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवार की मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी ( मन्थरा ) रूपी सान पर धरकर तेज की हुई है।
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवन लेइहि मोरा।। बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।_अर्थ_राजा ने देखा कि यह ( तलवार ) बड़ी ही भयानक और कठोर हैं ( और सोचा_) क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी ? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रता के साथ उसे ( कैकेयी को ) प्रिय लगने वाली वाणी बोले_
प्रिया बचन कह कहति कुभांती। भीर प्रतीति प्रीति करि हांती।। मोरें भरत राम दुइ आंखी। सत्य कहउं करि संकरु साखी।।_अर्थ_हे प्रिय ! हे भीरु ! विश्वास और प्रेम को नष्ट करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और रामचन्द्र दो आंखें ( अर्थात् एक_से ) हैं; यह मैं शंकरजी की साक्षी देकर सत्य कहता हूं।
अवसि दूत मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।। सुदिनु सोधि सब साज सजाई। दें भरत कहुं राजु बजाई।।_अर्थ_मैं अवश्य सवेरे ही दूत भेजूंगा। दोनों भाई ( भरत_शत्रुध्न ) सुनते ही तुरंत आ जायेंगे। अच्छा दिन ( शुभ_मुहूर्त ) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूंगा।
लोभ न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति। मैं बड़ छोटे बिचारि जियं करत रहेउं नृपनीति।।_अर्थ_राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बड़े_छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था ( बड़े को राजतिलक देने जा रहा था ) ।
राम सपथ सत कहउं सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।। मैं सब कहउं तोहि बिनु पूछें। तेहि ते परेउ मनोरथ छूछें।। _अर्थ_राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूं कि राम की माता ( कौशल्या ) ने ( इस विषय में ) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया।
रिस परिहरि अब मंगल साजू। कछु दिन गएं भरत जुबराजू।। एकहि बात मोर दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।_अर्थ_अब क्रोध छोड़ दें और मंगल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जायेंगे। एक ही बात का मुझे दुख लगा कि तुमने दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का मांगा।
अजहूं हृदउ जरत तेहि आंचा। रिस परिहास सांचहु सांचा।। कहु तजि रोषु राम अपराधू। सब कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।_अर्थ_उसकी आंच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही ( वास्तव में ) सच्चा है ? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं।
तुहूं सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।। जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।_अर्थ_तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उनपर स्नेह किया करती थी। अब यह बात सुनकर मुझे संदेह हो गया है ( कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे ? )
जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनुकूल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा ?
प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु। जेहिं देखि अब नयन भरि भरत राज अभिषेक।।_अर्थ_हे प्रिये ! हंसी और क्रोध छोड़ दें और विवेक ( उचित_अनुचित ) विचार कर वर मांग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरत का राज्याभिषेक देख सकूं।
जिएं मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिएं दुख दीना।। कहउं सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।_अर्थ_मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और सांप भी चाहे बिना मणि के दीन दु:की होकर जीता रहे। परन्तु मैं स्वभाव से ही कहता हूं, मन में ( जरा भी ) छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन राम के बिना नहीं है।
समुझि देखु जियं प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस अधीना।। सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुं अनल आहुति घृत परई।।_अर्थ_हे चतुर प्रिये ! जी मैं समझ देख, मेरा जीवन श्रीराम के दर्शन के अधीन है। राजा के कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि अत्यन्त जल रही है। मानो अग्नि में घी की आहुतियां पड़ रही हैं।
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहां न लागिहि राउरि माया।। देहु कि लेहु अजसि करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।।_अर्थ_( कैकेयी कहती है_) आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहां आपकी माया ( चालबाजी ) नहीं चलेगी। या तो मैंने जो मांगा है सो दीजिये नहीं तो ‘नाहीं’ करके अपयश लीजिये। मुझे बहुत प्रपंच ( बखेड़े ) नहीं सुहाते।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।। जस कौसिलां मोर भल ताका। तस बलु उन्हहिं देउं करि साका।।_अर्थ_राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली हैं; मैंने सबको पहचान लिया है। कौशल्या ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके ( याद रखने योग्य ) उन्हें वैसा ही फल दूंगी।
होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।_अर्थ_सवेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन् ! मन में ( निश्चय ) समझ लीजिये कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश।
अस कहि कुटिल भइ उठि ठाढ़ी। मानहु रोष तरंगिनि बाढ़ी।। पाप प्रहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।_अर्थ_ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पापरूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी जल से भरी है; ( ऐसी भयानक है कि ) देखी नहीं जाती।
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवंर कूबरी बचन प्रचारा।। ढ़ाहत भूपरूप तरुमूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।_अर्थ_दोनों वरदान उस नदी के दो किनारे हैं, कैकेयी का कठिन हठ ही उसकी कठिन ( तीव्र ) धारा है और कुबरी ( मंथरा ) के वचनों की प्रेरणा ही भंवर है। ( वह क्रोध रूपी नदी ) राजा दशरथरूपी वृक्ष को जड़मूल से ढ़हाती हुई विपत्तिरूप समुद्र की ओर ( सीधी ) चली जाती है।
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।। तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुं तृन सम बरनी।।_अर्थ_या तो वचन ( प्रतिज्ञा ) ही छोड़ दीजिये या धैर्य धारण कीजिये। यों असहाय स्त्री के भांति रोइये_पीटिये नहीं। सत्यव्रती के लिये तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी_सब तिनके के बराबर कहे गये हैं।
मरम बचन सुनि राउ कहु कछु दोष न तोर। लागेउ तोहि पिशाच जिमि कालु कहावत मोर।।_अर्थ_कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वहीं सब तुझसे यह सब कहला।
चहत न भरत भूपतहिं भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें। सो सब मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।_अर्थ_भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कुसमय में ( बेमौके ) विधाता विपरीत हो गया।
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।। करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहिं तिहुं पुर सम बड़ाई।।_अर्थ_( तेरी उजाड़ी हुई ) यह सुन्दर अयोध्या फिर भली_भांति बसेगी और समस्त गुणों के नाम श्रीराम की प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकों में श्रीराम जी की बड़ाई होगी।
तोर कलंक मोर पछिताऊ। मुएहुं न मिटिहिं न जाइहिं काऊ।। अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।_अर्थ_केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जायगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वहीं कर। मुंह छिपाकर मेरी आंखों की ओट जा बैठ ( अर्थात् मेरे सामने से हट जा, मुझे मुंह न दिखा।
जब लगि जियौं कहउं कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।। फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ निहारूं लागी।।_अर्थ_मैं हाथ जोड़कर कहता हूं कि जबतक मैं जीता रहूं, जबतक फिर कुछ न कहना ( अर्थात् मुझसे न बोलना )। अरी अभागिनी ! फिर तू अन्त में पछतायेगी जो तू नहारू ( तांत ) के लिये गाय को मार रही है।
परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु। कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुं मसानु।।_अर्थ_राजा करोड़ों प्रकार से ( बहुत तरह से ) समझाकर ( और यह कहकर ) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। पर कपट करने में चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, ( मानो मौन होकर ) मसान जगा रही हो ( श्मशान में बैठकर प्रेतमंत्र सिद्ध कर रही हो।
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहग बेहालू।। हृदयं मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।_अर्थ_राजा ‘राम_राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबेरा न हो और राम को जाकर कोई न कहे।
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहिं उर।। भूप प्रीति कैकेयी कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।_अर्थ_हे रघुकुल के गुरु ( बड़ेरे मूलपुरुष ) सूर्यभगवान् ! आप अपना उदय न करें। अयोध्या को ( बेहाल ) देखकर आपके हृदय में बड़ी पीड़ा होगी। राजा की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता दोनों को ब्रह्मा ने सीमा तक रचकर बनाया है ( अर्थात् राजा प्रेम की सीमा हैं और कैकेयी निष्ठुरता की । )
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।। पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहिं तनु लागहिं सायक।।_अर्थ_विलाप करते_करते ही राजा को सबेरा हो गया। राजद्वारे पर वीणा, बांसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान पढ़ रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण_जैसे लगते हैं।
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहिं बिभूषन जैसें।। तेहि निसि नींद पूरी नहिं काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।_अर्थ_राज को ये सब मंगल_साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पति के साथ सती होने वाली स्त्री को आभूषण ! श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी को भी नींद नहीं आयी।
द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि। जागेउ अजहुं न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।_अर्थ_राजद्वार पर मंत्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे।
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।। जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिए काजु रजायसु पाई।।_अर्थ_राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाता करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र ! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें।
गए सुमंत्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं।। धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुं बिपति बिषाद बसेरा।।_अर्थ_तब सुमंत्र रावले ( राजमहल ) में गये, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। ( ऐसा लगता है ) मानो दौडकर काट खायेगा, उसकी ओर देखा नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहां डेरा डाल रखा हो।
पूछें कोई न उतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई।। कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई।।_अर्थ_ पूछने पर कोई जवाब नहीं देता; वे उस महल में गये जहां राजा और कैकेयी थे। ‘जय_जीव’ कहकर सिर नवाकर ( वन्दना करके ) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गये।
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुं कमल मूलु परिहरेऊ।। सचिउ सभीत सकइ नहिं पूंछी। बोली असुभ भरी सुभ छूंछी।।_अर्थ_( देखा कि_) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े हैं मानो कमल जड़ छोड़कर ( जड़ से ) मुर्झाया पड़ा हो। मंत्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई शुभ से विहीन कैकेयी बोली_
परी न राजहि नींद निसि हेतु जान जगदीसु। रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।_अर्थ_राजा को रातभर नींद नहीं आती, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने रखकर सवेरा कर लिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ नहीं बतलाते।
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूंछेहु आई।। चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हिं कछु रानी।।_अर्थ_ तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछ्ना। राजा का रुख जानकर सुमंत्र जी चले, समझ गये कि रानी ने कुछ कुचाल की है।
सोच बिकल मग परइ न पाउ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।। उर धरि धीर गयऊ दुआरे। पूछहि सकल देखि मन मारे।।_अर्थ_सुमंत सोच से व्याकुल हैं कि राम को बुलाकर क्या कहेंगे। मन में धीरज धरकर द्वार पर गये कि मन मारे देखकर लोग क्या पूछेंगे।
समाधान करि सो सबही का। गयउ जहां दिनकरकुल टीका। राम सुमंत्रहिं आवत देखा। आदर कीन्ह पिता सम लेखा।।_अर्थ_सबका समाधान करके सुमंत्र वहां गये जहां रघुकुलतिलक श्री राम थे। राम सुमंत्र को आते देखकर उनका पिता के समान आदर किया।
निरखहिं बदनु करि भूप रजाई। रघुकुलदीपहिं चलेगी लवाई।। रामु कुभांति सचिव संग जाहीं। देखि लोग जहं तहं बिलखाहीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्रीरामचन्द्रजी को अपने साथ लिवा चले। श्रीरामचन्द्र जी मंत्री के साथ बुरी तरह से ( बिना किसी लवाजमे के ) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहां_ यहां विषाद कर रहे हैं।
No comments:
Post a Comment