निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।। जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौं कस मरनु न मागे दीन्हा।।_अर्थ_वे लोग अपनी निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। ( कहते हैं ) श्रीरामचन्द्रजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यारे का वियोग ही रचा, तो फिर उसने मांगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी !
एहि बिधि करहिं प्रलाप अलापा। आए अवध भरे परितापा।। बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राणा।।_अर्थ_इस प्रकार बहुत से प्रलाप करते हुए वे संताप से भरे हुए अयोध्याजी में आये। उन लोगों के विषय वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। ( चौदह साल की ) अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं।
राम दरस हित नेम ब्रत लगे करने नर नारि। मनहुं कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि।।_अर्थ_( सब ) स्त्री_पुरुष श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दु:खी हुए जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्य के बिना दीन हो जाते है।
सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुंचे जाई।। उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दण्डवत् हरषु बिसेषी।।_अर्थ_सीताजी और मन्त्रीसहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुंचे। वहां गंगाजी को देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत् की।
लखन सचिवं सियं किए प्रणामा। सबहिं सहित सुख पायउ रामा।। गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।।_अर्थ_लक्ष्मणजी, सुमन्त्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। गंगाजी समस्त आनन्द_मंगलों की मूल है़। वे सब सुखों को करनेवाली और पीड़ाओं को भरनेवाली है ।
कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।। सचिवहिं अनुजहिं प्रियहिं सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई।।_अर्थ_अनेक कथा प्रसंग कहते हुए श्रीरामजी गंगाजी की तरंगों को देख रहे हैं। उन्होंने मंत्री को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गंगाजी की बड़ी महिमा सुनाई।
मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयउ।। सुमिरत जाहि मिटा श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू।।_अर्थ_इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम ( थकावट ) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरण मात्र से ( बार_बार जन्मने और मरने का ) महान् श्रम मिट जाता है, उनको ‘श्रम’ होना_यह केवल लौकिक व्यवहार ( नरलीला ) है।
बुद्धि सच्चिदानंद मय कंद भानुकुल केतु। चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु।।_अर्थ_ शुद्ध ( प्रकृति जन्म त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह ) सच्चिदानंकंदस्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान् श्रीरामचन्द्र जी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं जो संसार रूपी समुद्र के पार उतारने के लिये पुल के समान है।
यह सुनि गुहं निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई।। लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियं हरषु अपारा।।_अर्थ_जब निषादराज गुह ने यह खबर पायी, तब आनन्दित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिये फल, मूल ( कन्द ) लेकर और उन्हें बालों ( बहंगियों ) में भरकर मिलने के लिये चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था।
करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहिं बिलोकत अति अनुरागे।। सहज सनेह बिबस रघुराई। पूछीं कुशल निकट बैठाई।।_अर्थ_दण्डवत् करके भेंट सामने रखकर वह अत्यंत प्रेम से प्रभु को देखने लगा। श्रीरघुनाथजी ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने साथ बैठाकर कुशल पूछी।
नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउं भागभाजन जन लेखें।। देव धरनि धनु नाम तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहितपरिवारा।।_अर्थ_ निषादराज ने उत्तर दिया_हे नाथ ! आपके चरण_कमल के दर्शन से ही कुशल है ( आपके चरणारविन्दों के दर्शन कर ) आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया। हे देव ! यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका है। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूं।
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिअ जनु सब लोगु सिहाऊ।। कहेत सत्य तुम सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना।।_अर्थ_अब कृपा करके पुर ( श्रृंगवेरपुर ) में पधारिये और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइये, जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें। श्रीरामचन्द्र जी ने कहा_हे सुजान सखा ! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। परन्तु पिताजी ने मुझको और ही आज्ञा दी है।
बरस चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। ग्राम बासु नहीं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु।।_अर्थ_( उनके आज्ञानुसार ) मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए बन में ही बसना है, गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बड़ा दु:ख हुआ।
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी। ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।_अर्थ_श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को गांव के स्त्री_पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। ( कोई कहती है_) हे सखी ! कहो तो, वे माता_पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे ( सुंदर सुकुमार ) बालकों को वन में भेज दिया है।
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। लोचन लाभ हमहिं बिधि दीन्हा।। तब निषाद पति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं_राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया। तब निषादराज ने हृदय में अनुमान किया, तो (अशोक के पेड़ को उनके ठहरने के लिये ) मनोहर समझा।
लै रघुनाथहिं ठाउं देखावा। कहेउ राम सब भांति सुहावा।। पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।।_अर्थ_उसने श्रीरघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्रीरामचन्द्र जी ने ( देखकर ) कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग जोहार ( वंदना ) करके अपने_अपने घर लौटे और श्रीरामचन्द्र जी संध्या करने पधारे।
गुहा संधारित सांथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।। सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी।।_अर्थ_गुहने ( इसी बीच ) खुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी; और पवित्र, मीठे और कोमल देख_देखकर दोनों में भर_भरकर फल_मूल और पानी रख दिया ( अथवा अपने हाथ से फल_मूल दोनों में भर_भरकर रख दिये।
सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ। सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ।।_अर्थ_सीताजी, सुमंत्रजी और भाई लक्ष्मण सहित कन्द_मूल_फल खाकर रघुकुलमनि श्रीरामचन्द्र जी लेट गये। भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे।
उठे लखन प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।। कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन।।_अर्थ_फिर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल बाणी से मंत्री सुमन्त्रजी को सोने के लिये कहकर वहां से कुछ दूर पर धनुष_बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने ( पहरा देने ) लगे।
गुहं बोलाइ पाहरू प्रतीती। पावन पावन राखे अति प्रीती।। आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भारी सर चाप चढ़ाई।।_अर्थ_गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यंत प्रेम से जगह_जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमर में तरकस बांधकर तथा तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा।
बोलत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस हृदय बिषादू।। तनु पुलकित जल लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई ।।_अर्थ_प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेमबश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से ( प्रेमाश्रुओं का ) जल बहने लगा। वह प्रेम सहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा_
भूपति भवन सुभायं सुहावा। सुरपति सदन न पटतर पावा।। मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ संवारे।।_अर्थ_महाराज दशरथ जी का महल तो स्वभाव से ही सुन्दर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुन्दर मणियों के रचे चौबारे ( छत के ऊपर बंगले ) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है।
सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास। पलंग मंजु मनि दीप जहं सब बिधि सकल सुपास।।_अर्थ_जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित है; जहां सुन्दर पलंग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है।
बिबिध बसन उफ़ान तुराई। छीर फेन मृदु फयल सुहाई।। तहं सिय राम सयन नित करहीं। निज छबि रति मनोज मनु हरहीं।।_अर्थ_जहां ( ओढने_बिछाने के ) अनेकों वस्त्र, तकिये और गद्दे हैं, जो दूध के समान कोमल, निर्मल ( उज्जवल ) और सुन्दर हैं; वहां ( उन चौबारों में ) श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्र जी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे।
ते सिय राम साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए।। मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुशील दास अरु दासी।।_अर्थ_वही श्रीसीता और श्रीरामजी आज घास_फूस की थके हुए बिना वस्त्र के ही होते हैं। ऐसी दशा में वे देखें नहीं जाते। माता_पिता, कुटुम्बी, पुरवासी ( प्रजा ), मित्र, अच्छे शील स्वभाव के दास और दासियां_
जोगवहिं जिन्हहिं प्राण की नाईं। महि बोलत तेहि राम गोसाईं।। पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।_अर्थ_सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार_संभार करते थे, वहीं प्रभु श्रीरामचन्द्र जी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत् में प्रसिद्ध है; जिनके ससुर इन्द्र के मित्र रघुराज दशरथ जी हैं,
रामचंद पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही।। सीय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह एहू।।_अर्थ_रामचन्द्र जिसके पति हैं वो सीता जमीन पर सो रही, बिधाता किसके लिये बाम नहीं होता। सीताराम क्या वन के योग्य हैं ? सच कहते हैं कि कर्म ( भाग्य ही प्रधान है )।
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह।।_अर्थ_ कैकयराज की लड़की नीचबुद्धि कैकेई ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनंदन श्रीरामजी को सुख के समय दु:ख दिया।
भई दिनकर कुल बंस कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी। भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।_अर्थ_वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धि ने संपूर्ण विश्व को दु:खी कर दिया। श्री राम_सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दु:ख हुआ।
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।। काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।_अर्थ_तब लक्ष्मणजी ग्यान वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले_हे भाई ! कोई किसी को सुख_दु:ख देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं।
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।। जनम मरन जहं लगि जग जालू। संपति, बिपति करमु अरु कालू।।_अर्थ_ संयोग ( मिलना ), बियोग ( बिछुड़ना ), भले_बुरे भोग, शत्रु_मित्र और उदासीन_ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म_मृत्यु, संपत्ति_विपत्ति, कर्म और काव जगत् के जंजाल है,
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहं लगि ब्यवहारू।। देखिअ सुनिअ, गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।_अर्थ_धरती,, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहां तक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है। परमार्थ: ये नहीं है।
सपने होई भिखारि नृपु रंक नाकपति होई। जागें लाभ न हानि कछु तिमिर प्रपंच जियो जोइ।।_अर्थ_जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्ग का स्वामि इन्द्र हो जाय, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।
अस बिचारि नहिं कीजिए रोसू। काहुहिं ब्यर्थ न देइअ दोसू।। मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिए सपन अनेक प्रकारा।।_अर्थ_ऐसा विचार कर अफसोस नहीं करना चाहिये और न किसी को व्यर्थ ही दोष देना चाहिये। सब लोग मोहरुपी रात्रि में सोनेवाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाती देते हैं।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।। जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा।।_अर्थ_संसार रूपी अन्धकार में योगी जगते हैं, जो परमार्थी हैं और ( माणिक जगत् ) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिये, जब संपूर्ण भोग_विलास से वैराग्य हो जाय।
होई बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।। सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।_अर्थ_ विवेक होने पर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, ( तब अज्ञान का नाश होने पर ) श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा ! मन, वचन और कर्म से श्री रघुनाथ जी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ ( पुरुषार्थ ) है।
राम ब्रह्म परमार्थ रूपा। अभिगत अलख अनादि अनूपा।। सकल विकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।_अर्थ_ श्रीरामजी परमार्थस्वरूप ( परमवस्तु ) परमब्रह्म हैं। वे अधिगत ( जानने में न आनेवाले ) अलग ( स्थूल दृष्टि से देखने में न आनेवाले ) अनादि ( आदिरहित ) अनुपम ( उपमारहित ), सब विकारों से रहित और भेदशून्य है, वेद जिनका नित्य ‘नेति_नेति’ कहकर निरूपण करते हैं।
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। करहि चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल।।_अर्थ_ वहीं कृपालु श्रीरामचन्द्र जी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण कर लीलाएं करते हैं, जिनके सुनने से जगत् के जंजाल मिट जाते हैं।
सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सीय रघुबीर चरन रत होहू।। कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागें जग मंगल सुखदारा।।_अर्थ_हे सखा ! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी के गुण कहते_कहते सबेरा हो गया। तब जगत् का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले श्रीरामजी जागे।
सकल सौच करि राम नहाना। सुचि सुजान बंट तीर मगावा।। अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।_अर्थ_ शौच के सब कार्य करके ( नित्य ) पवित्र और सुजान श्रीरामचन्द्र जी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मंगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएं बनायीं। यह देखकर सुमंत्र जी के नेत्रों में जल आ गया।
हृदयं दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।। नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथ जाहु राम के साथा।_अर्थ_उनका हृदय अत्यंत जलने लगा, मुंह मलिन ( उदास ) हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यंत दीन वचन बोले_हे नाथ ! मुझे कोसलनाथ दशरथ जी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ।
बनु देखाई सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई।। लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसृति सकल संकोच निबेरी।।_अर्थ_वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना।
नृप अस कहेउ गोसाईं जस कहइ बलि सोइ। करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ।।_अर्थ_ महाराज ने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वहीं करूं; मैं आपकी बलिहारी हूं। इस प्रकार विनती करके वे श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने बालक की तरह रो दिया।
तात कृपा करि कीजिए सोई। तातें अवध अनाथ न होई।। मंत्रिहि राम उठाई प्रबोधा। तात धर्म मर्म तुम्ह सब सोधा।।_अर्थ_( और कहा_) हे तात ! कृपा करके वहीं कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो। श्रीरामजी ने मंत्री को उठाकर श्रीरामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बंधाते हुए समझाया कि हे तात ! आपने तो धर्म के सभी सिद्धांतों को छान डाला है।
सिबि दधिचि हरिचन्द नरेसा। सहेउ धर्म हित कोटि कलेसा। रंतिदेव भलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।_अर्थ_शिबि दधिचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिये करोड़ों ( अनेकों ) कष्ट सहे । बुद्धिमान राजा रंतिदेव और बलि बहुत से कष्ट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे ( उन्होंने धर्म का परित्याग कभी नहीं किया )।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।। मैं सोई धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूं पुर अपजसु जावा।।_अर्थ_वेद, शास्त्र, पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। इस ( सत्य रूपी धर्म ) का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जायगा।
संभावित कहुं अपजसु लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।। तुम्ह सन तात बहुत का कहउं। दिए उतरु फिरि पातकु लहऊं।।_अर्थ_प्रतिष्ठित पुरुष के लियेअपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देनेवाली है। हे तात ! मैं आपसे अधिक क्या कहूं। लौटकर उत्तर देने में पाप का भागी होता हूं।
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