Sunday, 27 November 2022

अयोध्याकाण्ड


पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनती करब कर जोरि। चिंता कवनिहुं बात कै तात करिअ जनि मोरि।।_अर्थ_आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही साथ जोड़कर विनती करियेगा कि हे तात ! आप मेरे किसी बात की चिंता न करें।





तुम्ह पुनि पितु हम अति हित मोरे। विनती करत तात कर जोरे।। सब बिधि सोई कर्तव्य तुम्हारें। दुख न पाव बिनु सोच हमारे।।_अर्थ_आप भी पिता के समान मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात ! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूं कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगों के सोच में दुख न पावें।





सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिखर निषादू।। पुनि कछु लखन कहि कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया।





सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखनु संदेस कहिअ जनि जाइ।। कह सुमंत्र पुनि भूप संदेसू। सहि न सकहिं सिय बिपिन कलेसू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी सकुचाकर अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्र जी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश न कहियेगा। सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेंगी। 






जेहिं बिधि अवध आव फिरि सीया। सोई रघुबरहि तुम्हहि करनीया।। नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।_अर्थ_अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्र जी को वही उपाय करना चाहिये। नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जिऊंगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती।





मइके ससुरे सकल सुख जबहिं जहां मनु भाव। तहं तब रहिहिं सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान।।_अर्थ_सीताजी के मायके ( पिता के घर ) और ससुराल में सब सुख है। जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, जबतक वे जब जहां जी चाहे, वहीं सुख से रहेंगी।





विनती भूप कीन्ह जेहिं भांती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।। पितु संदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह कोटि बिधि नाना।।_अर्थ_राजा ने जिस तरह ( जिस दीनता और प्रेम से ) विनती की है; वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने पिता का संदेश सुनकर सीताजी को करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार से सीख दी।





सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू।। सुनि पति बचन कहति  बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।_अर्थ_( उन्होंने कहा_) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिंता मिटी जाय। पति के वचन सुनकर जानकी जी कहती हैं_हे प्राणपति ! हे परम स्नेही ! सुनिये_






प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छांह किमि छेंकी।। प्रभा जाइ कहीं भानु बिहाई। कहां चन्द्रिका चन्दु तजि जाई।।_अर्थ_हे प्रभो ! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। ( कृपा करके विचार तो कीजिये ) शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है ? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहां जा सकती है ? और चांदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहां जा सकती है ?





पतिहि प्रेममय विनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।। तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देंउं फिरि अनुचित भारी।।_अर्थ_इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मंत्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं_आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूं, यह बहुत ही अनुचित है।




आरति बस सनमुख भईं बिलगु न मानब तात। आरजसुत पद कमल बिनु बालि जहां लगि तात।।_अर्थ_किन्तु हे तात ! मैं आर्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूं, आप बुरा न मानियेगा। आर्यपुत्र ( स्वामी ) के चरण कमलों के बिना जगत् में जहां तक नाते हैं सभी मेरे लिखे व्यर्थ हैं।





पितु वैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलिअ पद पीठा। सुख निधान अस पितु गृह मोरें। फिरि विहीन मन भाव न भोरें।।_अर्थ_मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं ( अर्थात् बड़े_बड़े राजा जिनके चरणों को प्रणाम करते हैं ) ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार से सुखों का भण्डार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता।





ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।। आगे होई जेहि सुरपति लेई। अवध सिंघासन आसनु देई।।_अर्थ_मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट हैं; इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिये स्थान देता है।





ससुर एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू।। बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहु सुखद न लागा।।_अर्थ_ऐसे ( ऐश्वर्य और प्रभावशाली ) ससुर; ( उनकी राजधानी )अयोध्या का निवास; प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएं_ये कोई भी श्रीरघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते।





 अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा।। कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्राणपति संगा।_अर्थ_दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियां, कोल, भील, हिरण और पक्षी_( प्राणपति ) श्रीरघुनाथजी के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले होंगे। 





सासु ससुर सन मोरि हुंति बिनती करि परि पायं। मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायं।।_अर्थ_अत:सास और ससुर के पांव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजियेगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें; मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूं।





 प्राणनाथ प्रिय देवर साथा। वीर धुरीन धरें धनु भाथा।। नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोच करिअ तनु भोरें।।_अर्थ_वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और ( बाणों से भरे ) तरकश धारण किये मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं। इससे न मुझे रास्ते की थकावट है, न भ्रम है और न मेरे मन में कोई दु:ख ही है। आप मेरे लिखे भूलकर भी सोच न करें।





 सुनि सुमंत्रु सिय सीतल बानी। भयउ बिकल तनु फनि मनि हानी।। नयन सूझ नहीं सुनई काना। कहि न सकई कछु अति अकुलाना।।_अर्थ_सुमंत्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गये जैसे सांप के मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से कुछ सुनाई नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गये, कुछ कह नहीं सकते।





राम प्रबोध कीन्ह बहुत भांती। तथापि होति नहीं सीतल छाती।। जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने उनका बहुत प्रकार से समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई। साथ ही चलने के लिये मंत्री ने अनकों यत्न किये ( युक्तियां पेश कीं ), पर रघुनंदन श्रीरामजी ( उन सब युक्तियों का ) यथोचित उत्तर देते गये।





मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन कर्म गति कछु न बसाई।। राम लखन सिय पदु सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवांई।।_अर्थ_ श्रीरामजी की आज्ञा मेटि नहीं जा सकती। कर्म की गति कठिन है, उसपर कुछ भी वश नहीं चलता। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन ( पूंजी ) गवांकर लौटे।





रथु हांकेउ हय राम तन  हेरि हेरि हिहिनाहिं। देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं।।_अर्थ_सुमंत्र ने रथ को हांका, घोड़े श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख_देखकर हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषाद लोग विषाद वश सिर धुन_धुनकर पछताते हैं।





जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु_पितु जिइहहिं कैसें।। बरबस राम सुमंत्र पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आपु तबु आए।।_अर्थ_ जिनके वियोग में पशु इस प्रकार से व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे ? श्रीरामचन्द्र जी ने जबरदस्ती सुमंत्रजी को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आये। 





मागी नाव न केवट आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।। चरन कमल रज कहुं सब कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।_अर्थ_श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा_मैंने तुम्हारा मर्म ( भेद ) जान लिया। तुम्हारे चरणकमलों की धूल के रिमेक सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देनेवाली कोई जड़ी है,





छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन में न काठ कठिनाई।। तरनिउ मुनि  घरिनी होई जाई। बाट परि मोरि नाव उड़ाई।।_अर्थ_जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुन्दरी स्त्री हो गयी ( मेरी नाव तो काट की है ) काट पत्थर से कठोर तो होता ही नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जायगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जायेगी, मैं लुट जाऊंगा ( अथवा रास्ता रुक जायेगा जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जायगी ) मेरे कमाने खाने की राह मारी जायगी।






एहिं प्रतिपालउं सबु परिवारू। नहिं जानीं कछु अउर कबारू।। जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।_अर्थ_मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन_पोषण करता हूं। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु ! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे अपने चरण_कमल पखारने ( धो लेने ) के लिये कह दो।





पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब सांची कहौं।। बरु तीर मारहुं लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।_अर्थ_हे नाथ ! मैं चरणकमल धोकर आपलोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं सच_सच कहता हूं। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारे तो भी जबतक मैं पैर धो नहीं लूंगा तब तक पार नहीं उतारूंगा।





सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।_अर्थ_केवट के प्रेम लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्रीरामचन्द्रजी जानकी जी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हंसे।





कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोई करु जेहिं तव नाव न जाई।। बेगि अनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहु पारू।।_अर्थ_कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्र जी केवट से मुस्कराकर बोले_भाई ! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाय। जल्दी पानी ला और पैर धो लें। देर हो रही है पार उतार दे।





 
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।। सोई कृपाल केवटहिं निहोरा। जेहिं जग किय तिहु पगहु ते थोरा।।_अर्थ_एक बार जिनका नाम स्मरण करने से ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं, और जिन्होंने ( वामनावतार में ) जगत् को तीन पग से भी छोटा कर दिया था ( दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था ), वही कृपालु श्रीरामचन्द्र जी ( गंगाजी से पार उतारने के लिये ) केवट का निहोरा कर रहे हैं।





पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोह मति करषी।  केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।_अर्थ_प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गयी थी ( कि ये साक्षात् भगवान् होकर भी पार उतारने के लिये केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं )। परन्तु ( समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान ) पदनखों को देखते ही ( उन्हें पहचानकर ) देवनदी गंगा जी हर्षित हो गयीं। ( वे समझ गयीं कि भगवान् नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया; और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होउंगी, यह विचार कर लें हर्षित हो गईं। ) केवट श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया।






पद पखारि जलपान करि आपु सहित परिवार। पितरु पार करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।_अर्थ_चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल ( चरणोदक ) को पीकर पहले ( उस महान पुण्य के द्वारा ) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्द पूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को गंगा के पार ले गया।





उतरि ठाढ़ में सुरसरि रेता। सीय राम गुह लखन समेता। केवट उतरिए दंडवत कीन्हां। प्रभुहिं सकुच एहि नहिं  कछु दीन्हा।।_अर्थ_निषादराज और श्रीलक्ष्मणजीसहित श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्र जी ( नाव से ) उतरकर गंगाजी की रेत ( बालू ) में खड़े हो गये। तब केवट ने उतरकर दण्डवत् की। ( उसको दण्डवत् करते देखकर ) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं।





फिर हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुंदरी मन मुदित उतारी।। कहेउ कृपाल लेहु उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।_अर्थ_पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनन्द से भरे मन से अपनी ( रत्नजड़ित ) ( ( अंगूठी से ) उतारी। कृपालु श्रीरामचन्द्र जी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिये।





नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।। बहुत काल मैं कीन्ह मंजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनिक भलि भूरी।।_अर्थ_( उसने कहा_) हे नाथ ! आज मैंने क्या नहीं पाया। मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गयी है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी।





अब कछु नाथ न चाहिए मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।। फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।_अर्थ_हे नाथ ! हे दीनदयाल ! आपकी कृपा से मुझे अब कुछ नहीं चाहिते। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूंगा।





बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियं नहिं कछु केवट लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामजी, लक्ष्मण जी और सीताजी ने बहुत आग्रह ( या यत्न ) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया।





तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पार्थिव नायउ माथा।। सिय सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी।।_अर्थ_फिर रघुकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी ने स्नान करके पार्थिवपूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा_हे माता ! मेरा मनोरथ पूरा कीजियेगा। 





पति देवर संग कुसल बहोरी। आई करौं जेहिं पूजा तोरी। सुनि सिय बिनती प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी।।_अर्थ_जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलपूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूं। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई_





सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही।। लोकप होहिं बिलोकत तोरें। मोहि सेवहिं सब बिधि कर जोरे़।।_ हे रघुवीर की प्रिय जानकी ! सुनो ! तुम्हारा प्रभाव जगत् में किसे नहीं मालूम है ? तुम्हारे ( कृपादृष्टि ) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियां हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं।





तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्ह मोहि दीन्ह बड़ाई।। तदपि देबि मैं देब असीसा। सफल होन हित निज बागीसा।।_अर्थ_तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनामी, यह तो मुजफर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी ! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिये तुम्हें आशीर्वाद दूंगी।





प्राणनाथ देवर सहित कुल कोअसला आइ। पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ।।_अर्थ_तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशल पूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी और तुम्हारा सुन्दर यश जगत्भर में छा जायेगा।






गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला।। तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुख मा उर दाहू।।_अर्थ_मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया ! अब तुम घर जाओ ! यह सुनते ही उसका मुंह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया।





दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी।। नाथ साथ रहि पंथु देखाई। रहि दिन चारि सिर्फ मैं आई।_अर्थ_ गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला_ हे रघुकुलशिरोमणि ! मेरी विनती सुनिये मैं नाथ ( आपके) साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार ( कुछ ) दिन चरणों की सेवा करके_





जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करब सुहाई।। तब मोहि कह जसि देब रजाई। सोई करिहउं रघुबीर दोहाई।।_अर्थ_हे रघुराज ! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहां मैं सुन्दर पर्णकुटी ( पत्तों की कुटिया ) बना दूंगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर ( आप ) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूंगा।





सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयं हुलासू।। पुनि गुह जाति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे।।_अर्थ_उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनन्द हुआ। फिर गुह ( निषादराज ) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया।




तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाई सुरसरिहिं माथ। सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ।।_अर्थ_तब प्रभु श्रीरघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीताजी सहित वन को चले।





तेहिं दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखां सब कीन्ह सुपासू।। प्रातः प्राकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु आई, उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मण जी और सखा गुह ने ( विश्राम की ) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने सवेरे प्रातः काल की सब क्रियाएं करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किये।





सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी।। चारि पदार्थ भरा भंडारू। पुन्य प्रदेष देस अति चारू।।_अर्थ_उस राजा का सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्रीवेणीमाधव_सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) से भण्डार भरा है और वह पुण्यमय प्रान्त ही उस राजा का सुन्दर देश है।





छेत्रु अगम गढ़ु गाढ सुहावा। सपनेहुं नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।। सेना सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।_अर्थ_प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुन्दर गढ़ ( किला ) है, जिसको स्वप्न में भी ( पापरूपी ) शत्रु नहीं पा सके हैं। संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक है, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं।





संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।। चवंर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।_अर्थ_( गंगा, यमुना और सरस्वती का ) संगम ही उसका अत्यंत सुशोभित सिंहासन है। अक्षय वट छत्र है, जो मुनियों के भी मन मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके ( श्याम और श्वेत ) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दु:ख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है।





सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मन काम। बंदी बेद पुरान इव कहहिं बिमल गुन ग्राम।।_अर्थ_पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद और पुराणों के समूह भाट हैं, और उसके निर्मल गुणियों का बखान करते हैं।





को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजल मृगराऊ।। अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुख पावा।।_अर्थ_पापों के समूह रूप हाथी को मारने के लिये सिंहरूप प्रयागराज का प्रभाव ( महत्व_महात्म्य ) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समूह रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी ने भी सुख पाया।





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