जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं।। एक कहहिं ए सहज सुहाए। अपुन प्रगट भए बिधि न बनाएं ।।_अर्थ_जों ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत् में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं_ये स्वभाव से ही सुंदर हैं ( इनका सौन्दर्य_माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है )। ये अपने_आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाये नहीं।
जहं लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मनु गोचर बरनी।। देखहु खोजि भुवन दस चारी। कहु अस पुरुष कहां असि नारी।।_अर्थ_हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आनेवाली विधाता की करनी को जहां तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहां तक चौदहों लोकों में ढ़ूंढ़ देखो, ऐसा पुरुष और ऐसी स्त्री कहां हैं ? ( कहीं भी नहीं है, इसी से सिद्ध है कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग है और अपनी महिमा से अपने आप निर्मित हुए हैं।
इन्हहिं देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।। कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। जेहिं इरिषा बन अनि दुराए।।_अर्थ_इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त ( मुग्ध ) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री_पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, किन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आये ( पूरे नहीं उतरे )। इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है।
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं।। ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं_हम बहुत अधिक नहीं जानते। हां, अपने को परम धन्य अवश्य समझते हैं ( जो इनके दर्शन कर रहे हैं ) और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इन्हें देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे।
एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर। किमि चलिहिहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर।।_अर्थ_इस प्रकार प्रिय वचन कह_कहकर सब नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम ( कठिन ) मार्ग में कैसे चलेगें।
नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं सांझ समय जनु सोहीं।। मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयं कहहिं बर बानी।।_अर्थ_स्त्रियां स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी ( भावी वियोग की पीड़ा से ) सोह रही हों ( दुखी हो रही हों )। इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदय से उत्तम वाणी कहती हैं।
परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचित महि जिमि हृदय हमारे।। जौं जगदीस इन्हहिं बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा।।_अर्थ_इनके कोमल और लाल_लाल चरणों ( तलवों ) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?
जौं मांगा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आंखिन्ह माहीं।। जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय राम न देखन पाए।।_अर्थ_यदि ब्रह्मा से मांगे तो हे सखि ! ( हम तो उनसे मांगकर ) इन्हें अपनी आंखों में ही रखें ! जो स्त्री_पुरुष इस अवसर नहीं आये, वे श्रीसीतारामजी को नहीं देख सके।
सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहां लगि भाई।। समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई।।_अर्थ_उनके सौन्दर्य को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई ! अबतक वे कहां तक गये होंगे ? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का फल पाकर, विशेष आनंदित होकर लौटते हैं।
गांव गांव अब होई अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू।। जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं।।_अर्थ_सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी के प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर गांव_गांव में ऐसा ही आनंद हो रहा है। जो लोग ( वनवास दिये जाने का ) कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राज_रानी ( दशरथ_कैकेयी ) को दोष लगाते हैं।
कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जेहि लोचन लाहू।। कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाई।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री _पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेह भरी सुन्दर बातें कर रहे हैं।
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहां तें आए।। धन्य सो देसु सैलु बन गाऊं। जहं जहं जाहिं धन्य सोइ ठाऊं।।_अर्थ_( कहते हैं _ ) वे माता_पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य हैं जहां से ये आते हैं। वह देश, पर्वत, वन और गांव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहां जहां ये जाते हैं।
सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहिं के सब भांति सनेही।। राम लखन पथ कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई।।_अर्थ_ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है जिसके ये ( श्रीरामचन्द्र जी ) सब प्रकार से स्नेही हैं। पथिकरूप श्रीराम_लक्ष्मण की सुन्दर कथा सारे रास्ते जंगल में जा गयी है।
एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत। जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत।।_रघुकुलरुपी कमल के खिलानेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मण जी सहित वन को देखते हुए चले जा रहे हैं।
आगें राम लखनु बनु पाछें। तापस बेस बिराजत काछें।। उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें।।_अर्थ_आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मण जी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाये दोनों बड़ी शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया।
बहुरि कहउं छबि जब मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई।। उपमा बहुरि कहउं जियं जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही।।_अर्थ_फिर जैसी छबि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूं_ मानो बसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति ( कामदेव की स्त्री ) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूं कि मानो बुध ( चन्द्रमा के पुत्र ) और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी ( चन्द्रमा की स्त्री ) सोह रही हो।
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