जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।। सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयं रहहु रघुराई।।_अर्थ_ जाति, पांति, धन धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देनेवाला घर_सब छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहता है, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देह धरें धनु बाना।। कर्म बचन मन राउर चेरा। राम करहु तिन्ह के उर डेरा।।_अर्थ_स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान है, क्योंकि वह जहां_तहां ( सब जगह ) केवल धनुष_बाण धारण किये आपको ही देखता है; और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी ! आप उसके हृदय में डेरा कीजिये।
जाहि न चाहिअ कबहुं कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बहुत निरंतर तासु मन होहु राउर निज गेहु।।_अर्थ_ जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिये; वह आपका अपना घर है।
एहि बिधि मुनि बर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए।। कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहुं समय सुखदायक।।_अर्थ_इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि जी ने श्रीरामचन्द्रजी को घर दिखाये। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्रीरामजी के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा_हे सूर्य कुल के स्वामी ! सुनि ये, अब मैं इस समय के दायरे सुखदायक आश्रम कहता हूं ( निवास स्थान बतलाता हूं )।
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहं तुम्हार सब भांति सुपासू।। सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहंग बिहारू।।_अर्थ_आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये, वहां आपके लिये सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है।
नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।। सुरसुरी धार नाउं मंदाकिनी। जो सब पातक पोतक डाकिनि।।_अर्थ_वहां पवित्र नदी है, जिसकी पुरानों ने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया जी अपने तपोबल से लायी थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकों को खा डालने के लिये डाकिनी ( डाइन ) रूप है।
अत्रि आदि मुनि बर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं ।। चलहु सफल श्रम सब करहू।। राम देहु गौरव गिरिबरहु।।_अर्थ_अत्रि आदि बहुत_से श्रेष्ठ मुनि वहां निवास करते हैं जो जोग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे रामजी ! चलिये, सबके परिश्रम को सफल कीजिये और पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिये।
चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ। आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ।।_अर्थ_महामुनि बाल्मीकि जी ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखानकर कही। तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया।
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुं अब ठाहर ठाटू।। लखन दीख पय उतर करारा। चहुं दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने कहा_लक्ष्मण ! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मण जी ने पयस्विनि नदी के उत्तर के ऊंचे किनारे को देखा ( और कहा कि_) इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला फिरा हुआ है।
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना।। चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी।।_अर्थ_नदी ( मन्दाकिनी) उस धनुष की प्रत्यंचा ( डोरी ) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेकों हिंसक पशु ( रूप निशाने ) हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामने से मारता है।
अस कहि लखन ठाउं देखरावा। जलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा।। रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना।।_अर्थ_ऐसा कहकर लक्ष्मण जी ने स्थान दिखलाया। स्थान को देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि श्रीरामचन्द्रजी का मन यहां रम गया तब वे देवताओं के प्रधान थवई ( मकान बनानेवाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर चले।
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।। बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला।।_अर्थ_सब देवता कोल भील के वेष में आए और उन्होंने ( दिव्य ) पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिये। दो ऐसी सुन्दर कुटिया बनती जिसका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुन्दर छोटी_सी थी और दूसरी बड़ी थी।
लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत। सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत ।।_अर्थ_लक्ष्मणजी और जानकी जी सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर घास पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसन्त ऋतु के साथ सुशोभित हो।
अमर नाग किन्नर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला।। राम प्रणामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू।।_अर्थ_उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आये और श्रीरामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनन्दित हुए।
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू।। करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हर्षित निज निज सदन सिधाए।।_अर्थ_फूलों की वर्षा करके देव-समाज ने कहा_हे नाथ ! आज ( आपका दर्शन पाकर ) हम सनाथ हो गये। फिर विनती करके उन्होंने दु:सह दुख सुनाये और (दु:खों के नाश का आश्वासन पाकर ) हर्षित होकर अपने_अपने स्थानों को चले गये।
चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए।। आवत देखि मुदित मुनिवृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन_सुनकर बहुत _से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनिमंडली को आते देखकर दण्डवत् प्रणाम किया।
मुनि रघुबरहिं लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं।। सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं।।_अर्थ_मुनिगण श्रीरामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिये आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मण जी और श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं।
जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिवृंद। करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने जथायोग्य सम्मान करके मुनिमंडली को विदा किया। ( श्रीरामचन्द्रजी के आ जाने से ) वे सब अपने_अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ जाग, यज्ञ और तप करने लगे।
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई।। कंद मूल फल भरी भरी दोना। चले रंक जनु लूटन सोना।।_अर्थ_यह ( श्रीरामजी के आगमन का ) समाचार जब कोल_भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियां उनके घर ही पर आ गयी हैं। वे दोनों में कन्द, मूल, फल भर_भरकर चले। मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों।
तिन्ह महं जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहिं पूछहिं मगु जाता।। कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हिं देखें रघुराई।।_अर्थ_ उनमें से जो दोनों भाइयों को ( पहले ) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दरता कहते_सुनते सबने आकर रघुनाथजी ने दर्शन किये।
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहिं बिलोकहिं अति अनुरागे।। चित्र लिखे जनु जहं तहं ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।_अर्थ_भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहां_के_तहां मानो चित्रलिखे_से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है।
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने।। प्रभुहिं जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी।।_अर्थ_श्रीरामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना, और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार_बार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनती वचन कहते हैं_
अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय। भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय।।_अर्थ_हे नाथ ! प्रभु ( आप ) के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गये। हे कोसलराय ! हमारे ही भाग्य से आपका यहां शुभागमन हुआ है।
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