Sunday, 28 May 2023

अयोध्याकाण्ड

धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहं तहं नाथ पाउ तुम्ह धारा।। धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहिं निहारी।।_अर्थ_हे नाथ ! जहां _जहां आपने चरण रखें हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरनेवाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गये।





हम सब धन्य सहित परिवारा। सुखी दरस भरी नयन तुम्हारा।। कीन्ह बास भल ठाउं बिचारी। इहां सकल रितु रहब सुखारी।।_अर्थ_ हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहां सभी ऋतुओं में आप सुखी रहियेगा।




हम सब भांति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई।। बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा।।_अर्थ_हमलोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो ! यहां के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएं और खोह ( दर्रे ) सब पग_पग हमारे देखे हुए हैं।





तहं तहं तुम्हहिं अहेर खेलाउब। सर निर्झर जलठाउं देखउब।। हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता।।_अर्थ_हम वहां _वहां ( उन_उन स्थानों में ) आपको शिकार खिलावेंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखावेंगे। हम कुटुम्बसमेत आपके सेवक हैं। हे नाथ ! इसलिये हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजियेगा।





बेद बचन मुनि मन अगम सुनि प्रभु करुना ऐन। बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन।।_अर्थ_जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के नाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है।





रामहिं केवल प्रेम पिआरा। जानि लेई जो जाननिहारा।। राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को के वल प्रेम प्यारा है; जो जाननेवाला हो ( जानना चाहता हो ), वह जान ले। तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए ( प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया।







बिदा किए सिर नाई सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए। एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहीं बिपिन सुर मुनि सुखदाई।।_अर्थ_फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते सुनते घर आये। और इस तरह देवता और मुनि को सुख देने वाले श्रीरामजी वन में रहने लगे।





जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु।। फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु फलित बर बेल बिताना।।_अर्थ_जबसे श्रीरघुनाथजी वन में आकर रहे तबसे वन मंगलदायक हो गया। अनेकों प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उनपर लिपटी हुई सुन्दर बेलों के मण्डप तने हैं।








सुरतरु सरिस सुभायं सुहाए। मनहुं बिबुध बन परिहरि आए।। गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिधि बयारि बही सुख देनी।।_अर्थ_वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं। मानो वे देवताओं के वन ( नन्दन वन ) को छोड़कर चले आये हैं। भौरों की पंक्तियां बहुत ही सुन्दर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है।





 नीलकंठ कलकंठ सुख चातक चक्क चकोर। भांति भांति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चितचोर।।_अर्थ_नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देनेवाली और चित्त को चुरानेवाली तरह_तरह की बोलियां बोलते हैं।





करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा। फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी।।_अर्थ_हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ_साथ  विचरते हैं। शिकार के लिये फिरते हुए श्रीरामचन्द्रजी छवि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनन्दित होते हैं।







बिबुध बिपिन जहं लगि जग माहीं। देखि रामबनु सकल सिहाहीं।। सुरसुरी सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरी धन्या।।_अर्थ_जगत् में जहां तक ( जितने ) देवताओं के वन हैं, सब श्रीरामजी के वन को देखकर सइहआतए हैं। गंगा, सरस्वती, सूर्य कुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य ( पुण्यमयी ) नदियां,।






सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनी कर करहिं बखाना।। उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू।।_अर्थ_सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मंदाकिनी की बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास मन्दरआचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं,।





सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते।। बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई।।_अर्थ_और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विंध्याचल बड़ा आनन्दित है, उसके मन में सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है।






चित्रकूट के बिहंग मृग बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति।।_अर्थ_चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण_अंकुरादि की सभी जातियां पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं_देवता दिन_रात ऐसा कहते हैं।





नयनवंत रघुबरहिं बिलोकी। पाई जन्म फल होहिं बिसोकी।। परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी।।_अर्थ_आंखोंवाले जीव श्रीरामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर ( पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि ) भगवान् की चरण_रज का स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परमपद ( मोक्ष ) के अधिकारी हो गये।





सो बनु सैलु सुभायं सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन।। महिमा अधिक पवन बिधि तासू। सुख सागर जहं कीन्ह निवासू।।_अर्थ_वह वन और पर्वत स्वाभाविक सुन्दर, मंगलमय और अत्यन्त पवित्र करनेवाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कभी रात, जहां सुख के समुद्र श्रीरामजी ने निवास किया है।






पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहं सिय लखनु रामु रहे आई।। कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन।।_अर्थ_क्षीरसागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहां सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजी आकर रहें, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मउखवआलए जो लाख शएषजई हैं, तो भी वे नहीं कह सकते।





सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं।। सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी।।_अर्थ_उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूं। कहीं पोखरे का ( क्षुद्र ) कछुआ भी मन्दराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्म से श्रीरामचन्द्रजी की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता है।





छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु। करत न सपनेहुं लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु।।_अर्थ_क्षण_क्षणपर श्रीसीतारामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयों, माता_पिता और घर की याद नहीं करते ।





राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी।। छिनी छिनु फिर सिंधु बदलनी निहारी। प्रमुदित मनहुं चकोर कुमारी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत सुखी रहती है। क्षण क्षण पर पति श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं जैसे चकोर कुमारी ( चकोरी ) चन्द्रमा को देखकर!





नाह नेह नित बढ़त बिलोकी। हर्षित रहत दिवस जिमि कोकी।। सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।।_अर्थ_स्वामि का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती है जैसे दिन में चकवी ! सीताजी का मन श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है।





परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा।। सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिय सम कंद मूल फर।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामचन्द्रजी ) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियां सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कन्द_मूल फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है।





नाथ साथ सांथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई।। लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू।।_अर्थ_स्वामि के साथ सुन्दर साथरी ( कुश और पत्तों की सेज ) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देनेवाली है। जिनके ( कृपापूर्वक ) देखनेमात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग_विलास मोहित कर सकते हैं !

No comments:

Post a Comment