Saturday, 2 September 2023

अयोध्याकाण्ड

बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु  करहिं पुरबासी।। अंथयउ आजु भानुकुल भानू।‌ धरम अवधि गुन रूप निधानू।।_अर्थ_दास_दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगरवासी घर_घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भण्डार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गये।






गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहिं।। एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ज्ञानी।।_अर्थ_सब कैकेई को गालियां देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्र का ( अंधा ) कर दिया। इस प्रकार विलाप करते रात बीत गयी। प्रात:काल सब बड़े _बड़े ज्ञानी मुनि आये।








तब बसिष्ठ मुनि समय सम कही अनेक इतिहास। सोक निवारि सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।_अर्थ_तब वसिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया।







तेल नावं भरी नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अब भाषा।। धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहूं कहहू जनि काहू।।_अर्थ_वसिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर में उसको रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा_तुमलोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से कहो।








एतनइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई।। सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजी लजाए।।_अर्थ_जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर धावन ( दूत ) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले।










अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कउसगउन होहिं भरत कहीं तब तें।। देखहिं राति भयानक सपना। जागा करहिं कटु कोटि कलपना।।_अर्थ_ जबसे अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भर्ती को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर ( उन स्वप्नों के कारण ) करोड़ों ( अनेकों ) तरह की बुरी_बुरी कल्पनाएं किया करते थे।










बिप्र जेवांइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।। मागहिं हृदयं महेस मनाई। कुसल मातु_पितु परिजन भाई।।_अर्थ_( अनिष्टशान्ति के लिये) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता_पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशल_क्षेम मांगते थे।








एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुंचे आइ। गुर अनुशासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।_अर्थ_भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे। गुरु की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े।








चले समीर वेग हय हांके। नाघत सरित सैल बन बांके।। हृदयं सोची बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियं जाऊं उड़ाई।।_अर्थ_हवा के समान वेगवाले घोड़ों को हांकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लांघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाऊं।







एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।। असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभांति कुखेत करारा।।_अर्थ_एक_एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुंचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशगुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह कांव_कांव कर रहे हैं।







खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।। श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।_अर्थ_गदहे और सिआर विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन_सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है।







खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।। नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुं सबन्हिं सब संपति हारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के वियोगरूपी बुरे लोग से बताये हुए पक्षी_पशु, घोड़े_हाथी ( ऐसे दु:खी हो रहे हैं कि ) देखें नहीं जाते। नगर के स्त्री_पुरुष अत्यंत दु:खी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी संपत्ति हार गये हैं।








पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवंहिं जोहारहिं जाहिं। भरत कुशल पूंछि न सकहिं भय बिषादा मन माहिं।।_अर्थ_नगर के लोग मिलते हैं, फिर कुछ कहते नहीं; गौं _से ( चुपके_से ) जोहार ( वन्दना ) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद जा रहा है।










हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहन दिसा लागि दवारी।। आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल कैरव चंदिनि।।_अर्थ_बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है। पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के लिये चांदनी रूपी कैकेयी ( बड़ी ) हर्षित हुई।








सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारे हां भेंटा भवन लेइ आई।। भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुं तुहिन बनज बन मारा।।_अर्थ_वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत_शत्रुध्न को महल में ले आयी। भरत ने सारे परिवार को दु:खी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो।







कैकेई हरषित एहि भांती। मनहुं मुदित दव लाई किराती। सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूछति नैहर कुसल हमारें।।_अर्थ_एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद भर रही हो। पुत्र को सोचवश और मन मारे ( बहुत उदास ) देखकर वह पूछने लगी_हमारे नैहर में कुशल तो है?








सकल कुसल कहीं भरत सुनाई। पूंछी निज कुल कुसल भलाई।। कहीं कहं तात के कहां सब माता। कहं सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।_अर्थ_ भरतजी ने सब कुशल कह सुनायी। फिर अपने कुल की कुशल_क्षेम पूछी।  ( भरतजी ने कहा_) कहो, पिताजी कहां हैं ? मेरी सब माताएं कहां हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम_लक्ष्मण कहां हैं ?






सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरी नैन। भरत श्रवन मन सूल सम पानी बोली बैन।।_अर्थ_पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पानी कैकेयी भरत के कानों में शूल के समान चुभनेवाली वचन बोली_








No comments:

Post a Comment