Sunday, 28 January 2024

अयोध्याकाण्ड

कैकेई भव तनु अनुरागे। पावर प्रान अघाइ अभागे।। जौं प्रिय बिरहं प्राण प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।_अर्थ_कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करनेवाले ये पामर प्राण भरपेट ( पूरी तरह से ) अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में भी प्राण प्रिय लग रहे हैं तब अभी आगे और भी कुछ देखूं_सुनुंगा।

राम लखन सिय कहुं बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।। लीन्ह विधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजा सोक संतापू।।_अर्थ_लक्ष्मण, श्रीरामजी और सीताजी को वन दिया; स्वर्ग भेजकर पति का कल्याण किया; स्वयं विधवापन और अपयश लिया; प्रजा को शोक और संताप दिया।

मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।। एहि तें मोर कहा अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।_अर्थ_और मुझे सुख, सुन्दर यश और उत्तम राज्य दिया ! कैकेई ने सभी का काम बना दिया ! इससे अच्छा अब मेरे लिये क्या होगा ? उसपर भी आपलोग मुझे राजतिलक देने को कहते हैं !

कैकेइ जठर जन्मी जग माहीं। यह मोहि कहं कछु अनुचित नाहीं।। मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पांच कत करहु सहाई।।_अर्थ_कैकेयी के पेट से जगत् में जन्म लेकर यह मेरे लिये कुछ भी अनुचित नहीं है। मेरी सब बात तो विधाता ने ही बना दी है। ( फिर )उसमें प्रजा और पंच ( आपलोग ) क्यों सहायता कर रहे हैं।

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार। तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।_अर्थ_जिसे कुग्रह लगे हों ( अथवा जो पिशाच ग्रस्त हो ), फिर जो वआयउरओग से पीड़ित हो और उसी को फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलायी जाय, तो कहिये यह कैसा इलाज है !

कैकेइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।। दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्ह मोहि बिधि बादि बड़ाई।।_अर्थ_कैकेयी के लड़के के लिये संसार में जो कुछ योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया। पर 'दशरथजी के पुत्र' और 'राम का छोटा भाई' होने की बड़ाई विधाता ने मुझे व्यर्थ दी है।

तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहं नीका।। उतरु दें केहि बिधि केहि केही।। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।_अर्थ_आप सब लोग भी मुझे टीका कढाने के लिये कह रहे हैं। मैं किस_किस को किस प्रकार से उत्तर दूं ? जिसकी जैसी रुचि हो आपलोग सुखपूर्वक वही कहें।

मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।। मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहिं सिय राम प्रान प्रिय नाहीं।।_अर्थ_मेरी कुमाता कैकेयीसमेत मुझे छोड़कर, कहिये, और कौन कहेगा कि यह काम अच्छा किया गया ? जड़ _चेतन  जगत् मेरे सिवा और कौन है जिसको श्रीसीतारामजी प्राणों के समान प्यारे न हों।

परम हानि सब कहं बड़ राहू। अदानी मोर नहिं दूषन काहू।। संजय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।_अर्थ_जो परम हानि है, उसी में सबका बड़ा लाभ दीख रहा है। मेरा बुरा दिन है किसी का दोष नहीं। आप सब जो कुछ कहते हैं सो सब उचित ही है। क्योंकि आपलोग संशय, शील और प्रेम के वश में हैं।

राम मातु सुठि सरल चित। मो पर प्रेम बिसेषि। कहइ सुभायं सनेह बस मोरि दीनता देखि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी की माता बहुत ही सरल हृदय हैं और मुझपर उनका विशेष प्रेम है। इसलिये मेरी दीनता देखकर वे स्वाभाविक स्नेह वश ही ऐसा कह रही हैं।

गुरु बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि विस्व कर बदर समाना।। मो कहं तिलक साज सज सोऊ। भएं बिधि बिमुख सबु कोऊ।।_अर्थ_गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत् जानता है, जिनके लिये विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, वे भी मेरे लिये राजतिलक का साज सज रहे हैं। सत्य है, विधाता के विपरीत होने पर सब कोई विपरीत हो जाते हैं।


परिहरि राम सिय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।। सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुं कीच तहां जहं पानी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी को छोड़कर जगत् में कोई यह नहीं कहेगा कि इस अनर्थ में मेरी सम्मति नहीं है। मैं उसे सुखपूर्वक सुनूंगा और सहूंगा। क्योंकि जहां पानी होता है, वहां अंत में कीचड़ होता ही है।

डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।। एकहइं उर बस दउसह दुखारी। मोहि लगि में संघीय राम दुखारी।।_अर्थ_मुझे इसका डर नहीं है कि जगत् मुझे बुरा कहेगा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे हृदय में तो बस, एक ही दु:सह दावानल धधक रहा है कि मेरे कारण श्रीसीतारामजी दु:खी हुए।

जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि रामु चरन मन लावा।। मोर जन्म रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउं अभागी।।_अर्थ_जीवन का उत्तम लाभ तो लक्ष्मण ने पाया, जिन्होंने सबकुछ तजकर श्रीरामजी के चरणों में मन लगाया। मेरा जन्म तो श्रीरामजी के वनवास के लिये ही हुआ था। मैं अभागा झूठ_मूठ क्या पछताता हूं?

आपनी दारुन दीनता कहउं सबहि सिरु नाइ। देखें बिनु रघुनाथ पद जिय के जरनि न जाइ।।_अर्थ_सबको सिर झुकाकर मैं अपनी दारुण दीनता कहता हूं। श्री रघुनाथजी के चरणों के दर्शन किये बिना मेरे जी की जलन नहीं जायगी।

आन उपाय मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।। एकइं आंक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउं प्रभु पाहीं।।_अर्थ_मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता। श्रीरामजी के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है ? मन में एक ही आंक ( निश्चयपूर्वक) यही है कि प्रात:काल प्रभु श्रीरामजी के पास चल दूंगा।

यद्यपि मैं अनभल अपराधी। भैं मोहि कारन सकल उपाधी।। तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।_अर्थ_यद्यपि मैं बुरा हूं और अपराधी हूं, और मेरे ही कारण यह सब उपद्रव हुआ है, तथापि श्रीरामजी मुझे शरण में सम्मुख आया हुआ देखकर सब अपराध क्षमा करके मुझपर विशेष कृपा करेंगे।

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।। अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक यद्यपि बामा।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल स्वभाव, कृपा और स्नेह के घर हैं। श्रीरामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूं पर हूं तो उनका बच्चा और गुलाम ही।

तुम्ह पै पांच मोर भल जानी। आयसु आसिस देहु सुबानी।। जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि राम रजधानी।।_अर्थ_आप पंच ( सब ) लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर सुन्दर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिये, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्रीरामचन्द्रजी राजधानी को लौट आवें।

यद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस। आपनी जानि न त्यआगइहहइं मोहि रघुबीर भरोस।।_अर्थ_यद्यपि मेरा जन्म कुमाता से हुआ है और मैं दुष्ट तथा सदा दोषमुक्त भी हूं तो भी मुझे श्रीरामजी का भरोसा है कि मुझे अपना जानकर त्यागेंगे नहीं।

भरत बचन सब कहं प्रिय लागे। राम स्नेह सुधा जनु पागे।। लोग वियोग बिषम विष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।_अर्थ_भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे मानो वे श्रीरामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्रीराम वियोग रूपी भीषण विष से सबलोग जले हुए थे। वे मानो बीज सहित मंत्र को सुनते ही जाग उठे।


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