Wednesday, 24 April 2024

अयोध्याकाण्ड


देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरी भरत लघु भाई।। कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारीं रानी।।_अर्थ_ निषादराज की प्रीति को देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुध्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले_लेकर सुन्दर ( नम्र और मधुर ) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की।





जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।। निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।_अर्थ_रानियां उसे लक्ष्मण जी के समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सौ लाख वर्षों तक सुखपूर्वक जिओ। नगर के स्त्री-पुरुष निषाद को देखकर ऐसे सुखी हुए मानो लक्ष्मण जी को देख रहे हों। 






कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।। सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।_अर्थ_ सब कहते हैं कि जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, जिसे कल्याणस्वरूप श्रीरामचन्द्रजी ने भुजाओं में बांधकर गले लगाया है। निषाद अपने भाग्य की बड़ाई सुनकर मन में परम आनन्दित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला।





सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ। घर तरु तरह सर बाग बन बांस बनाएन्हि जाइ।।_अर्थ_उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कहा दिया। वे स्वामि का रुख पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिये स्थान बना दिये।







सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे स्नेहन सब अंग सिथिल तब।। सोहत दिएं निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।_अर्थ_भरतजी ने जब श्रृंगवेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गये। वे निषाद को लागू दिये ( अर्थात् उसके कंधे पर हाथ रखकर चलते हुए ) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किये हुए हों।







एहि बिधि भरत सेन सबु संगा। देखि जाइ जग पावनी गंगा।। रामघाट कहं कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगन मिले जनु रामू।।_अर्थ_इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिये हुए जगत् को पवित्र करनेवाली गंगाजी के दर्शन किये। श्रीराम घाट को ( जहां श्रीरामजी ने स्नान संध्या कि थी ) प्रणाम किया। उनका मन इतना आनन्द मग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्रीरामजी मिल गये हों।







करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।। करि मज्जनु मागहीं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी।।_अर्थ_नगर के नर_नारी प्रणाम कर रहे हैं और गंगाजी के ब्रह्मरूप जल को देख_देखकर आनन्दित हो रहे हैं। गंगाजी में स्नान कर हाथ जोड़कर सब यही वर मांगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में हमारा प्रेम कम न हो ( अर्थात् बहुत अधिक हो )।








भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।। जोरी पानी भर मागउं एहू। संजय राम पद कमल सनेहू।।_अर्थ_भरतजी ने कहा_हे गंगे ! आपकी रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवक के लिये तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान मांगता हूं कि श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो।






एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाई। मातु नहानईं जानि सब डेरा चले लवाइ।।_अर्थ_ इस प्रकार भरतजी स्नान कर और गुरुजी की आज्ञा पाकर तथा यह जानकर कि सब माताएं स्नान कर चुकी हैं, डेरा उठा ले चले।







जहं तहं लोगन्ह डेरा कीन्हां। भरतु सोंध सबहिं कर लीन्हा।। सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गए दोउ भाई।।_अर्थ_लोगों ने जहां_तहां डेरा डाल दिया। भरतजी ने सभी का पता लगाया ( कि सब लोग आराम से टिक गये हैं या नहीं)। फिर देव पूजन करके आज्ञा पाकर दोनों भाई श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी के पास गये।







चरन चांपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।। भाइहिं सौंपि मातु सेवकाई। आपी निषादहिं लीन्ह बोलाई।।_अर्थ_चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरतजी ने सब माताओं का सत्कार किया। फिर भाई शत्रुध्न को माताओं की सेवा सौंपकर आपने निषाद को बुला लिया।







चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीरु स्नेह न थोरे।। पूंछत सखहि सो ठाउं देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुराऊ।।_अर्थ_ सखा निषादराज के हाथ_से_हाथ मिलायें हुए भरतजी चले। प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है ( अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है ), जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है। भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओ_और नेत्र और मन की जलन कुछ ठण्डी करो।









जहं सिय राम लखन निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए। भरत बचन सुनि भयउ विषादू। तुरत तहां लइ गयउ निषादू।।_अर्थ_जहां सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मण रात को सोये थे। ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के कोनों से ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर आया। भरतजी के वचन सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहां ले गया।







जहं सिंसुपा पुनीत तरह रघुबर किया बिश्रामु। अति सनेह सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।_अर्थ_जहां पवित्र अशोक के वृक्ष के नीचे श्रीरामजी ने विश्राम किया था। भरतजी ने वहां अत्यन्त प्रेम से आदरपूर्वक दण्डवत् प्रणाम किया।








कुस सांथरी निहारी सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।। चरन रेख रज आंखिन्ह लाई। बना न कहते प्रीति अधिकाई।।_अर्थ_ कुशों की सुन्दर सांथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजी के चरण चिन्हों की रज आंखों में लगायी। ( उस समय के ) प्रेम की अधिकता कहते नहीं बनती।







कनक बिन्दु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सिय समय लेखे।। सजल बिलोचन हृदय गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।_अर्थ_भरतजी ने दो चार स्वर्ण बिन्दु ( सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के गहने कपड़ों से गिर पड़े थे ) देखें तो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया। उनके नेत्र ( प्रेमाश्रु ) जल से भरे हैं और हृदय में ग्लानि भरी है। वे सखा से सुन्दर वाणी में ये वचन बोले_






श्रीहत सिय बिरहं दुति हीना। जथा अवध नर नारी विलीना।। पिता जनक देऊं पटतर केही। करतलु भोगु जोगु जग जेही।।_अर्थ_ये स्वर्ण के कण या तारे भी  सीताजी के विरह से ऐसे श्रीहत ( शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं जैसे ( राम_वियोग में ) अयोध्या के नर_नारी विलीन ( शोक के कारण क्षीण ) हो रहे हैं। जिन सीताजी के पास पिता राजा जनक हैं, इस जगत् में भोग और जोग दोनों जिनकी मुट्ठी में है, उन जनक जी को मैं किसकी उपमा दूं?








ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहिं सहित अमरावतिपालू।। प्रान नाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।_अर्थ_सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथ जी जिनके ससुर हैं, जिनको अमरावती के स्वामि इन्द्र भी सिखाते थे ( ईर्ष्यापूर्वक उनके जैसा ऐश्वर्य और प्रताप पाना चाहते थे ); और प्रभु श्रीरघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता है, वह श्रीरामचन्द्रजी की ( दी हुई ) बड़ाई से होता है।






पति देवता सुतीय मनि सीय सांथरी देखि। बिहरत हृदय न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।_अर्थ_ उन श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियों में शिरोमणि सीताजी की साथरी ( कुशशय्या ) देखकर मेरा हृदय हहराकर ( दहलकर ) फट नहीं जाता; हे शंकर ! यह वज्र से भी अधिक कठोर है।







लालन जोगु लखन लघु लोने। भए न भाइ अस अहहिं न होने। पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुवीरहिं प्रानपियारे।।_अर्थ_मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुन्दर और प्यार करने योग्य हैं। जो लक्ष्मण अवध के लोगों के प्यारे, माता_पिता के दुलारे और श्रीसीतारामजी के प्राण प्यारे हैं।






मृदु मूर्ति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।। तें बन सहाहिं बिपति सब भांती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।_अर्थ_जिनकी कोमल मूर्ति और सुकुमार स्वभाव है, जिनके शरीर में कभी गर्म हवा भी नहीं लगी, वे वन में सब प्रकार की विपत्तियां सह रहे हैं। ( हाय ! ) इस मेरी छाती ने (कठोरता में) करोड़ों वज्रों का भी निरादर कर दिया। ( नहीं तो यह कभी भी फट गयी होती )।







राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।। पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहिं सुखदाता।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी ने जन्म ( अवतार ) लेकर जगत् को प्रकाशित ( परम सुशोभित) कर दिया। वे रूप, शील और समस्त गुणों के समुद्र हैं। पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, माता_पिता सभी को श्रीरामजी का स्वभाव सुख देनेवाला है।






बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।। सादर कोटि कोटि सत सेषा। करि न कहीं प्रभु गुन गन लेखा।।_अर्थ_शत्रु भी श्रीरामजी की बड़ाई करते हैं। बोल_चाल, मिलने के ढ़ंग और विनय से वे मन को हर लेते हैं। करोड़ों सरस्वती और अरबों शेषजी भी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की गिनती नहीं कर सकते।







सुख स्वरूप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान। तें सओवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।_अर्थ_जो सुख स्वरूप रघुवंशशिरोमणि  श्रीरामचन्द्रजी मंगल और आनंद के भण्डार हैं, वे पृथ्वी पर कुशाल बिछाकर सोते हैं। विधाता की गति बड़ी ही बलवान है।






राम सुना दुख कान न काऊ। जीवन तरु जिमि जोगवइ राउ।। पलक नयन फनी मनि जेहिं भांती। जोगवहिं जननी सकल दिन राती।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने कभी कानों से भी दु:ख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष की तरह उनकी सार-संभाल किया करते थे। सब माताएं भी दिन_रात उनकी ऐसी सार संभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रों की और सांप अपनी मणि की करते हैं।

















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