Friday, 10 May 2024

अयोध्याकाण्ड

तें अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।। धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।_अर्थ_वही श्रीरामचन्द्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कन्द_मूल तथा फल_फूलों का भोजन करते हैं।अमंगल की मूल कैकेई को धिक्कार है, जो अपने प्राण प्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गयी।




मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उत्पात भयउ जेहि लागी।। कुल कलंकु करि सृजेउ बिधातां। साईंदोह मोहि कीन्ह कुमाता।।_अर्थ_ मुझे पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामिद्रोही बना दिया।





सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बांदा बिषादू।। राम तुम्हारे प्रिय तुम प्रिय रामहिं। यह निरजोसु दोषु बिधि बामहिं।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज प्रेम पूर्वक समझाने लगा_ हे नाथ आप व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं ? श्रीरामचन्द्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्रीरामचन्द्रजी को प्यारे हैं । यही निचोड़ ( निश्चित) सिद्धांत है, दोष तो प्रतिकूल विधाता का है।






बिधि बाम की करनी कठिन जेहि मातु किन्हीं बावरी। तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।। तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहते हैं सौंहें किएं। परिनाम मंगल जानि अपने आने धीरज हिएं।।_अर्थ_प्रतिकूल विधाता की करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेई को बावली बना दिया ( उसकी मति फेर दी )। उस रात श्रीरामचन्द्रजी बार_बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे। तुलसीदास जी कहते हैं _( निषादराज कहता है कि_) श्रीरामचन्द्रजी को आपके समान अतिसय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूं। परिणाम में मंगल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिये।






अंतरजामी रामु सकुच स्नेह कृपायतन। चलिए करिअ विश्रामु यह विचार दृढ़ आनि मन।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी अन्तर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचारकर और मन में दृढ़ता लाकर चलिये और विश्राम कीजिये।





सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।। यह सुधि पाई नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।_अर्थ_सखा के वचन सुनकर हृदय में धीरज धरकर श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री_पुरुष यह ( श्रीरामजी के ठहरने के स्थान का ) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थान को देखने चले।






परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकेइहि खोरि निकामा।। भरि भरि बारि बिलोचन लेहीं। बाम बिधातहिं दूषन देहिं।।_अर्थ_वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेई को बहुत दोष देते हैं। नेत्रों में जल भर_भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण देते हैं।







एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नऋपतइ निबाहेउ नेहू।। निंदहिं आपु सराहि निषादहिं। को कहा सका बिमोह बिषादहिं।।_अर्थ_कोई भरतजी के स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निंदा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है ?

एहि बिधि राति लोग सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।। गुरहिं सुनावं चढ़ाइ सुहाईं। नहीं नाव सब मातु चढ़ाईं।।_अर्थ_इस प्रकार रातभर सबलोग जागते रहे। सवेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर गुरुजी को चढ़ाकर फिर नयी नाव पर सब माताओं को चढ़ाया।






दंड चारि महुं भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहिं संभारा।।_अर्थ_चार घड़ी में सब गंगाजी के पार उतर गये। तब भरतजी ने उतरकर सबको संभाला।






प्रतिक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहिं सिर नाइ। आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकउ चलाइ।।_अर्थ_ प्रातःकाल की क्रियाओं को करके माता के चरणों की वन्दना कर और गुरुजी को सिर नवाकर भरतजी ने निषाद गणों को ( रास्ता दिखलाने के लिये ) आगे कर लिया और सेना चला दी।






किअउ निषादनाथ अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।। साथ बोलाई भाई लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।_अर्थ_निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियां चलायीं। छोटे भाई शत्रुध्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणों सहित गुरुजी ने गमन किया।






आपु सुरसरि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।। गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।_अर्थ_तदनन्तर आप ( भरतजी )_ने गंगाजी को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित श्रीसीतारामजी का स्मरण किया। भरतजी पैदल ही चले। उनके साथ कोतल ( बिना सवार के ) घोड़े बागडोर से बंधे चले जा रहे हैं।






कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अश्व असवारा।। रामु पयादेहिं पायं सिधाए। हम कहां रथ गज बाजि बनाए।।_अर्थ_उत्तम सेवक बार_बार कहते हैं कि हे नाथ ! आप घोड़े पर सवार हो लीजिए। ( भरतजी जवाब देते हैं कि ) श्रीरामचन्द्रजी तो पैदल ही गये और हमारे लिये रथ, हाथी और घोड़े बनाये गये हैं।






सिर भर जाउं उचित अस मोरा। सब तें सेवक धर्म कठोरा।। देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।_अर्थ_मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊं। सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं।

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