Friday, 23 August 2024

अयोध्याकाण्ड

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय समय सबहिं सुपासू।। रातिहिं घाट घाट की तर्जनी। आईं अगनित जात न बरनी।।_अर्थ_उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिये ( खान_पान आदि की ) सुन्दर व्यवस्था हुई। ( निषादराज का संकेत पाकर )  रात_ही_रात में घाट_घाट की अगनित नावें वहां आ गयीं, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

प्रात पार भए एकहिं खेवां।  तोषे रामसखा की सेवां।। चले नहाई नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।_अर्थ_सवेरे एक ही खेले में सब लोग पार हो गये और श्रीरामचन्द्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके नदी को सिर नवाकर निषादराज ज्ञके साथ दोनों भाई चले।

आगें मुनिवर बाहन आछें। राज-समाज जाइ सब पाछें।। तेहि पाछें दोउ बंधु पयआदएं। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।_अर्थ_ आगे अच्छी_अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राज-समाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई सादे भूषण_वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं।

सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनउ सीय रघुनाथा।। जहं जहं राम बास बिश्रामा। तहं तहं करहिं सप्रेम प्रनामा।।_अर्थ_ सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं। जहां_जहां श्रीरघुनाथजी ने निवास और विश्राम किया था, वहां_वहां वे प्रेम सहित प्रणाम करते हैं।

मगवासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह सब मुदित जनमफल पाइ।।_अर्थ_मार्ग में रहनेवाले स्त्री _पुरुष यह सुनकर और घर का काम_काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप ( सौंदर्य ) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनन्दित होते हैं।

कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।। बय बपु बरन रूप सोइ आली।
सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।_अर्थ_गांवों की स्त्रियां एक दूसरी से प्रेमपूर्वक कहती हैं_सखी ! ये राम लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी ! उनकी अवस्था, शरीर और रंग_रूप तो वही है। सील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है।

बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अपनी चली चतुरंगा।। नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।_अर्थ_परन्तु हे सखी ! इनका न तो वह वेष ( वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष ) है, न सीताजी ही संग है। और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। है सखी ! इसी भेद के कारण संदेह होता है।

जासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी। तेहि सराहि बानी फुरि पूजी।_अर्थ_उसका तर्क ( युक्ति ) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी। उसकी सराहना करके और  'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली।

कहि सपेम सब कथा प्रसंगू। जेहिं बिधि राम राज रस भंगू।। भरतहिं बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।_अर्थ_ श्रीरामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथा प्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी।

चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु। जात मनावन रघुबरहिं भरत सरिस को आजु।।_अर्थ_( वह बोली_) देखो, ये भरतजी पिता के दिये हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्रीरामजी को मनाने के लिये जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है ?

भायप  भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।। जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।_अर्थ_भरतजी का भाईपना, भक्ति  और इनके आचरण कहने और सुनने से दु:ख और दोषों को हरनेवाले हैं। हे सखी ! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाय, वह थोड़ा है। श्रीरामचन्द्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों !। 

हम सब सानुज भरतहिं देखें। भइन्ह धन्य जुबतीं जन देखें।। सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननी जोगु सुत नाहीं।।_,अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य ( बड़भागिनि ) स्त्रियों की गिनती में आ गयीं। इस, प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियां पछतायीं हैं और कहती हैं _ यह पुत्र कैकेयी_जैसी माता के योग्य नहीं हैं।

कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन।  बिधि सब कीन्ह हमहि जो दाहिन।। कहं हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।_अर्थ
_कोई कहती है_ इसमें रानी का भी दोष नहीं है यह सब विधाता ने ही किया है जो हमारे अनुकूल है। कहां तो हम लोक और वेद दोनों की विधि ( मर्यादा)_से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियां, ।

बसहिं कुदेस कुगांव कुबामा। कहं यह दरसु पुन्य परिनामा।। अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा।। जनु मरुभूमि कल्पतरु जामा।।_अर्थ_ जो बुरे देश ( जंगली प्रान्त) और बुरे गांव में बसती हैं और ( स्त्रियों में भी ) नीच स्त्रियां हैं। और कहां यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन। ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गांव_गांव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो।

भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु। जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।_अर्थ_ भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहनेवाले लोगों के भाग्य खुल गये। मानो दैवयोग से सिंहल द्वीप के बसनेवालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो।

निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा। तीरथ मुनि आश्रम सुखधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रणामा।।_अर्थ_( इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्रीरघुनाथजी को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान एवं मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं।

मनहीं मन माहीं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।। मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।_अर्थ_और मन_ही_मन यह वरदान मांगते हैं कि श्रीसीतारामजी के चरणकमलों में प्रेम हो। मार।ग में भील, कोल आदि बनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं।

करि प्रनामु पूंछहिं जेहि तेही। केहि बन लखन रामु बैदेही। ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहिं देखि जन्म फलु लहहीं।।_अर्थ_उनमें से जिस तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और जानकी जी किस वन में हैं ? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते हैं।

जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।। एहि बिधि बूझते सबहिं सुबानी। सुनत राम बन बनबास कहानी।।_अर्थ_जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्रीराम _लक्मण के समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुन्दर वाणी से पूछते और श्रीरामजी के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं।

Saturday, 3 August 2024

अयोध्याकाण्ड

संपति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेरवार। तेहि निसि आश्रम पिंजरा राखे भा भिनुसार।।_अर्थ_ संपति ( भोग_विलास की सामग्री ) चकली है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिंजरे में रखे जाने पर भी चकली चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रातभर भोगसामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया।

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिर सहित समाजा।। रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहुत भाषी।।_अर्थ_( प्रात:काल ) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर रिषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की।

पथ गति कुशल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चित्र दीन्हें।। रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।_अर्थ_ तदनन्तर राते की पहचान रखनेवाले लोगों ( कुशल पथ-प्रदर्शकों )_के साथ सब लोगों के लिये हुए भरतजी चित्रकूट में चित्त लगाये चले। भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिये हुए ऐसे जा रहे हैं मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये हुए हों।

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। प्रेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।। लखन राम सिय पंथ कहानी। पूंछत सखहि कहते मृदु बानी।।_अर्थ_न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है। उनका प्रेम, निरम, व्रत और धर्म निष्कपट ( सच्चा ) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है।

राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहते नहिं रोकें।। देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु मंगल मूला।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोकें नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गयी और मार्ग मंगल का मूल हो गया।

किएं जाहिं छाया जलद सुखद बहि बर बात। तस मग भयउ न राम कहं जस भा भरतहिं जात।।_अर्थ_बादल छाया किये जा रहे हैं, सुख देने वाली सुन्दर हवा बह रही है। भरतजी के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचन्द्रजी को भी नहीं हुआ था।

जड़ चेतन जग जीव घनेरे। जे चिते प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।। ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।_अर्थ_रास्ते में असंख्य जड़_चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को देखा वे सब ( उसी समय ) परम पद के अधिकारी हो गये। परंतु अब भरतजी के दर्शन से तो उनका भव ( जन्म _मरण )_रूपी रोग मिटा ही दिया। ( श्रीरामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरत_दर्शन से उन्हें परमपद प्राप्त हो गया।

यह बड़ी बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहिं राम मन माहीं।। बालक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।_अर्थ_भरतजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने_तारनेवाले हो जाते हैं।

भरत राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मग मंगल दाता।। सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियं लहहीं।।_अर्थ_फिर भरतजी तो श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिये मार्ग मंगल ( सुख )_दायक कैसे न हो ? सिद्ध साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजी को देखकर हृदय‌ में हर्षलाभ करते हैं।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुं पोचू।।  गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहिं भरतहिं भेंट न होई।।_अर्थ_भरतजी के ( इस प्रेम के ) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया ( कि कहीं इनके प्रेम वश श्रीरामजी  लौट न जायें और हमारा बना बनाया काम बिगड़ जाय )। संसार भले के लिये भला और बुरे के लिये बुरा है ( मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दिखता है )। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा_प्रभो ! वही उपाय कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु संकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि। बनी बात बेगरन चहति करिअ जतन छलु सोधि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं। बनी बनायी बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये कुछ छल ढ़ूंढ़कर इसका उपाय कीजिये।

बचन सुनि सुरगुरु मुस्काने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।। मायापति सेवक सन माया। करि तो उलटि परइ सुरराया।।_अर्थ_इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पति जी मुस्कराये। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इन्द्र को ( ज्ञानरूपी ) नेत्रों से रहित ( मूर्ख ) समझा और कहा_हे देवराज ! माया के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालु करि होइहिं हानी।। सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।_अर्थ_ उस समय ( पिछली बार ) तो श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर कुछ किया था। परन्तु इस बार कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज ! श्रीरघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किये हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते।

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।। लोकहुं बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुर्बासा।।_अर्थ_ पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास ( कथा ) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं।

भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम राम जप जेहिं।।_अर्थ_सारा जगत् श्रीराम को जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजी के समान श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी कौन होगा ?

मनहुं न आनिअ अमरपति रघुबर भरत अकाजुपं  अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।_अर्थ_ हे देवराज ! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइये। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दु:ख होगा और शोक का सामान दिनों-दिन बढ़ता ही चला जायगा।

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहिं सेवकों परम पिआरा।। मानता सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।_अर्थ_हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।

यद्यपि हम नहिं राग न रोषू। गहहइं न पाप पूनु गुन दोषू।। कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करि सो तस फल चाखा।।_अर्थ_यद्यपि वे समय हैं_ उनमें न राग है, न रोष है। और न वे किसी का पाप_ पुण्य और गुण दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।। अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।_अर्थ_ यद्यपि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार समय और विषम व्यवहार करते हैं ( भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं )। गुणरहित, निर्देश, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्रीराम भक्त के प्रेम वश ही सगुण हुए हैं।

राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।। अस जियं जानि तजहु कुटिलाईं। क नहीं मनरहु भरत पद प्रीति सुहाई।।_अर्थ_श्रीरामजी सदा अपने सेवकों ( भक्तों )_की रुचि रखते आये हैं।ह४" वेद_पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुन्दर प्रीति करो ।

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल। भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।_अर्थ_हे देवराज इन्द्र ! श्रीरामचन्द्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दु:ख से दु:खी और दयालु होते हैं। फिर, भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो।


सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयसु अनुसारी।। स्वार्थ बिबस बिकल तुम्ह हओहू। भरतु दोसु नहिं राउर मोहू।।_अर्थ_ प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सत्यप्रतइज्ञ और देवताओं के हित करनेवाले हैं। और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञानुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।

सुनि सुरपति सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटा गलानी।। बरषि प्रसून हरसित सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।_अर्थ_देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ बाणी सुनकर इन्द्र के मन में बड़ा आनन्द हुआ और उनकी चिन्ता मिट गयी। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

एहि बिधि भरत चले मग जाहिं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।। जबहिं राम कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहुं चहुं पासा।।_अर्थ_इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी ( प्रेममयी ) दशा देखकर मुनि और सिद्धलोग भी सिहाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लम्बी सांस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है।

द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पसाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।। बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल जाए।।_अर्थ_ उनके ( प्रेम और दीनता से पूर्ण ) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास ( मुकाम ) करके भरतजी यमुना के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।

रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज। होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक समाज।।_,अर्थ_श्रीरघुनाथजी के  ( श्याम ) रंग का सुन्दर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी ( प्रेम विह्वल होकर ) श्रीरामजी के विरहरूपी समुद्र में डूबते_डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गये ( अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर  सबलोग श्यामवर्ण भगवान् के प्रेम में विह्वल हो गये और उन्हें न पाकर वइरहव्यथआ से पीड़ित हो गये; तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गये।