जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय समय सबहिं सुपासू।। रातिहिं घाट घाट की तर्जनी। आईं अगनित जात न बरनी।।_अर्थ_उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिये ( खान_पान आदि की ) सुन्दर व्यवस्था हुई। ( निषादराज का संकेत पाकर ) रात_ही_रात में घाट_घाट की अगनित नावें वहां आ गयीं, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
प्रात पार भए एकहिं खेवां। तोषे रामसखा की सेवां।। चले नहाई नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।_अर्थ_सवेरे एक ही खेले में सब लोग पार हो गये और श्रीरामचन्द्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके नदी को सिर नवाकर निषादराज ज्ञके साथ दोनों भाई चले।
आगें मुनिवर बाहन आछें। राज-समाज जाइ सब पाछें।। तेहि पाछें दोउ बंधु पयआदएं। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।_अर्थ_ आगे अच्छी_अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राज-समाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई सादे भूषण_वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं।
सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनउ सीय रघुनाथा।। जहं जहं राम बास बिश्रामा। तहं तहं करहिं सप्रेम प्रनामा।।_अर्थ_ सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं। जहां_जहां श्रीरघुनाथजी ने निवास और विश्राम किया था, वहां_वहां वे प्रेम सहित प्रणाम करते हैं।
मगवासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह सब मुदित जनमफल पाइ।।_अर्थ_मार्ग में रहनेवाले स्त्री _पुरुष यह सुनकर और घर का काम_काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप ( सौंदर्य ) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनन्दित होते हैं।
कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।। बय बपु बरन रूप सोइ आली।
सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।_अर्थ_गांवों की स्त्रियां एक दूसरी से प्रेमपूर्वक कहती हैं_सखी ! ये राम लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी ! उनकी अवस्था, शरीर और रंग_रूप तो वही है। सील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अपनी चली चतुरंगा।। नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।_अर्थ_परन्तु हे सखी ! इनका न तो वह वेष ( वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष ) है, न सीताजी ही संग है। और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। है सखी ! इसी भेद के कारण संदेह होता है।
जासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी। तेहि सराहि बानी फुरि पूजी।_अर्थ_उसका तर्क ( युक्ति ) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी। उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली।
कहि सपेम सब कथा प्रसंगू। जेहिं बिधि राम राज रस भंगू।। भरतहिं बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।_अर्थ_ श्रीरामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथा प्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी।
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु। जात मनावन रघुबरहिं भरत सरिस को आजु।।_अर्थ_( वह बोली_) देखो, ये भरतजी पिता के दिये हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्रीरामजी को मनाने के लिये जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है ?
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।। जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।_अर्थ_भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दु:ख और दोषों को हरनेवाले हैं। हे सखी ! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाय, वह थोड़ा है। श्रीरामचन्द्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों !।
हम सब सानुज भरतहिं देखें। भइन्ह धन्य जुबतीं जन देखें।। सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननी जोगु सुत नाहीं।।_,अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य ( बड़भागिनि ) स्त्रियों की गिनती में आ गयीं। इस, प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियां पछतायीं हैं और कहती हैं _ यह पुत्र कैकेयी_जैसी माता के योग्य नहीं हैं।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सब कीन्ह हमहि जो दाहिन।। कहं हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।_अर्थ
_कोई कहती है_ इसमें रानी का भी दोष नहीं है यह सब विधाता ने ही किया है जो हमारे अनुकूल है। कहां तो हम लोक और वेद दोनों की विधि ( मर्यादा)_से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियां, ।
बसहिं कुदेस कुगांव कुबामा। कहं यह दरसु पुन्य परिनामा।। अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा।। जनु मरुभूमि कल्पतरु जामा।।_अर्थ_ जो बुरे देश ( जंगली प्रान्त) और बुरे गांव में बसती हैं और ( स्त्रियों में भी ) नीच स्त्रियां हैं। और कहां यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन। ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गांव_गांव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो।
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु। जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।_अर्थ_ भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहनेवाले लोगों के भाग्य खुल गये। मानो दैवयोग से सिंहल द्वीप के बसनेवालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो।
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा। तीरथ मुनि आश्रम सुखधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रणामा।।_अर्थ_( इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्रीरघुनाथजी को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान एवं मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं।
मनहीं मन माहीं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।। मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।_अर्थ_और मन_ही_मन यह वरदान मांगते हैं कि श्रीसीतारामजी के चरणकमलों में प्रेम हो। मार।ग में भील, कोल आदि बनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं।
करि प्रनामु पूंछहिं जेहि तेही। केहि बन लखन रामु बैदेही। ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहिं देखि जन्म फलु लहहीं।।_अर्थ_उनमें से जिस तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और जानकी जी किस वन में हैं ? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते हैं।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।। एहि बिधि बूझते सबहिं सुबानी। सुनत राम बन बनबास कहानी।।_अर्थ_जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्रीराम _लक्मण के समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुन्दर वाणी से पूछते और श्रीरामजी के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं।
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