Saturday, 3 August 2024

अयोध्याकाण्ड

संपति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेरवार। तेहि निसि आश्रम पिंजरा राखे भा भिनुसार।।_अर्थ_ संपति ( भोग_विलास की सामग्री ) चकली है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिंजरे में रखे जाने पर भी चकली चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रातभर भोगसामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया।

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिर सहित समाजा।। रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहुत भाषी।।_अर्थ_( प्रात:काल ) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर रिषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की।

पथ गति कुशल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चित्र दीन्हें।। रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।_अर्थ_ तदनन्तर राते की पहचान रखनेवाले लोगों ( कुशल पथ-प्रदर्शकों )_के साथ सब लोगों के लिये हुए भरतजी चित्रकूट में चित्त लगाये चले। भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिये हुए ऐसे जा रहे हैं मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये हुए हों।

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। प्रेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।। लखन राम सिय पंथ कहानी। पूंछत सखहि कहते मृदु बानी।।_अर्थ_न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है। उनका प्रेम, निरम, व्रत और धर्म निष्कपट ( सच्चा ) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है।

राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहते नहिं रोकें।। देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु मंगल मूला।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोकें नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गयी और मार्ग मंगल का मूल हो गया।

किएं जाहिं छाया जलद सुखद बहि बर बात। तस मग भयउ न राम कहं जस भा भरतहिं जात।।_अर्थ_बादल छाया किये जा रहे हैं, सुख देने वाली सुन्दर हवा बह रही है। भरतजी के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचन्द्रजी को भी नहीं हुआ था।

जड़ चेतन जग जीव घनेरे। जे चिते प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।। ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।_अर्थ_रास्ते में असंख्य जड़_चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को देखा वे सब ( उसी समय ) परम पद के अधिकारी हो गये। परंतु अब भरतजी के दर्शन से तो उनका भव ( जन्म _मरण )_रूपी रोग मिटा ही दिया। ( श्रीरामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरत_दर्शन से उन्हें परमपद प्राप्त हो गया।

यह बड़ी बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहिं राम मन माहीं।। बालक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।_अर्थ_भरतजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने_तारनेवाले हो जाते हैं।

भरत राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मग मंगल दाता।। सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियं लहहीं।।_अर्थ_फिर भरतजी तो श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिये मार्ग मंगल ( सुख )_दायक कैसे न हो ? सिद्ध साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजी को देखकर हृदय‌ में हर्षलाभ करते हैं।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुं पोचू।।  गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहिं भरतहिं भेंट न होई।।_अर्थ_भरतजी के ( इस प्रेम के ) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया ( कि कहीं इनके प्रेम वश श्रीरामजी  लौट न जायें और हमारा बना बनाया काम बिगड़ जाय )। संसार भले के लिये भला और बुरे के लिये बुरा है ( मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दिखता है )। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा_प्रभो ! वही उपाय कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु संकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि। बनी बात बेगरन चहति करिअ जतन छलु सोधि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं। बनी बनायी बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये कुछ छल ढ़ूंढ़कर इसका उपाय कीजिये।

बचन सुनि सुरगुरु मुस्काने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।। मायापति सेवक सन माया। करि तो उलटि परइ सुरराया।।_अर्थ_इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पति जी मुस्कराये। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इन्द्र को ( ज्ञानरूपी ) नेत्रों से रहित ( मूर्ख ) समझा और कहा_हे देवराज ! माया के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालु करि होइहिं हानी।। सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।_अर्थ_ उस समय ( पिछली बार ) तो श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर कुछ किया था। परन्तु इस बार कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज ! श्रीरघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किये हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते।

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।। लोकहुं बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुर्बासा।।_अर्थ_ पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास ( कथा ) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं।

भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम राम जप जेहिं।।_अर्थ_सारा जगत् श्रीराम को जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजी के समान श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी कौन होगा ?

मनहुं न आनिअ अमरपति रघुबर भरत अकाजुपं  अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।_अर्थ_ हे देवराज ! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइये। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दु:ख होगा और शोक का सामान दिनों-दिन बढ़ता ही चला जायगा।

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहिं सेवकों परम पिआरा।। मानता सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।_अर्थ_हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।

यद्यपि हम नहिं राग न रोषू। गहहइं न पाप पूनु गुन दोषू।। कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करि सो तस फल चाखा।।_अर्थ_यद्यपि वे समय हैं_ उनमें न राग है, न रोष है। और न वे किसी का पाप_ पुण्य और गुण दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।। अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।_अर्थ_ यद्यपि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार समय और विषम व्यवहार करते हैं ( भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं )। गुणरहित, निर्देश, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्रीराम भक्त के प्रेम वश ही सगुण हुए हैं।

राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।। अस जियं जानि तजहु कुटिलाईं। क नहीं मनरहु भरत पद प्रीति सुहाई।।_अर्थ_श्रीरामजी सदा अपने सेवकों ( भक्तों )_की रुचि रखते आये हैं।ह४" वेद_पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुन्दर प्रीति करो ।

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल। भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।_अर्थ_हे देवराज इन्द्र ! श्रीरामचन्द्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दु:ख से दु:खी और दयालु होते हैं। फिर, भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो।


सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयसु अनुसारी।। स्वार्थ बिबस बिकल तुम्ह हओहू। भरतु दोसु नहिं राउर मोहू।।_अर्थ_ प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सत्यप्रतइज्ञ और देवताओं के हित करनेवाले हैं। और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञानुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।

सुनि सुरपति सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटा गलानी।। बरषि प्रसून हरसित सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।_अर्थ_देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ बाणी सुनकर इन्द्र के मन में बड़ा आनन्द हुआ और उनकी चिन्ता मिट गयी। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

एहि बिधि भरत चले मग जाहिं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।। जबहिं राम कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहुं चहुं पासा।।_अर्थ_इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी ( प्रेममयी ) दशा देखकर मुनि और सिद्धलोग भी सिहाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लम्बी सांस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है।

द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पसाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।। बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल जाए।।_अर्थ_ उनके ( प्रेम और दीनता से पूर्ण ) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास ( मुकाम ) करके भरतजी यमुना के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।

रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज। होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक समाज।।_,अर्थ_श्रीरघुनाथजी के  ( श्याम ) रंग का सुन्दर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी ( प्रेम विह्वल होकर ) श्रीरामजी के विरहरूपी समुद्र में डूबते_डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गये ( अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर  सबलोग श्यामवर्ण भगवान् के प्रेम में विह्वल हो गये और उन्हें न पाकर वइरहव्यथआ से पीड़ित हो गये; तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गये।


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