Thursday, 10 October 2024

अयोध्याकाण्ड

एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस भूला।। प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।_अर्थ_इतना कहते ही लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गये और युद्धरसरूपी वृक्ष के बहाने से फूल उठा ( अर्थात् नीति की बात कहते_कहते उनके शरीर में वीर_रस छा गया )। वे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की वन्दना करके, चरण_रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले।

अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोड़ा।। कहं लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारे।।_अर्थ_ हे नाथ ! मेरा कहना अनुचित न मानियेगा। भरत ने  हमें कम नहीं प्रचारा है ( हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है )। आखिर कहां तक सहा जाय और मन मारे रहा जाय, जब स्वामि हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है।

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुज जगु जान।
लातहुं मारे चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।_अर्थ_ क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं रामजी ( आप )_का अनुगामी ( सेवक ) हूं, यह जगत् जानता है। ( फिर भला कैसे सहा जाय ? ) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारकर सिर ही चढ़ती ।

उठि कर जोरी रजायसु मागा। मनहुं बीर रस सोवत जागा।। बांधि जटा सिर कसि कटि माथा।
साजि सरासनु सायक हाथा।।_अर्थ_ यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा मांगी। मानो वीररस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बांधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजकर तथा बाण हाथ हाथ में लेकर कहा _।

आजु राम सेवक जसु लेऊं। भरतहिं समर सिखावन देऊं।। राम निरादर कर फल पाई। सोवहु समर सेज दोउ भाई।।_अर्थ_ आज मैं श्रीराम ( आप )_का सेवक होने का यश लूं और भरत को संग्राम में शिक्षा दूं। श्रीरामचन्द्रजी ( आप )_के निरादर का फल पाकर दोनों भाई ( भरत_शत्रुध्न ) रणशैय्या पर सोवें।

आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउं रिस पाछिल आजू।। जिमि करि निकर दलइ मृगराजू
। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।_अर्थ_अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूंगा। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लिए को लपेट में ले लेता है।

तैसेहिं भरतहिं सेन समेता। सानुज निद्रा निपातउं खेता।। जौं सहाय कर संकरु आई। तौं मारउं रन राम दोहाई।।_अर्थ_वैसे ही भरत को सेनासमेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूंगा। यदि शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगन्ध है, मैं उन्हें युद्ध में ( अवश्य) मार डालूंगा ( छोड़ूंगा नहीं)।

अतिसरोष माखे लखनु लखि सुनि साथ प्रवान। सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।_अर्थ_ लक्ष्मणजी को अत्यन्त क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक ( सत्य ) सौगन्ध सुनकर सबलोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबराकर भागना चाहते हैं।

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।। तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहा सका को जाननिहारा।_अर्थ_सारा जगत् भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई _ हे तात ! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है ?

अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सब कोऊ।। सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध तें बुध नाहीं।।_अर्थ_परन्तु कोई भी काम हो, उसे अनुचित, उचित खूब समझ_बूझकर किया जाय तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना बिचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।

सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयं सादर सनमाने।। कहीं तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।_अर्थ_ देववाणी सुनकर लक्ष्मणजी सकुचा गये। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान किया ( और कहा_ ) हे तात ! तुमने बड़ी सुन्दर नीति कही। हे भाई ! राज्य का मद सबसे कठिन मद है।

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धर्म धुर  धरनि धरत को।। कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।_अर्थ_यदि जगत् में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धूरी कौन धारण करता ? हे रघुनाथजी ! कविकुल के लिये अगम ( उनकी कल्पना से अतीत ) भरतजी के गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है ?

लखन राम सिय सुनि सुर बानी। अति सुख लहेउ न जाइ बखानी।। कहां भरत सब सहित सहाए। मंदाकिनी पुनीत नहाए।।_अर्थ_लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहां भरतजी ने सारे समाज के साथ मंदाकिनी में स्नान किया। 


सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।। चले भरत जहं सीय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।_ अर्थ_ फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा मांगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहां ठहराये जहां श्रीसीताजी और रघुनाथजी थे।

समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।। राम लखन सिय सुनि मम नाऊं। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊं।।_अर्थ_ भरतजी अपनी माता कैकेयी की करनी को समझकर ( याद करके ) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों ( अनेकों ) कुतर्क करते हैं ( सोचते हैं _) श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह न उठकर चले जायं।

मातु मते महुं मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर। अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि अपनी ओर।।_अर्थ_ मुझे माता के मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर ( अपने विरद और संबंध को देखकर) मेरे पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे।

जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवक मानी।। मोरें सरन रामहिं कि पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनहीं।।_अर्थ_चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें ( कुछ भी करें ); मेरे तो श्रीरामचन्द्रजी की जूतियां ही शरण हैं। श्रीरामचन्द्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है।

जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नवीना।। अस मग गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहु सिथिल सब गाता।।_अर्थ_ जगत् में यश के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाने में निपुण हैं। ऐसा मन में सोचते हुए भरतजी मार्ग में चले जाते हैं। उनके सब अंग प्रेम और संकोच से शिथिल हो रहे हैं।

फेरति मनहुं मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।। जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाउ।।_अर्थ_माता की की हुई बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धूरी को धारण करनेवाले भरतजी भक्ति के बल से चले जाते हैं। जब श्रीरघुनाथजी के स्वभाव को समझते ( स्मरण करते ) हैं तब मार्ग में  उनके पैर जल्दी_जल्दी पड़ने लगते हैं।

भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहं जल अलि गति जैसी।। देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।_अर्थ_उस समय भरत की दशा कैसी है ? जैसी जल के प्रवाह जल के भौंरे की गति होती है। भरतजी का संकोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया ( देह की सुध_बुध भूल गया )।

लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु। मिटिहि सोच होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।
_अर्थ_मंगल शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा_सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अन्त में दु:ख होगा।

सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।। भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाई सुनाजू।।_अर्थ_भरतजी ने सेवक ( गुह )_के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुंचे। वहां के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न पा गया हो।

ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिधि ताप पीड़ित ग्रह मारी।। जाइ सुराज सुदेस सुखारी होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।_अर्थ_जैसे ईति के भय से दुखी हुई तीनों ( अध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक ) तापो तथा क्रूर ग्रहों तथा क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाय, भरतजी की गति ( दशा ) ठीक उसी प्रकार की हो रही है।
( अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियां, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई_खेतों में बाधा देनेवाले छः उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं। )

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