राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाई सुराजा।। सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।_ अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के निवास से वन की संपत्ति ऐसे सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मंत्री हैं।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।। सकल अंग सम्पन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।_अर्थ_यम ( अहिंसा,, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) तथा नियम ( शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान) योद्दा हैं। पर्वत राजधानी है, शान्ति तथा सुबुद्धि दो सुन्दर पवित्र रानियां हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से पूर्ण है और श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में चाव ) आनन्द या उत्साह है।
( स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना _ राज्य के सात अंग हैं । )
जीति मोह महिपाल दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरं सुख संपदा सुकालु।।_अर्थ_मोहरूपी राजा को सेनासहित जीतकर विवेक रूपी राजा निष्कंटक राज कर रहा है। उसके नगर में सुख, संपति और सुकाल वर्तमान हैं।
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउं गन खेरे।। बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।_अर्थ_ वनरूपई प्रान्तों में जो बहुत _से मुनियों के निवास_स्थान हैं वहीं मानो शहरों, नगरों, गांवों और खेड़ों का समूह है। बहुत _से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही मानो प्रथाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बऋष साजि सराहा।। बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहं तहं मनहुं सेन चतुरंगा।।_अर्थ_ गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर,भैंस और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है। ये सब आपस का वैर छोड़कर जहां _तहां एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना है।
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुं निसान बिबिध बिधि बाजहिं।। चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।_अर्थ_पानी के झरने झड़ रहे हैं और मत्त हाथी चिग्घाड़ रहे हैं। वे ही मानो वहां अनेक प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूजत रहे हैं।
आलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहुं ओरा।। बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।_अर्थ_भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद और मंगल का मूल बन रहा है।
राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयं अति पेमु। तापस फल जनु पाई जिमि सुखी सिराने नेमु।।_अर्थ_श्रीरामजी के पर्वत की शोभा देखकर भरतजी के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम का समाप्ति होने पर तपस्या का फल पाकर खुश होता है।
तब केवट ऊंचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।। नाथ देखिअहिं बिटप बिहाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।_अर्थ_ तब केवट दौड़कर ऊपर चढ़ गया और भुजा उठाकर भरतजी से कहने लगा_हे नाथ ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमिल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,।
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसार देखि मनु मोहा।। नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छांह सुखद सब काला।।_अर्थ_जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुन्दर विशाल वट का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर सब मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं को सुख देनेवाली है।
मनहु तिमिर अरुनमय रासी। बिरचि बिधि संकेलि सुषमा सी।। ए तरु सरित समीप गोसाईं। रघुबर परनकुटी जहं छाई।।_अर्थ_मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अन्धकार और लालिमामयी राशि_सी रच दी है। हे गोसाईं ! ये वृक्ष नदी के समीप है जहां श्रीराम की पर्णकुटी छाई है।
तुलसी तरुवर बिबिध सुहाए। कहुं कहुं सियं कहुं लखन लगाए।। बट छायां वेदिका बनाई। सिय निज पानि सरोज सुहाई।।_अर्थ_वहां तुलसी जी के बहुत _से सुन्दर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं_कहीं सीताजी और कहीं लक्ष्मणजी ने लगाये हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने कर कमलों से सुन्दर वेदी बनायी है।
जहां बैठि मुनिगण सहित नित सिय रामु सुजान। सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।_अर्थ_जहां सुजान श्रीसीतारामजी मुनियों के वृंद समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा इतिहास सुनते हैं।
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगें भरत बिलोचन बारी।। करत प्रणाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।_अर्थ_सखा के वचन सुनकर वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ गया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वती जी भी सकुचाती है।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहु पारसु पायउ रंका।। रज सिर धरि हियं नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के चरण चिन्ह देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।। सबहिं सनेह बिबस मग भूला। कहि सउपंथ सुर बरिसहिं फूला।।_अर्थ_भरतजी की अत्यन्त अनिवर्चनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ ( वृक्षादि ) जीव प्रेम में मग्न हो गये। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुन्दर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।। होता न भूतल भाई भरत को। अचरज सचर चर अचर करत को।।_अर्थ_भरत के प्रेम की इस स्थिति को देखकर सिद।ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गये और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि इस पृथ्वीतल पर भरत का जन्म ( अथवा प्रेम ) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता ?
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर। मति प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।_अर्थ_प्रेम अमृत है, बिरह मन्दरआचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिये स्वयं ( इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरहरूपी मन्दराचल से ) मथकर यह प्रेमरूपी अमृत प्रकट किया है।
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।। भरत दीख प्रभु आश्रम पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।_अर्थ _सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को इस सघन वन की आड़ के कारण ढनलक्ष्मणजी नहीं देख पाये। भरतजी ने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के समस्त सुमंगला के धाम और सुन्दर पवित्र आश्रम को देखा।
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।। देखें भरत लखन प्रभु आगे। पूछें बचन कहत अनुरागे।।_अर्थ_आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दु:ख और दाह ( जलन ) मिट गया, मानो जोगी को परमार्थ ( परम तत्व ) की प्राप्ति हो गयी। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं ( पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं )।
सीस जटा कटि मुनि पट बांधे। तूने कसें कर सर्च धनु कांधे।। बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राज्य रघुराजू।।_अर्थ_ सिर पर जटा है। कमर में मुनियों का ( वल्कल ) वस्त्र बांधें हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्रीरघुनाथजी विराजमान हैं।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिवेष कीन्ह रति कामा।। कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि भरत हंसी हेरत।।_अर्थ_श्रीरामजी के वलकल वस्त्र हैं, जटा धारण किये हैं, श्याम शरीर है। ( सीतारामजी ऐसे लगते हैं ) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेश धारण किया हो। श्रीरामजी अपने कर_कमलों से धनुष _बाण फेर रहे हैं, और हंसकर देखते ही जी का जलन हर लेते हैं ( अर्थात् जिसकी ओर भी एकबार हंसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनन्द और शान्ति मिल जाती है। )
लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचन्दु। ग्यान
सभां जनु तनु धरें गति सच्चिदानंदु।।_अर्थ_सुन्दर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद श्रीरामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात् भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं।
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।। पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं।।_अर्थ_ छोटे भाई शत्रुध्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन ( प्रेम में ) मग्न हो रहा है। हर्ष_शोक, सुख_दुख आदि सब भूल गये हैं। 'हे नाथ ! रक्षा कीजिये, हे गोसाईं ! रक्षा कीजिये, ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े।
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियं जाने।। बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।_अर्थ_प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। ( वे श्रीरामजी की ओर मुंह किये हुए खड़े थे, भरतजी पीठ_पीछे थे; इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्रीरामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता।
मिलि न जाई नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।। रहे राखि सेवा पर भालू चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।_अर्थ_न तो ( क्षणभर के लिये भी सेवा से पृथक् होकर ) मिलते ही बनता है और न ( प्रेमवश ) छोड़ते ( उपेक्षा करते ) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति ( दुविधा)_का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गये ( सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे ) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी ( पतंग उड़ानेवाला ) खींच रहा हो।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनामु करत रघुनाथा।। उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। कहुं पट कहुं निषंग धनु तीरा।। लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा_हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्रीरघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण ।
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान। भरत राम की मिलनि लखि बिसरू सबहिं अपान।।_अर्थ_ कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। भरतजी और श्रीरामजी के मिलने की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गयी।
मिलनि प्रीति किमी जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।। परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अस्मिता बिसराई।।_अर्थ_ मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाय ? वह तो कबिकुल के लिये कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई ( भरतजी और श्रीरामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।। कबिहि अरथ आखर बलु सांचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।_अर्थ_कहिये, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रगट करें ? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करें ? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहं न जाइ मनु बिधि हरि हर को।। सो मैं कुमति कहुं केहि भांती। बाज सुराग कि गांडर तांती।।_अर्थ_भरतजी और श्रीरघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहां ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूं ! भला गांडर की तांत से भी कहीं सुन्दर राग बज सकता है ? ( तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गांडर कहते हैं।
मिलनि बिलोके भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।। समुझाए सुरगुरु जग जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।_अर्थ_भरतजी और श्रीरामजी के मिलने का ढ़ंग देखकर देवता भयभीत हो गये, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देवगुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे।
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