बिषम बिषाद तोरावती धारा। भय भ्रम भंवर अबर्त अपारा।। केवट बुध बिंद्रा बड़ि नावा। सकहिं न खेइ एक नहिं आवा।।_अर्थ_ भयानक विषाद ( शोक ) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम ( मोह ) ही उसके असंख्य भंवर और चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है। परंतु वे उसे के नहीं सकते हैं, ( उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं ), किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियं हारे।। आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुं उठी अंबुधि अकुलाई।।_अर्थ_ वन में विचरनेवाले बेचारे कोल किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गये हैं। यह करुणा_नदी जब आश्रम समुद्र में जाकर मिलीं तो मानो वह समुद्र अकुला उठा ( खौल उठा )।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ज्ञानु न धीरज लाजा।। भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही।।_अर्थ_दोनों राजसमाज शोक से व्याकुल हो गये। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथ जी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं।
अवगाही सोक समुद्र सओचहइं नारि नर व्याकुल महा। दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा।। सुर सिद्ध तापस जओगइजन मुनि देखि दशा बिदेह की। तुलसी न समर्थ कोई जो तरि सकै सहित सनेह की।।_अर्थ_ शोक_समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री _पुरुष महान् व्याकुल होकर सोच ( चिंता ) कर रहे हैं। ये सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया ? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगण में कोई भी समर्थ नहीं है जो उस समय विदेह ( जनकराज )_की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके ( प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके )।
किए अमित उपदेसु जहां तहां लोगन्ह मुनिबरन्ह। धीरजु धरइअ नरएस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन।।_अर्थ_जहां_तहां श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिये और वशिष्ठजी ने विदेह ( जनकजी )_से कहा_हे राजन् ! आप धैर्य धारण कीजिये।
जासु ज्ञानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा।। तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम स्नेह बड़ाई।।_अर्थ_ जिस राजा जनक का ज्ञानरूपी सूर्य भव ( आवागमन ) रूपी रात्रि का नाश कर देता है, और जिसकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती है ( आनंदित करती है ), क्या मोह और ममता उसके निकट भी आ सकते हैं ? यह तो श्रीसीतारामजी के प्रेम की महिमा है ! ( अर्थात् राजा जनक की यह दशा श्रीसीतारामजी के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह_ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह_ममता को पार कर चुके हैं उनपर भी श्रीसीतारामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाते बिना नहीं रहता।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने।। राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभां बड़ आदर तासू।।_अर्थ_बिषयी, साधक और ज्ञानवान् सिद्ध पुरुष_जगत् में ये तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताये हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्रीरामजी के स्नेह से सरस ( सराबोर ) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है।
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनाल बिनु जिमि जलजानू।। मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए।।_अर्थ_श्रीरामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठजी ने विदेहराज ( जनकजी )_को बहुत प्रकार से समझाया। तदनन्तर सब लोगों ने श्रीरामजी के घाट पर स्नान किया।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासर बीतेउ बिनु बारी।। पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू।।_अर्थ_स्त्री_पुरुष सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया ( भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया )। पशु_पक्षी और हिरनों तक ने कुछ अहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बीसहित का तो विचार ही क्या किया जाय ?
दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात। बैठे सब बट बिटप तर मन मलिन कृस गात।।_अर्थ_निमिराज जनकजी और रघुराज श्रीरामचन्द्रजी तथा दोनो ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं।
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिला पति नगर निवासी।। हंस हंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथ सोधा।।_अर्थ_ जो दशरथ जी की नगरी अयोध्या के रहनेवाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहनेवाले ब्राह्मण थे, तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान रखा था,।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धर्म नय बिरति बिबेका।। कौशिक कहा कि कथा पुरानीं। समुझाए सब सभा सउबआनईं।।_अर्थ_ वे सब धर्म, नीति, वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएं ( इतिहास ) कह-कहकर सारी सभा को सुन्दर वाणी से समझाया।
तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सब रहेऊ।। मुनि कहा उचित कहत रघुराई। गये बीती दिन पहले अढ़ाई।।_अर्थ_ तब श्रीरघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ ! कल सब लोग बिना जल पीये ही रह गये थे ( अब कुछ आहार करना चाहिये )। विश्वामित्रजी ने कहा कि श्रीरघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं। ढ़ाई पहर दिन ( आज भी ) बीत गया।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। कहां उचित नहिं असन अनाजू।। कहा भूप भल सबहिं सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।_अर्थ_ विश्वामित्र का रुख देखकर तेरहुतिराज जनकजी ने कहा_यहां अन्न खाना उचित नहीं है। राजा का सुन्दर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले।
तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार। लि आए बनचर बिपुल भरि भरि कांवरि भार।।_अर्थ_ उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत _से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहंगियों और बोझों में भर_भरकर वनवासी ( कोल_किरात ) लोग ले आये।
कामद गिरि में राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।। सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनंद अनुरागा।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देनेवाले हो गये। वे देखने मात्र से ही दु:खों को सर्वथा हर लेते थे। वहां के तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।। तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।_अर्थ_बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलों से युक्त हो गये। पक्षी, पशु और भौंरे अनुकूल बोलने लगे। उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह ( आनन्द ) था, सब किसी को सुख देनेवाली शीतल, मन्द सुगन्ध हवा चल रही थी।
जाइ न बरनी मनोहरताई। जनु महि करता जनक पहुनाई।। तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।। देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहं तहं पुरजन उतरन लागे।। दल फल फूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।_अर्थ_वन की मनोहरताई वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजी की पहुनाई कर रही है। तब जनकपुरवासी सब लोग नहा_नहाकर श्रीरामचन्द्रजी, जनकजी और मुनि की आज्ञा पाकर सुंदर वृक्षों को देख_देखकर
प्रेम में भरकर जहां _तहां उतरने लगे। पवित्र, सुन्दर और अग्नि के समान ( स्वादिष्ट ) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और कन्द_