Saturday, 2 June 2018

बालकाण्ड

होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ। तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ।।___अर्थ___वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइये। हे दीनदयालु ! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हित चाहनेवाला नहीं देखता।

सुनु नृप बिबिध जगत जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं।। अहई एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई।।___अर्थ___[ तपस्वी ने कहा___] हे राजन् ! सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्टसाध्य हैं ( बड़ी कठिनाई से बनने में आते हैं ) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों ( उसकी सफलता निश्चित नहीं है ) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है; परन्तु उसमें भी एक कठिनता है।

मम अधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई। आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ।।___अर्थ___हे राजन् ! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो ही नहीं सकता। जबसे मैं पैदा हुआ हूँ, तबसे आजतक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया।

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू।। सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी।।___अर्थ___परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल बानी से बोला, हे नाथ ! बेदों में ऐसी नीति कही है कि___

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहिं।। जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू।।___अर्थ___बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सुरों पर सदा तृण ( घास ) को धारण किये रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है, और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किये रहती है।

अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। मोहि लागि दुख सहिय प्रभु सज्जन दीनदयाल।।___अर्थ___ ऐसा रहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिये। [ और कहा___] हे स्वामी ! कृपा कीजिये। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। [ अतः ] हे प्रभो ! मेरे लिये इतना कष्ट [ अवश्य ] सहिये।

जानि नृपहिं आपन अधीना। बोला तापस कपट प्रबीना।। सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही।।___अर्थ___रााजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला___ हे राजन् ! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत् में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

अवसि राज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा। जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलहिं तबहिं जब करिअ दुराउ।।___अर्थ___मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा; [ क्योंकि ] तुम मन, वाणी और शरीर [ तीनों ] से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्र का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किये जाते हैं।

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई।। अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई।।___अर्थ___हे नरपति ! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे तुम परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो_जो खायेगा, सो_सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जायगा।

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ।। जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू।।___अर्थ___यही नहीं, उन ( भोजन करनेवालों ) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन् ! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जायगा। हे राजन् ! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर [ भोजन कराने ] का संकल्प कर लेना।

नित नूतन द्विज सहस सर बरेहु सहित परिवार। मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहि करबि जेवनार।।___अर्थ___नित्य नये एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्बसहित निमंत्रण करना। मैं तुम्हारे संकल्प [ के काल अर्थात् एक वर्ष ] तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा।

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें।। करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।।___ अर्थ___ हे राजन् ! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जायँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा_पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग ( संबंध ) से देवता भी सहज ही वश में हो जायँगे।

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ।। तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया।।___अर्थ___ एक और पहचान तुमको बताइये देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन् ! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा।

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना।। मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा।।___अर्थ___तप के बल से उसे अपने समान बनाकर उसे एक वर्ष तक यहाँ रखूँगा और हे राजन् ! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा।

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे।। मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता।।___हे राजन् ! रात बहुत बीत गयी, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा।

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। तब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि।।___अर्थ___मैं वही ( पुरोहित का ) वेष धरकर आऊँगा। जब एकान्त में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना।

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी।। श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमी सोव सोच अधिकाई।।___ अर्थ___राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट_ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, [  उसे ] खूब ( गहरी ) नींद आ गयी। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिंता हो रही थी।

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहिं भुलावा।। परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा।।___ अर्थ___[ उसी समय ] वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल_प्रपंच जानता था।

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई।। प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे।।___अर्थ__ उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था।

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा।। जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ।।___अर्थ___उस दुष्ट ने पिछला वैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी ( षडयंत्र  किया )  और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा ( प्रतापभानु ) कुछ भी न समझ सका।

रिपु तेजसि अकेल अपि लघु करि न गनिअ न ताहु। अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु।।___ अर्थ___तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो उसे छोटा नहीं समझना चाहिये। जिसका सिरमात्र बचा था, वह राहू आजतक सूर्य_ चन्द्रमा को दुःख देता है।

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी।। मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई।।___ अर्थ___ तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनायी, तब राक्षस आनन्दित होकर बोला।

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा।। परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। पुनि औषध बिआधि बिधि खोई।।___अर्थ___ हे राजन् ! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार [ इतना ] काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया [ समझो ]। तुम अब चिंता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया।

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई।। तापस नृपहिं बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी।।___ अर्थ___ कुलसहित शत्रु को जड़_ मूल से उखाड़_बहाकर [ आज से ] चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। [ इस प्रकार ] तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला।

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता।। नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हय गृहँ बाँधेसि बाजि बनाई।।___ अर्थ ___उसने प्रतापभानु राजा को घोड़ेसहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से,घुड़साल में बाँध दिया।

राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि। लै राखेसि गिरि खोज महुँ माया करि मति भोरि।।___ अर्थ ___फिर वह राजा के पुरोहित को  उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा।

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।। जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवनु अति अचरज माना।।___ अर्थ___ वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुन्दर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना।

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी।। कानन गयउ बाजि चढि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं।।___ अर्थ ___ मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धारे से उठा, जिसमें रानी न जान पावे। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री_पुरुष ने नहीं जाना।

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा।। उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा।।___ अर्थ ___ दोपहर बीत जाने पर राजा आया। घर_घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह [ अपने ] उसी कार्य का स्मरण कर उसे आश्चर्य से देखने लगा।

जुग सम नृपहिं गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी।। समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मरे सब कहि समुझावा।।___ अर्थ___राजा को तीन दिन तीन युग के समान बीते। कपटी मुनि के चरणों में उसकी मति लीन रही। समय जानकर पुरोहित रूपी राक्षस आया और एकान्त में ले जाकर सब बातें समझा दिया।

नृप हरषेउ पहिचानि गुरु, भ्रम बस रहा न चेत। बरे तुरत कर सहज बर, बिप्र कुटुम्ब समेत।।___ अर्थ___राजा गुरु को पहचानकर प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसको कुछ ज्ञान न रहा। तुरन्त एक लाख श्रेष्ठ ब्राह्मणों को कुटुम्ब के साथ न्योता दिया।

उपरोहित जेवनार बनाई। छव रस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।। मायामय जेहि कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकै न कोई।।___ अर्थ___पुरोहित ने छह रस के चार प्रकार के भोजन, जैसे सूपशास्त्र में रहे गये हैं, बनाये। अपनी राक्षसी माया से अगण्य रसोई तैयार की।

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खली साँधा।। भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाये। पद पखारि सादर बैठाये।।___ अर्थ___अनेक प्रकार के पशुओं की साँस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का माँस भी मिला दिया। भोजन के लिये सब ब्राह्मणों को बुलाया और चरण धोकर आदर सहित सबको बैठाया।

परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला। बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।___ अर्थ____राजा के परोसने लगते ही उसी समय आकाशवाणी हुई___ हे ब्राह्मणों ! तुम सब उठकर अपने_ अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इसके खाने से बड़ी हानि है।

भयउ रसोई भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि विस्वासू।। भूप सकल मति मोह भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी।।___ अर्थ___इसमें ब्राह्मणों का माँस मिला हुआ है। यह सुन विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा घबरा गया। उसकी बुद्धि मोह से ऐसी भ्रमित हो गई कि होनहार के वश मुख से बात नहीं निकली।

बोले बिप्र सकोप तब, नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप, मूढ़ सहित परिवार।।___ अर्थ___तब ब्राह्मणों ने कुछ विचार नहीं किया, और कोपकर बोले___ अरे मूढ़ राजा ! तू अपने कुटुम्ब समेत जाकर राक्षस हो जा।

छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई।। ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा।।___ अर्थ___रे क्षत्रियाधम ! तू ब्राह्मणों को बुलाकर सपरिवार भ्रष्ट करना चाहता था। ईश्वर ने हमारा धर्म बचा लिया। अब तू सपरिवार नष्ट हो जा।

सम्बत मध्य मास तब होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ।। नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि हर गिरा अकासा।।___ अर्थ___एक साल के भीतर तेरा नाश हो जायगा, तेरे वंश में जल देनेवाला भी कोई न रहे। श्राप सुनकर राजा डर से व्याकुल हो गया। फिर गम्भीर आकाशवाणी हुई___।

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा।।चकित बिप्र सब सुनि नभ बानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी।___ अर्थ___हे ब्राह्मणों ! तुमने विचारकर श्राप नहीं दिया, राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया है। सब ब्राह्मण आकाशवाणी सुनकर भौंचक्के हो गये। तब राजा वहाँ गया जहाँ भोजन बना था।

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