Thursday, 21 June 2018

बालकाण्ड

गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी।। सोइ मय दानव बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा।।___ अर्थ___समुद्र के बीच में त्रिकूट नाम के पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ,एक बड़ा भारी किला था। [ महान् मायावी और निपुण कारीगर ] मत दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उनमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।

भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि  सक्रनिवासा।। तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका।।___अर्थ___ जैसा नागकुल के रहने की [ पाकाललोक ] में भोगावतीपुरी है और इन्द्र के रहने की [ स्वर्गलोक में ] अमरावतीपुरी है, उससे भी अधिक सुन्दर और बाँका वह दुर्ग था। जगत् में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ।

खाई सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि आव। कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव।।___ अर्थ___उसे चारों ओर से समुद्र की गहरी खाई घेरे हुए है। उस [ दुर्ग ] के मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता।

हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ।।___अर्थ___भगवान् की प्रेरणा से जिस कल्पना में जो राक्षसों का राजा ( रावण ) होता है, वही शूर, प्रतापी,  अतुलित बलवान अपनी सेनासहित उस पुरी में बसता है।

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संहारे।।अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे।।___अर्थ___[ पहले ] वहाँ बड़े_बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इन्द्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक ( यक्षलोग ) रहते हैं।


दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।। देखि प्रकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई।।___अर्थ____रावण को कहीं ऐसी खबर मिली तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गये।


फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा।। सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्ही तहाँ कानून रजधानी।।___ अर्थ___ तब रावण ने घूम_फिरकर सारा नगर देखा, उसकी [ स्थानसंबंधी ] चिंता मिट गयी और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और [ बाहरवालों के लिए ] दुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की।

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे।। एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।___अर्थ___योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया।

कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ। मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ।।___ अर्थ___फिर उसने जाकर [ एक बार ] खिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया।

सुख संपति सुख सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई। नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमी प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।___अर्थ___सुख, संपत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई___ये सब उसके नित्य नये [ वैसे ही बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।

अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।। करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।___अर्थ___ अत्यन्त बलवान् कुम्भकर्ण_सा उसका भाई था, जिसके जोड़ का योद्धा जगत् में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छः महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था।

जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई।। समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित वीर बलवाना।।____ अर्थ____यदि वह प्रतिदिन भोजन करता, तब तो संपूर्ण विश्व ही चौपट ( खाली ) हो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। [ लंका में ] उसके ऐसे असंख्य बलवान् वीर थे।

बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू।। जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।।___अर्थ___मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत् के योद्धाओं में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो [ उसके भय से ]  नित्य भगदड़ मची रहती थी।

कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। एक एक जग जीति तक ऐसे सुभट निकाय।।___अर्थ___[ इनके अतिरिक्त ] दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत् को जीत सकते थे।

कामरूप जानहीं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।। दसमुख बैठ सभा एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा।।___ अर्थ___सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और [ आसुरी ] माया जानते थे। उनके दया_धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा।

सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती।। सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।___अर्थ___पुत्र_पौत्र, कुटुम्बी और सेवक ढेर_के_ढेर थे। [ सारी ] राक्षसों की जातियों को तो जिन ही कौन सकता था ? अपनी सेना को देखकर स्वभाव से अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला____

सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।। ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।___अर्थ___हे राक्षसों के दलों ! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान् शत्रु को देखकर भाग जाते हैं।

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।। द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।___ अर्थ___उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। [ उनके बल को बढ़ानेवाले ] ब्राह्मणभोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध___इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो।

छुधा, छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।___अर्थ___ भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भली_भाँति अपने अधीन करके [ सर्वथा प्रावधान करके ] छोड़ दूँगा।

मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सीख बसु बयरु बढ़ावा।। जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।___अर्थ___फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा_पढ़ाकर उसके बल और [ देवताओं के प्रति ] प्रभाव को उत्तेजना दी। [ फिर कहा___] जे पुत्र !  जो देवता रण में धीर और बलवान् हैं और जिन्हें लड़ने का अभिमान है।

तिन्हहिं जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।। एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।___अर्थ____उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया।

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी।। रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।___अर्थ____रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देनरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोधसहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं ( भागकर सुमेरु की गुफाओं में आश्रय लिया )।

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।। पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारी पचारी।।___अर्थ___दिक्पालों के सारे सुन्दर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार_बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार_ललकारकर गालियाँ देता था।

रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा।। रबि ससि पवन वरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।___अर्थ___रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत् भर में दौड़ता रुका, परन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, काल, अग्नि और यम आदि सब अधिकारी,

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबहिं के पंथहिं लागा।। ब्रह्मसृष्टि जहँ लगी तनुधारी। दसमुख बसबर्तीं नर नारी।।___अर्थ___किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग___सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया ( किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया )।  ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री_पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गये।

आयसु करहिं सकल भयभीता। नावहिं आइ नित चरन बिनीता।।___अर्थ___डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सीस नवाते थे।

भुजबल बिस्व बस्य करि कोउ न सुतंत्र। मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।___अर्थ___उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। [ इस प्रकार ] मण्डलीक राजाओं को शिरोमणि ( सर्वभौम सम्राट ) रावण अपने इच्छानुसार राज करने लगा।

देव जच्छ गंधर्ब नर किन्नर नाग कुमारि। जीति बरी निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।___अर्थ____देवता, यक्ष, गन्धर्व, मनुष्य किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत_सी अन्य सुन्दरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया।

इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।। प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।___ अर्थ___मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने ( मेघनाद ने )  मानो पहले से ही कर रखा था ( अर्थात् रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की )। जिनको [ रावण ने मेघनाद से ] पहले ही आज्ञा दे रखी थीं, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो।

देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।। करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।___अर्थ___सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे।

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।। जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।___अर्थ___जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस_जिस स्थान में वे गौ और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आज लगा देते थे।

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुर मान न कोई।। नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।___ अर्थ___[ उनके डर से ] कहीं भी शुभ आचरण ( ब्राह्मणभोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि )नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे।

जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा। आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।। अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना। तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।___अर्थ___ जप, जोग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में ( देवताओं के ) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता तो [ उसी समय ] स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में भी सुनने में नहीं आता था; जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।

बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहिं कवनि मिति।।___अर्थ___राक्षसलोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना ।










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Tuesday, 19 June 2018

बालकाण्ड

तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा।। सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।।___अर्थ___वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण था। तब राजा लौट आया, मन में बड़ा सोच हुआ। फिर राजा ने सब वृतांत ब्राह्मणों को सुनाया और मारे डर के घबराकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

भूपति भावी मिटा नहिं, जदपि न दूषन तोर। किएँ अन्यथा होइ नहिं, बिप्रश्राप अति घोर।।___ अर्थ___ हे राजन् ! होनिहार नहीं मिटती, यद्यपि तुम्हारा अपराध नहीं है। ब्राह्मणों का महाघोर श्राप किसी के लिये अन्यथा नहीं हो सकता।

अस कहा सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए। सोचहिं दूषन दैवहिं देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं।।___ अर्थ___ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गये। यह सब समाचार नगर के लोगों ने सुना तो वे चिंता करने और दाँव को दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते कौवा वीना दिया, ऐसे धर्मात्मा राजा को राजा को राक्षस बना दिया।

उपरोहितहिं भवन पहुँचाई। असुर तापसहिं खबर जनाई।। तेहि खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए।।___ अर्थ__ पुरोहित को घर पहुँचाकर उस असुर ने कपटी मुनि को सब हाल कह सुनाया। तब उस दुष्ट ने जहाँ_तहाँ पत्र भेज दिये तो अपनी_अपनी सेना सजाकर सब राजा चढ़ आये।

घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति हित होइ लराई।। जूझे सकल निपट करि करनी। बन्धु समेत परेउ नृप धरनी।।___ अर्थ___उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। अनेक प्रकार से नित्य लड़ाई होने लगी। सब योद्धा रण में जूझ गए, राजा भाइयों सहित पृथ्वी पर गिरकर मारा गया।

सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्र श्राप किमि होइ असाँचा।। रिपुजिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई।।___ अर्थ___ सत्यकेतु के वंश में कोई नहीं बचा, ब्राह्मणों का श्राप कैसे असत्य हो सकता था ? सब राजा शत्रु को जीतकर,  नगर फिर से बसाकर, विजय और कीर्ति को पाकर अपने_अपने नगर को चले।

भरद्वाज सुनु जाहि जब, होइ विधाता बाम। धूरि मेरुसम जनक जम, ताहि ब्याल सम दाम।।___अर्थ___याज्ञवल्क्यजी कहते हैं___ हे भरद्वाज ! सुनो, जब सबका विधाता उल्टा होता है तब उसको धूल मेरु पर्वत के समान, पिता यम के समान और रस्सी साँप के समान हो जाती है।

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा।। दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा। रावण नाम बीर बरिदण्डा।।___ अर्थ___ हे मुनि ! सुनो, वही राजा ( प्रतापभानु ) समय पाकर परिवारसहित रावण नाम राजा राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ हुईं और वह बड़ा शूरवीर हुआ।

भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुम्भकरन बलधामा।। सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बन्धु लघु तासू।।___ अर्थ____राजा का अरिमर्दन नामक छोटा भाई बलवान कुम्भकर्ण हुआ और जो धर्मरुचि नामवाला मंत्री था, उसका वह सौतेला छोटा भाई हुआ।

कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका।। कृपारहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं विश्व परितापी।।___अर्थ___वे सब कामना के अनुसार रूप धारण करनेवाले, दुष्ट स्वभाव, अनेक जाति के, डेढ़े, डरावने, महा अज्ञानी, दयाहीन, हिंसक, पापी और संसार_भर को दुःख देनेवाले थे। उनकी दुष्टता कही नहीं जा सकती।

उपजे जदपि पुलस्त्यकुल, पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस, भए सकल अघरूप।।___अर्थ___यद्यपि वे पुलस्त्यजी के पवित्र, शुद्ध और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए तथापि ब्राह्मणों के श्राप के कारण वे महापापी हुये।

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं वरनि सो जाई। गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु हर प्रसन्न मैं ताता।।___अर्थ___तीनों भाइयों ने अनेक प्रकार से महाकठिन तप किया जिसका वर्णन नहीं हो सकता। तप देखकर ब्रह्माजी उनके समीप गए और कहा___हे तात ! वर माँगो, मैं प्रसन्न हूँ।

करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा।। हम काहू के मरहिं न मारेे। बानर मनुज जाति दुइ बारें।।___अर्थ____तब विनती करके चरण पकड़कर रावण बोला___ हे जगदीश्वर ! सुनिए, नामक और मनुष्य इन दोनों को छोड़कर हम किसी से न मरें।

एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्मा मिलि तेहि हर दीन्हा।। पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।।___ अर्थ___( शिवजी कहते हैं कि )___मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर वरदान दिया कि ‘एवमस्तु’ तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्माजी कुम्भकर्ण के पास गए। उसे देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।

जौं एहि खल नित करब अहारू। होइहिं सब उजारि संसारू। सारद प्रेरि तासु मति फेरी। माँगेसि नींद मास षट केरी।।___ यदि यह दुष्ट नित्य भोजन करेगा तो सब संसार उजाड़ हो जायगा। अतः सरस्वती को भेजकर उसकी मति फेर दी ( जिसमें उसने छः महीने की नींद माँगी।

गये बिभीषन पास पुनि, कहेउ पुत्र हर मागु। तेहिं मांगेउ भगवन्त पद, कमल अमल अनुरागु।।___ अर्थ___ फिर ब्रह्माजी विभीषण रे पास गये और कहा___ हे पुत्र ! वर माँगो। उसने भगवान के चरण कमलों में निर्मल ( निष्काम और अनन्य ) प्रीति माँगी।

तिन्हहिं देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए।। मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुन्दरि नारि ललामा।।___अर्थ___उन्हें वर देकर ब्रह्माजी चले गये। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने घर आए। मत दानव की कन्या मंदोदरि परम सुन्दरी और स्त्रियों में श्रेष्ठ थी।

सोइ मँय दीन्ही रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी। हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बन्धु बिआहेसि जाई।।___अर्थ___वह कन्या मयदानव ने रावण को यह समझकर दी कि राक्षसराज की पटरानी होगी। अच्छी स्त्री को पाकर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह किया।


Saturday, 2 June 2018

बालकाण्ड

होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ। तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ।।___अर्थ___वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइये। हे दीनदयालु ! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हित चाहनेवाला नहीं देखता।

सुनु नृप बिबिध जगत जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं।। अहई एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई।।___अर्थ___[ तपस्वी ने कहा___] हे राजन् ! सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्टसाध्य हैं ( बड़ी कठिनाई से बनने में आते हैं ) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों ( उसकी सफलता निश्चित नहीं है ) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है; परन्तु उसमें भी एक कठिनता है।

मम अधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई। आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ।।___अर्थ___हे राजन् ! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो ही नहीं सकता। जबसे मैं पैदा हुआ हूँ, तबसे आजतक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया।

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू।। सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी।।___अर्थ___परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल बानी से बोला, हे नाथ ! बेदों में ऐसी नीति कही है कि___

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहिं।। जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू।।___अर्थ___बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सुरों पर सदा तृण ( घास ) को धारण किये रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है, और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किये रहती है।

अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। मोहि लागि दुख सहिय प्रभु सज्जन दीनदयाल।।___अर्थ___ ऐसा रहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिये। [ और कहा___] हे स्वामी ! कृपा कीजिये। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। [ अतः ] हे प्रभो ! मेरे लिये इतना कष्ट [ अवश्य ] सहिये।

जानि नृपहिं आपन अधीना। बोला तापस कपट प्रबीना।। सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही।।___अर्थ___रााजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला___ हे राजन् ! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत् में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

अवसि राज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा। जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलहिं तबहिं जब करिअ दुराउ।।___अर्थ___मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा; [ क्योंकि ] तुम मन, वाणी और शरीर [ तीनों ] से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्र का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किये जाते हैं।

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई।। अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई।।___अर्थ___हे नरपति ! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे तुम परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो_जो खायेगा, सो_सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जायगा।

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ।। जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू।।___अर्थ___यही नहीं, उन ( भोजन करनेवालों ) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन् ! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जायगा। हे राजन् ! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर [ भोजन कराने ] का संकल्प कर लेना।

नित नूतन द्विज सहस सर बरेहु सहित परिवार। मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहि करबि जेवनार।।___अर्थ___नित्य नये एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्बसहित निमंत्रण करना। मैं तुम्हारे संकल्प [ के काल अर्थात् एक वर्ष ] तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा।

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें।। करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।।___ अर्थ___ हे राजन् ! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जायँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा_पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग ( संबंध ) से देवता भी सहज ही वश में हो जायँगे।

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ।। तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया।।___अर्थ___ एक और पहचान तुमको बताइये देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन् ! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा।

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना।। मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा।।___अर्थ___तप के बल से उसे अपने समान बनाकर उसे एक वर्ष तक यहाँ रखूँगा और हे राजन् ! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा।

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे।। मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता।।___हे राजन् ! रात बहुत बीत गयी, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा।

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। तब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि।।___अर्थ___मैं वही ( पुरोहित का ) वेष धरकर आऊँगा। जब एकान्त में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना।

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी।। श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमी सोव सोच अधिकाई।।___ अर्थ___राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट_ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, [  उसे ] खूब ( गहरी ) नींद आ गयी। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिंता हो रही थी।

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहिं भुलावा।। परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा।।___ अर्थ___[ उसी समय ] वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल_प्रपंच जानता था।

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई।। प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे।।___अर्थ__ उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था।

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा।। जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ।।___अर्थ___उस दुष्ट ने पिछला वैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी ( षडयंत्र  किया )  और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा ( प्रतापभानु ) कुछ भी न समझ सका।

रिपु तेजसि अकेल अपि लघु करि न गनिअ न ताहु। अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु।।___ अर्थ___तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो उसे छोटा नहीं समझना चाहिये। जिसका सिरमात्र बचा था, वह राहू आजतक सूर्य_ चन्द्रमा को दुःख देता है।

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी।। मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई।।___ अर्थ___ तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनायी, तब राक्षस आनन्दित होकर बोला।

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा।। परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। पुनि औषध बिआधि बिधि खोई।।___अर्थ___ हे राजन् ! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार [ इतना ] काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया [ समझो ]। तुम अब चिंता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया।

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई।। तापस नृपहिं बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी।।___ अर्थ___ कुलसहित शत्रु को जड़_ मूल से उखाड़_बहाकर [ आज से ] चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। [ इस प्रकार ] तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला।

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता।। नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हय गृहँ बाँधेसि बाजि बनाई।।___ अर्थ ___उसने प्रतापभानु राजा को घोड़ेसहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से,घुड़साल में बाँध दिया।

राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि। लै राखेसि गिरि खोज महुँ माया करि मति भोरि।।___ अर्थ ___फिर वह राजा के पुरोहित को  उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा।

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।। जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवनु अति अचरज माना।।___ अर्थ___ वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुन्दर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना।

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी।। कानन गयउ बाजि चढि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं।।___ अर्थ ___ मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धारे से उठा, जिसमें रानी न जान पावे। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री_पुरुष ने नहीं जाना।

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा।। उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा।।___ अर्थ ___ दोपहर बीत जाने पर राजा आया। घर_घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह [ अपने ] उसी कार्य का स्मरण कर उसे आश्चर्य से देखने लगा।

जुग सम नृपहिं गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी।। समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मरे सब कहि समुझावा।।___ अर्थ___राजा को तीन दिन तीन युग के समान बीते। कपटी मुनि के चरणों में उसकी मति लीन रही। समय जानकर पुरोहित रूपी राक्षस आया और एकान्त में ले जाकर सब बातें समझा दिया।

नृप हरषेउ पहिचानि गुरु, भ्रम बस रहा न चेत। बरे तुरत कर सहज बर, बिप्र कुटुम्ब समेत।।___ अर्थ___राजा गुरु को पहचानकर प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसको कुछ ज्ञान न रहा। तुरन्त एक लाख श्रेष्ठ ब्राह्मणों को कुटुम्ब के साथ न्योता दिया।

उपरोहित जेवनार बनाई। छव रस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।। मायामय जेहि कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकै न कोई।।___ अर्थ___पुरोहित ने छह रस के चार प्रकार के भोजन, जैसे सूपशास्त्र में रहे गये हैं, बनाये। अपनी राक्षसी माया से अगण्य रसोई तैयार की।

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खली साँधा।। भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाये। पद पखारि सादर बैठाये।।___ अर्थ___अनेक प्रकार के पशुओं की साँस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का माँस भी मिला दिया। भोजन के लिये सब ब्राह्मणों को बुलाया और चरण धोकर आदर सहित सबको बैठाया।

परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला। बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।___ अर्थ____राजा के परोसने लगते ही उसी समय आकाशवाणी हुई___ हे ब्राह्मणों ! तुम सब उठकर अपने_ अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इसके खाने से बड़ी हानि है।

भयउ रसोई भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि विस्वासू।। भूप सकल मति मोह भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी।।___ अर्थ___इसमें ब्राह्मणों का माँस मिला हुआ है। यह सुन विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा घबरा गया। उसकी बुद्धि मोह से ऐसी भ्रमित हो गई कि होनहार के वश मुख से बात नहीं निकली।

बोले बिप्र सकोप तब, नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप, मूढ़ सहित परिवार।।___ अर्थ___तब ब्राह्मणों ने कुछ विचार नहीं किया, और कोपकर बोले___ अरे मूढ़ राजा ! तू अपने कुटुम्ब समेत जाकर राक्षस हो जा।

छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई।। ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा।।___ अर्थ___रे क्षत्रियाधम ! तू ब्राह्मणों को बुलाकर सपरिवार भ्रष्ट करना चाहता था। ईश्वर ने हमारा धर्म बचा लिया। अब तू सपरिवार नष्ट हो जा।

सम्बत मध्य मास तब होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ।। नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि हर गिरा अकासा।।___ अर्थ___एक साल के भीतर तेरा नाश हो जायगा, तेरे वंश में जल देनेवाला भी कोई न रहे। श्राप सुनकर राजा डर से व्याकुल हो गया। फिर गम्भीर आकाशवाणी हुई___।

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा।।चकित बिप्र सब सुनि नभ बानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी।___ अर्थ___हे ब्राह्मणों ! तुमने विचारकर श्राप नहीं दिया, राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया है। सब ब्राह्मण आकाशवाणी सुनकर भौंचक्के हो गये। तब राजा वहाँ गया जहाँ भोजन बना था।