गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी।। सोइ मय दानव बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा।।___ अर्थ___समुद्र के बीच में त्रिकूट नाम के पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ,एक बड़ा भारी किला था। [ महान् मायावी और निपुण कारीगर ] मत दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उनमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा।। तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका।।___अर्थ___ जैसा नागकुल के रहने की [ पाकाललोक ] में भोगावतीपुरी है और इन्द्र के रहने की [ स्वर्गलोक में ] अमरावतीपुरी है, उससे भी अधिक सुन्दर और बाँका वह दुर्ग था। जगत् में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ।
खाई सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि आव। कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव।।___ अर्थ___उसे चारों ओर से समुद्र की गहरी खाई घेरे हुए है। उस [ दुर्ग ] के मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता।
हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ।।___अर्थ___भगवान् की प्रेरणा से जिस कल्पना में जो राक्षसों का राजा ( रावण ) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान अपनी सेनासहित उस पुरी में बसता है।
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संहारे।।अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे।।___अर्थ___[ पहले ] वहाँ बड़े_बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इन्द्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक ( यक्षलोग ) रहते हैं।
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।। देखि प्रकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई।।___अर्थ____रावण को कहीं ऐसी खबर मिली तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गये।
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा।। सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्ही तहाँ कानून रजधानी।।___ अर्थ___ तब रावण ने घूम_फिरकर सारा नगर देखा, उसकी [ स्थानसंबंधी ] चिंता मिट गयी और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और [ बाहरवालों के लिए ] दुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की।
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे।। एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।___अर्थ___योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया।
कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ। मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ।।___ अर्थ___फिर उसने जाकर [ एक बार ] खिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया।
सुख संपति सुख सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई। नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमी प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।___अर्थ___सुख, संपत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई___ये सब उसके नित्य नये [ वैसे ही बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।
अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।। करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा।।___अर्थ___ अत्यन्त बलवान् कुम्भकर्ण_सा उसका भाई था, जिसके जोड़ का योद्धा जगत् में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छः महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था।
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई।। समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित वीर बलवाना।।____ अर्थ____यदि वह प्रतिदिन भोजन करता, तब तो संपूर्ण विश्व ही चौपट ( खाली ) हो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। [ लंका में ] उसके ऐसे असंख्य बलवान् वीर थे।
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू।। जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।।___अर्थ___मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत् के योद्धाओं में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो [ उसके भय से ] नित्य भगदड़ मची रहती थी।
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। एक एक जग जीति तक ऐसे सुभट निकाय।।___अर्थ___[ इनके अतिरिक्त ] दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत् को जीत सकते थे।
कामरूप जानहीं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।। दसमुख बैठ सभा एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा।।___ अर्थ___सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और [ आसुरी ] माया जानते थे। उनके दया_धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा।
सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती।। सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।___अर्थ___पुत्र_पौत्र, कुटुम्बी और सेवक ढेर_के_ढेर थे। [ सारी ] राक्षसों की जातियों को तो जिन ही कौन सकता था ? अपनी सेना को देखकर स्वभाव से अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला____
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।। ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।___अर्थ___हे राक्षसों के दलों ! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान् शत्रु को देखकर भाग जाते हैं।
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।। द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।___ अर्थ___उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। [ उनके बल को बढ़ानेवाले ] ब्राह्मणभोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध___इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो।
छुधा, छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।___अर्थ___ भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भली_भाँति अपने अधीन करके [ सर्वथा प्रावधान करके ] छोड़ दूँगा।
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सीख बसु बयरु बढ़ावा।। जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।___अर्थ___फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा_पढ़ाकर उसके बल और [ देवताओं के प्रति ] प्रभाव को उत्तेजना दी। [ फिर कहा___] जे पुत्र ! जो देवता रण में धीर और बलवान् हैं और जिन्हें लड़ने का अभिमान है।
तिन्हहिं जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।। एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।___अर्थ____उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया।
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी।। रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।___अर्थ____रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देनरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोधसहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं ( भागकर सुमेरु की गुफाओं में आश्रय लिया )।
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।। पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारी पचारी।।___अर्थ___दिक्पालों के सारे सुन्दर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार_बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार_ललकारकर गालियाँ देता था।
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा।। रबि ससि पवन वरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।___अर्थ___रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत् भर में दौड़ता रुका, परन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, काल, अग्नि और यम आदि सब अधिकारी,
किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबहिं के पंथहिं लागा।। ब्रह्मसृष्टि जहँ लगी तनुधारी। दसमुख बसबर्तीं नर नारी।।___अर्थ___किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग___सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया ( किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया )। ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री_पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गये।
आयसु करहिं सकल भयभीता। नावहिं आइ नित चरन बिनीता।।___अर्थ___डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सीस नवाते थे।
भुजबल बिस्व बस्य करि कोउ न सुतंत्र। मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।___अर्थ___उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। [ इस प्रकार ] मण्डलीक राजाओं को शिरोमणि ( सर्वभौम सम्राट ) रावण अपने इच्छानुसार राज करने लगा।
देव जच्छ गंधर्ब नर किन्नर नाग कुमारि। जीति बरी निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।___अर्थ____देवता, यक्ष, गन्धर्व, मनुष्य किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत_सी अन्य सुन्दरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया।
इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।। प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।___ अर्थ___मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने ( मेघनाद ने ) मानो पहले से ही कर रखा था ( अर्थात् रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की )। जिनको [ रावण ने मेघनाद से ] पहले ही आज्ञा दे रखी थीं, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो।
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।। करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।___अर्थ___सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे।
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।। जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।___अर्थ___जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस_जिस स्थान में वे गौ और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आज लगा देते थे।
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुर मान न कोई।। नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।___ अर्थ___[ उनके डर से ] कहीं भी शुभ आचरण ( ब्राह्मणभोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि )नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे।
जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा। आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।। अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना। तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।___अर्थ___ जप, जोग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में ( देवताओं के ) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता तो [ उसी समय ] स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में भी सुनने में नहीं आता था; जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहिं कवनि मिति।।___अर्थ___राक्षसलोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना ।
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