Sunday, 27 November 2022

अयोध्याकाण्ड


पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनती करब कर जोरि। चिंता कवनिहुं बात कै तात करिअ जनि मोरि।।_अर्थ_आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही साथ जोड़कर विनती करियेगा कि हे तात ! आप मेरे किसी बात की चिंता न करें।





तुम्ह पुनि पितु हम अति हित मोरे। विनती करत तात कर जोरे।। सब बिधि सोई कर्तव्य तुम्हारें। दुख न पाव बिनु सोच हमारे।।_अर्थ_आप भी पिता के समान मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात ! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूं कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगों के सोच में दुख न पावें।





सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिखर निषादू।। पुनि कछु लखन कहि कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया।





सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखनु संदेस कहिअ जनि जाइ।। कह सुमंत्र पुनि भूप संदेसू। सहि न सकहिं सिय बिपिन कलेसू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी सकुचाकर अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्र जी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश न कहियेगा। सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेंगी। 






जेहिं बिधि अवध आव फिरि सीया। सोई रघुबरहि तुम्हहि करनीया।। नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।_अर्थ_अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्र जी को वही उपाय करना चाहिये। नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जिऊंगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती।





मइके ससुरे सकल सुख जबहिं जहां मनु भाव। तहं तब रहिहिं सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान।।_अर्थ_सीताजी के मायके ( पिता के घर ) और ससुराल में सब सुख है। जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, जबतक वे जब जहां जी चाहे, वहीं सुख से रहेंगी।





विनती भूप कीन्ह जेहिं भांती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।। पितु संदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह कोटि बिधि नाना।।_अर्थ_राजा ने जिस तरह ( जिस दीनता और प्रेम से ) विनती की है; वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने पिता का संदेश सुनकर सीताजी को करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार से सीख दी।





सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू।। सुनि पति बचन कहति  बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।_अर्थ_( उन्होंने कहा_) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिंता मिटी जाय। पति के वचन सुनकर जानकी जी कहती हैं_हे प्राणपति ! हे परम स्नेही ! सुनिये_






प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छांह किमि छेंकी।। प्रभा जाइ कहीं भानु बिहाई। कहां चन्द्रिका चन्दु तजि जाई।।_अर्थ_हे प्रभो ! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। ( कृपा करके विचार तो कीजिये ) शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है ? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहां जा सकती है ? और चांदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहां जा सकती है ?





पतिहि प्रेममय विनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।। तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देंउं फिरि अनुचित भारी।।_अर्थ_इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मंत्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं_आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूं, यह बहुत ही अनुचित है।




आरति बस सनमुख भईं बिलगु न मानब तात। आरजसुत पद कमल बिनु बालि जहां लगि तात।।_अर्थ_किन्तु हे तात ! मैं आर्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूं, आप बुरा न मानियेगा। आर्यपुत्र ( स्वामी ) के चरण कमलों के बिना जगत् में जहां तक नाते हैं सभी मेरे लिखे व्यर्थ हैं।





पितु वैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलिअ पद पीठा। सुख निधान अस पितु गृह मोरें। फिरि विहीन मन भाव न भोरें।।_अर्थ_मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं ( अर्थात् बड़े_बड़े राजा जिनके चरणों को प्रणाम करते हैं ) ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार से सुखों का भण्डार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता।





ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।। आगे होई जेहि सुरपति लेई। अवध सिंघासन आसनु देई।।_अर्थ_मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट हैं; इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिये स्थान देता है।





ससुर एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू।। बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहु सुखद न लागा।।_अर्थ_ऐसे ( ऐश्वर्य और प्रभावशाली ) ससुर; ( उनकी राजधानी )अयोध्या का निवास; प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएं_ये कोई भी श्रीरघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते।





 अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा।। कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्राणपति संगा।_अर्थ_दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियां, कोल, भील, हिरण और पक्षी_( प्राणपति ) श्रीरघुनाथजी के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले होंगे। 





सासु ससुर सन मोरि हुंति बिनती करि परि पायं। मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायं।।_अर्थ_अत:सास और ससुर के पांव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजियेगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें; मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूं।





 प्राणनाथ प्रिय देवर साथा। वीर धुरीन धरें धनु भाथा।। नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोच करिअ तनु भोरें।।_अर्थ_वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और ( बाणों से भरे ) तरकश धारण किये मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं। इससे न मुझे रास्ते की थकावट है, न भ्रम है और न मेरे मन में कोई दु:ख ही है। आप मेरे लिखे भूलकर भी सोच न करें।





 सुनि सुमंत्रु सिय सीतल बानी। भयउ बिकल तनु फनि मनि हानी।। नयन सूझ नहीं सुनई काना। कहि न सकई कछु अति अकुलाना।।_अर्थ_सुमंत्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गये जैसे सांप के मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से कुछ सुनाई नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गये, कुछ कह नहीं सकते।





राम प्रबोध कीन्ह बहुत भांती। तथापि होति नहीं सीतल छाती।। जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने उनका बहुत प्रकार से समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई। साथ ही चलने के लिये मंत्री ने अनकों यत्न किये ( युक्तियां पेश कीं ), पर रघुनंदन श्रीरामजी ( उन सब युक्तियों का ) यथोचित उत्तर देते गये।





मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन कर्म गति कछु न बसाई।। राम लखन सिय पदु सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवांई।।_अर्थ_ श्रीरामजी की आज्ञा मेटि नहीं जा सकती। कर्म की गति कठिन है, उसपर कुछ भी वश नहीं चलता। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन ( पूंजी ) गवांकर लौटे।





रथु हांकेउ हय राम तन  हेरि हेरि हिहिनाहिं। देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं।।_अर्थ_सुमंत्र ने रथ को हांका, घोड़े श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख_देखकर हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषाद लोग विषाद वश सिर धुन_धुनकर पछताते हैं।





जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु_पितु जिइहहिं कैसें।। बरबस राम सुमंत्र पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आपु तबु आए।।_अर्थ_ जिनके वियोग में पशु इस प्रकार से व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे ? श्रीरामचन्द्र जी ने जबरदस्ती सुमंत्रजी को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आये। 





मागी नाव न केवट आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।। चरन कमल रज कहुं सब कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।_अर्थ_श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा_मैंने तुम्हारा मर्म ( भेद ) जान लिया। तुम्हारे चरणकमलों की धूल के रिमेक सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देनेवाली कोई जड़ी है,





छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन में न काठ कठिनाई।। तरनिउ मुनि  घरिनी होई जाई। बाट परि मोरि नाव उड़ाई।।_अर्थ_जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुन्दरी स्त्री हो गयी ( मेरी नाव तो काट की है ) काट पत्थर से कठोर तो होता ही नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जायगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जायेगी, मैं लुट जाऊंगा ( अथवा रास्ता रुक जायेगा जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जायगी ) मेरे कमाने खाने की राह मारी जायगी।






एहिं प्रतिपालउं सबु परिवारू। नहिं जानीं कछु अउर कबारू।। जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।_अर्थ_मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन_पोषण करता हूं। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु ! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे अपने चरण_कमल पखारने ( धो लेने ) के लिये कह दो।





पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब सांची कहौं।। बरु तीर मारहुं लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।_अर्थ_हे नाथ ! मैं चरणकमल धोकर आपलोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं सच_सच कहता हूं। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारे तो भी जबतक मैं पैर धो नहीं लूंगा तब तक पार नहीं उतारूंगा।





सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।_अर्थ_केवट के प्रेम लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्रीरामचन्द्रजी जानकी जी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हंसे।





कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोई करु जेहिं तव नाव न जाई।। बेगि अनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहु पारू।।_अर्थ_कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्र जी केवट से मुस्कराकर बोले_भाई ! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाय। जल्दी पानी ला और पैर धो लें। देर हो रही है पार उतार दे।





 
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।। सोई कृपाल केवटहिं निहोरा। जेहिं जग किय तिहु पगहु ते थोरा।।_अर्थ_एक बार जिनका नाम स्मरण करने से ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं, और जिन्होंने ( वामनावतार में ) जगत् को तीन पग से भी छोटा कर दिया था ( दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था ), वही कृपालु श्रीरामचन्द्र जी ( गंगाजी से पार उतारने के लिये ) केवट का निहोरा कर रहे हैं।





पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोह मति करषी।  केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।_अर्थ_प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गयी थी ( कि ये साक्षात् भगवान् होकर भी पार उतारने के लिये केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं )। परन्तु ( समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान ) पदनखों को देखते ही ( उन्हें पहचानकर ) देवनदी गंगा जी हर्षित हो गयीं। ( वे समझ गयीं कि भगवान् नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया; और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होउंगी, यह विचार कर लें हर्षित हो गईं। ) केवट श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया।






पद पखारि जलपान करि आपु सहित परिवार। पितरु पार करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।_अर्थ_चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल ( चरणोदक ) को पीकर पहले ( उस महान पुण्य के द्वारा ) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्द पूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को गंगा के पार ले गया।





उतरि ठाढ़ में सुरसरि रेता। सीय राम गुह लखन समेता। केवट उतरिए दंडवत कीन्हां। प्रभुहिं सकुच एहि नहिं  कछु दीन्हा।।_अर्थ_निषादराज और श्रीलक्ष्मणजीसहित श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्र जी ( नाव से ) उतरकर गंगाजी की रेत ( बालू ) में खड़े हो गये। तब केवट ने उतरकर दण्डवत् की। ( उसको दण्डवत् करते देखकर ) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं।





फिर हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुंदरी मन मुदित उतारी।। कहेउ कृपाल लेहु उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।_अर्थ_पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनन्द से भरे मन से अपनी ( रत्नजड़ित ) ( ( अंगूठी से ) उतारी। कृपालु श्रीरामचन्द्र जी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिये।





नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।। बहुत काल मैं कीन्ह मंजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनिक भलि भूरी।।_अर्थ_( उसने कहा_) हे नाथ ! आज मैंने क्या नहीं पाया। मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गयी है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी।





अब कछु नाथ न चाहिए मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।। फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।_अर्थ_हे नाथ ! हे दीनदयाल ! आपकी कृपा से मुझे अब कुछ नहीं चाहिते। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूंगा।





बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियं नहिं कछु केवट लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामजी, लक्ष्मण जी और सीताजी ने बहुत आग्रह ( या यत्न ) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया।





तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पार्थिव नायउ माथा।। सिय सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी।।_अर्थ_फिर रघुकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी ने स्नान करके पार्थिवपूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा_हे माता ! मेरा मनोरथ पूरा कीजियेगा। 





पति देवर संग कुसल बहोरी। आई करौं जेहिं पूजा तोरी। सुनि सिय बिनती प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी।।_अर्थ_जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलपूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूं। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई_





सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही।। लोकप होहिं बिलोकत तोरें। मोहि सेवहिं सब बिधि कर जोरे़।।_ हे रघुवीर की प्रिय जानकी ! सुनो ! तुम्हारा प्रभाव जगत् में किसे नहीं मालूम है ? तुम्हारे ( कृपादृष्टि ) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियां हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं।





तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्ह मोहि दीन्ह बड़ाई।। तदपि देबि मैं देब असीसा। सफल होन हित निज बागीसा।।_अर्थ_तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनामी, यह तो मुजफर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी ! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिये तुम्हें आशीर्वाद दूंगी।





प्राणनाथ देवर सहित कुल कोअसला आइ। पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ।।_अर्थ_तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशल पूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी और तुम्हारा सुन्दर यश जगत्भर में छा जायेगा।






गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला।। तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुख मा उर दाहू।।_अर्थ_मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया ! अब तुम घर जाओ ! यह सुनते ही उसका मुंह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया।





दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी।। नाथ साथ रहि पंथु देखाई। रहि दिन चारि सिर्फ मैं आई।_अर्थ_ गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला_ हे रघुकुलशिरोमणि ! मेरी विनती सुनिये मैं नाथ ( आपके) साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार ( कुछ ) दिन चरणों की सेवा करके_





जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करब सुहाई।। तब मोहि कह जसि देब रजाई। सोई करिहउं रघुबीर दोहाई।।_अर्थ_हे रघुराज ! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहां मैं सुन्दर पर्णकुटी ( पत्तों की कुटिया ) बना दूंगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर ( आप ) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूंगा।





सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयं हुलासू।। पुनि गुह जाति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे।।_अर्थ_उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनन्द हुआ। फिर गुह ( निषादराज ) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया।




तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाई सुरसरिहिं माथ। सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ।।_अर्थ_तब प्रभु श्रीरघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीताजी सहित वन को चले।





तेहिं दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखां सब कीन्ह सुपासू।। प्रातः प्राकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु आई, उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मण जी और सखा गुह ने ( विश्राम की ) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने सवेरे प्रातः काल की सब क्रियाएं करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किये।





सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी।। चारि पदार्थ भरा भंडारू। पुन्य प्रदेष देस अति चारू।।_अर्थ_उस राजा का सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्रीवेणीमाधव_सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) से भण्डार भरा है और वह पुण्यमय प्रान्त ही उस राजा का सुन्दर देश है।





छेत्रु अगम गढ़ु गाढ सुहावा। सपनेहुं नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।। सेना सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।_अर्थ_प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुन्दर गढ़ ( किला ) है, जिसको स्वप्न में भी ( पापरूपी ) शत्रु नहीं पा सके हैं। संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक है, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं।





संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।। चवंर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।_अर्थ_( गंगा, यमुना और सरस्वती का ) संगम ही उसका अत्यंत सुशोभित सिंहासन है। अक्षय वट छत्र है, जो मुनियों के भी मन मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके ( श्याम और श्वेत ) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दु:ख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है।





सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मन काम। बंदी बेद पुरान इव कहहिं बिमल गुन ग्राम।।_अर्थ_पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद और पुराणों के समूह भाट हैं, और उसके निर्मल गुणियों का बखान करते हैं।





को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजल मृगराऊ।। अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुख पावा।।_अर्थ_पापों के समूह रूप हाथी को मारने के लिये सिंहरूप प्रयागराज का प्रभाव ( महत्व_महात्म्य ) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समूह रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी ने भी सुख पाया।





Tuesday, 4 October 2022

अयोध्याकाण्ड

निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।। जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौं कस मरनु न मागे दीन्हा।।_अर्थ_वे लोग अपनी निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। ( कहते हैं ) श्रीरामचन्द्रजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यारे का वियोग ही रचा, तो फिर उसने मांगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी !





एहि बिधि करहिं प्रलाप अलापा। आए अवध भरे परितापा।। बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राणा।।_अर्थ_इस प्रकार बहुत से प्रलाप करते हुए वे संताप से भरे हुए अयोध्याजी में आये। उन लोगों के विषय वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। ( चौदह साल की ) अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं।





राम दरस हित नेम ब्रत लगे करने नर नारि। मनहुं कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि।।_अर्थ_( सब ) स्त्री_पुरुष श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दु:खी हुए जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्य के बिना दीन हो जाते है।





सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुंचे जाई।। उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दण्डवत् हरषु बिसेषी।।_अर्थ_सीताजी और मन्त्रीसहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुंचे। वहां गंगाजी को देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत् की।





लखन सचिवं सियं किए प्रणामा। सबहिं सहित सुख पायउ रामा।। गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।।_अर्थ_लक्ष्मणजी, सुमन्त्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। गंगाजी समस्त आनन्द_मंगलों की मूल है़। वे सब सुखों को करनेवाली और पीड़ाओं को भरनेवाली है ।





कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।। सचिवहिं अनुजहिं प्रियहिं सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई।।_अर्थ_अनेक कथा प्रसंग कहते हुए श्रीरामजी गंगाजी की तरंगों को देख रहे हैं। उन्होंने मंत्री को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गंगाजी की बड़ी महिमा सुनाई।





मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयउ।। सुमिरत जाहि मिटा श्रम भारू।  तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू।।_अर्थ_इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम ( थकावट ) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरण मात्र से ( बार_बार जन्मने और मरने का ) महान् श्रम मिट जाता है, उनको ‘श्रम’ होना_यह केवल लौकिक व्यवहार ( नरलीला ) है।





बुद्धि सच्चिदानंद मय कंद भानुकुल केतु। चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु।।_अर्थ_ शुद्ध ( प्रकृति जन्म त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह ) सच्चिदानंकंदस्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान् श्रीरामचन्द्र जी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं जो संसार रूपी समुद्र के पार उतारने के लिये पुल के समान है।





यह सुनि गुहं निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई।। लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियं हरषु अपारा।।_अर्थ_जब निषादराज गुह ने यह खबर पायी, तब आनन्दित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिये फल, मूल ( कन्द ) लेकर और उन्हें बालों ( बहंगियों ) में भरकर मिलने के लिये चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था।





करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहिं बिलोकत अति अनुरागे।। सहज सनेह बिबस रघुराई। पूछीं कुशल निकट बैठाई।।_अर्थ_दण्डवत् करके भेंट सामने रखकर वह अत्यंत प्रेम से प्रभु को देखने लगा। श्रीरघुनाथजी ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने साथ बैठाकर कुशल पूछी।





नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउं भागभाजन जन लेखें।। देव धरनि धनु नाम तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहितपरिवारा।।_अर्थ_ निषादराज ने उत्तर दिया_हे नाथ ! आपके चरण_कमल के दर्शन से ही कुशल है ( आपके चरणारविन्दों के दर्शन कर ) आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया। हे देव ! यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका है। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूं।





कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिअ जनु सब लोगु सिहाऊ।। कहेत सत्य तुम सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना।।_अर्थ_अब कृपा करके पुर ( श्रृंगवेरपुर ) में पधारिये और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइये, जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें। श्रीरामचन्द्र जी ने कहा_हे सुजान सखा ! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। परन्तु पिताजी ने मुझको और ही आज्ञा दी है।





बरस चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु। ग्राम बासु नहीं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु।।_अर्थ_( उनके आज्ञानुसार ) मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए बन में ही बसना है, गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बड़ा दु:ख हुआ।





राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी। ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।_अर्थ_श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को गांव के स्त्री_पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। ( कोई कहती है_)  हे सखी ! कहो तो, वे माता_पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे ( सुंदर सुकुमार ) बालकों को वन में भेज दिया है।





एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। लोचन लाभ हमहिं बिधि दीन्हा।। तब निषाद पति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं_राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया। तब निषादराज ने हृदय में अनुमान किया, तो (अशोक के पेड़ को उनके ठहरने के लिये ) मनोहर समझा।





लै रघुनाथहिं ठाउं देखावा। कहेउ  राम सब भांति सुहावा।। पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।।_अर्थ_उसने श्रीरघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्रीरामचन्द्र जी ने ( देखकर ) कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग जोहार ( वंदना ) करके अपने_अपने घर लौटे और श्रीरामचन्द्र जी संध्या करने पधारे। 





गुहा संधारित सांथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।। सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी।।_अर्थ_गुहने ( इसी बीच ) खुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी; और पवित्र, मीठे और कोमल देख_देखकर दोनों में भर_भरकर फल_मूल और पानी रख दिया ( अथवा अपने हाथ से फल_मूल दोनों में भर_भरकर रख दिये।





सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ। सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ।।_अर्थ_सीताजी, सुमंत्रजी और भाई लक्ष्मण सहित कन्द_मूल_फल खाकर रघुकुलमनि श्रीरामचन्द्र जी लेट गये। भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे।





उठे लखन प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।। कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन।।_अर्थ_फिर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल बाणी से मंत्री सुमन्त्रजी को सोने के लिये कहकर वहां से कुछ दूर पर धनुष_बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने ( पहरा देने ) लगे।





गुहं बोलाइ पाहरू प्रतीती। पावन पावन राखे अति प्रीती।। आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भारी सर चाप चढ़ाई।।_अर्थ_गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यंत प्रेम से जगह_जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमर में तरकस बांधकर तथा तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा।





बोलत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस हृदय बिषादू।। तनु पुलकित जल लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई ।।_अर्थ_प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेमबश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से ( प्रेमाश्रुओं का )  जल बहने लगा। वह प्रेम सहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा_





भूपति भवन सुभायं सुहावा। सुरपति सदन न पटतर पावा।। मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ संवारे।।_अर्थ_महाराज दशरथ जी का महल तो स्वभाव से ही सुन्दर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुन्दर मणियों के रचे चौबारे ( छत के ऊपर बंगले ) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है।





सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास। पलंग मंजु मनि दीप जहं सब बिधि सकल सुपास।।_अर्थ_जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित है; जहां सुन्दर पलंग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है।





बिबिध बसन उफ़ान तुराई। छीर फेन मृदु फयल सुहाई।। तहं सिय राम सयन नित करहीं। निज छबि रति मनोज मनु हरहीं।।_अर्थ_जहां ( ओढने_बिछाने के ) अनेकों वस्त्र, तकिये और गद्दे हैं, जो दूध के समान कोमल, निर्मल ( उज्जवल ) और सुन्दर हैं; वहां ( उन चौबारों में ) श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्र जी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे।





ते सिय राम साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए।। मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुशील दास अरु दासी।।_अर्थ_वही श्रीसीता और श्रीरामजी आज घास_फूस की थके हुए बिना वस्त्र के ही होते हैं। ऐसी दशा में वे देखें नहीं जाते। माता_पिता, कुटुम्बी, पुरवासी ( प्रजा ), मित्र, अच्छे शील स्वभाव के दास और दासियां_





जोगवहिं जिन्हहिं प्राण की नाईं। महि बोलत तेहि राम गोसाईं।। पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।_अर्थ_सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार_संभार करते थे, वहीं प्रभु श्रीरामचन्द्र जी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत् में प्रसिद्ध है; जिनके ससुर इन्द्र के मित्र रघुराज दशरथ जी हैं,





रामचंद पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही।। सीय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह एहू।।_अर्थ_रामचन्द्र जिसके पति हैं वो सीता जमीन पर सो रही, बिधाता किसके लिये बाम नहीं होता। सीताराम क्या वन के योग्य हैं ? सच कहते हैं कि कर्म ( भाग्य ही प्रधान है )।





कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह।।_अर्थ_ कैकयराज की लड़की नीचबुद्धि कैकेई ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनंदन श्रीरामजी को सुख के समय दु:ख दिया।





भई दिनकर कुल बंस कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी। भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।_अर्थ_वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धि ने संपूर्ण विश्व को दु:खी कर दिया। श्री राम_सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दु:ख हुआ।





बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।‌। काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।_अर्थ_तब लक्ष्मणजी ग्यान वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले_हे भाई ! कोई किसी को सुख_दु:ख देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं।





जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।। जनम मरन जहं लगि जग जालू। संपति, बिपति करमु अरु कालू।।_अर्थ_ संयोग ( मिलना ), बियोग ( बिछुड़ना ), भले_बुरे भोग, शत्रु_मित्र और उदासीन_ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म_मृत्यु, संपत्ति_विपत्ति, कर्म और काव जगत् के जंजाल है,





धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहं लगि ब्यवहारू।। देखिअ सुनिअ, गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।_अर्थ_धरती,, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहां तक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है। परमार्थ: ये नहीं है।





सपने होई भिखारि नृपु रंक नाकपति होई। जागें लाभ न हानि कछु तिमिर प्रपंच जियो जोइ।।_अर्थ_जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्ग का स्वामि इन्द्र हो जाय, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।




अस बिचारि नहिं कीजिए रोसू। काहुहिं ब्यर्थ न देइअ दोसू।। मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिए सपन अनेक प्रकारा।।_अर्थ_ऐसा विचार कर अफसोस नहीं करना चाहिये और न किसी को व्यर्थ ही दोष देना चाहिये। सब लोग मोहरुपी रात्रि में सोनेवाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाती देते हैं।





एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।। जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा।।_अर्थ_संसार रूपी अन्धकार में योगी जगते हैं, जो परमार्थी हैं और  ( माणिक जगत् ) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिये, जब संपूर्ण भोग_विलास से वैराग्य हो जाय।





होई बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।। सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।_अर्थ_ विवेक होने पर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, ( तब अज्ञान का नाश होने पर ) श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा ! मन, वचन और कर्म से श्री रघुनाथ जी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ ( पुरुषार्थ ) है।





राम ब्रह्म परमार्थ रूपा। अभिगत अलख अनादि अनूपा।। सकल विकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।_अर्थ_ श्रीरामजी परमार्थस्वरूप ( परमवस्तु ) परमब्रह्म हैं। वे अधिगत ( जानने में न आनेवाले ) अलग ( स्थूल दृष्टि से देखने में न आनेवाले ) अनादि ( आदिरहित ) अनुपम ( उपमारहित ), सब विकारों से रहित और भेदशून्य है, वेद जिनका नित्य ‘नेति_नेति’ कहकर निरूपण करते हैं।





भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। करहि चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल।।_अर्थ_ वहीं कृपालु श्रीरामचन्द्र जी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण कर लीलाएं करते हैं, जिनके सुनने से जगत् के जंजाल मिट जाते हैं।





सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सीय रघुबीर चरन रत होहू।। कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागें जग मंगल सुखदारा।।_अर्थ_हे सखा ! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी के गुण कहते_कहते सबेरा हो गया। तब जगत् का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले श्रीरामजी जागे।





सकल सौच करि राम नहाना। सुचि सुजान बंट तीर मगावा।। अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।_अर्थ_ शौच के सब कार्य करके ( नित्य ) पवित्र और सुजान श्रीरामचन्द्र जी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मंगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएं बनायीं। यह देखकर सुमंत्र जी के नेत्रों में जल आ गया।





हृदयं दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।। नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथ जाहु राम के साथा।_अर्थ_उनका हृदय अत्यंत जलने लगा, मुंह मलिन ( उदास ) हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यंत दीन वचन बोले_हे नाथ ! मुझे कोसलनाथ दशरथ जी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ।





बनु देखाई सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि  दोउ भाई।। लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसृति सकल संकोच निबेरी।।_अर्थ_वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना।





नृप अस कहेउ गोसाईं जस कहइ  बलि सोइ। करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ।।_अर्थ_ महाराज ने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वहीं करूं; मैं आपकी बलिहारी हूं। इस प्रकार विनती करके वे श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने बालक की तरह रो दिया।





तात कृपा करि कीजिए सोई। तातें अवध अनाथ न होई।। मंत्रिहि राम उठाई प्रबोधा। तात धर्म मर्म तुम्ह सब सोधा।।_अर्थ_( और कहा_) हे तात ! कृपा करके वहीं कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो। श्रीरामजी ने मंत्री को उठाकर श्रीरामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बंधाते हुए समझाया कि हे तात ! आपने तो धर्म के सभी सिद्धांतों को छान डाला है।





सिबि दधिचि हरिचन्द नरेसा। सहेउ धर्म हित कोटि कलेसा। रंतिदेव भलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।_अर्थ_शिबि दधिचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिये करोड़ों ( अनेकों ) कष्ट सहे । बुद्धिमान राजा रंतिदेव और बलि बहुत से कष्ट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे ( उन्होंने धर्म का परित्याग कभी नहीं किया )।





धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।। मैं सोई धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूं पुर अपजसु जावा।।_अर्थ_वेद, शास्त्र, पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। इस ( सत्य रूपी धर्म ) का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जायगा।





संभावित कहुं अपजसु लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।। तुम्ह सन तात बहुत का कहउं। दिए उतरु फिरि पातकु लहऊं।।_अर्थ_प्रतिष्ठित पुरुष के लियेअपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देनेवाली है। हे तात ! मैं आपसे अधिक क्या कहूं। लौटकर उत्तर देने में पाप का भागी होता हूं।

Thursday, 18 August 2022

अयोध्याकाण्ड

सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी।। तुम्ह कहुं तौ न दीन्ह बनवासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू।।_अर्थ_मंत्री सुमंत्रजी की पत्नी और गुरु वसिष्ठजी की पत्नी अरुंधतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियां स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो ( राजा ने ) वनवास दिया नहीं है। इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें तुम वही करो।





सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि। सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकइ अकुलानि।।_अर्थ_यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी को अच्छी नहीं लगी। ( वे इस प्रकार व्याकुल हो गयीं ) मानो शरद् ऋतु के चन्द्रमा की चांदनी लगते ही चक‌‌ई व्याकुल हो उठी हो।





सीय सकुचबस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।। मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगे धरि बोली मृदु बानी।।_अर्थ_सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेई तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण ( माला, मेखला आदि ) और बर्तन ( कमंडलु आदि ) लाकर श्री रामचन्द्रजी के सामने रख दिये और कोमल वाणी से कहा_





नृपहिं प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।। सुकृतु सुजसु परलोक नसाऊ। तुम्हहिं जान बन कहिहिं न काऊ।।_अर्थ_हे रघुबीर ! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। बीरु ( प्रेमवश दुर्बल हृदय के ) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे ! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाय, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे।





अस बिचारि सोई करहु जो भावा। राम जानि सिख सुनि सुख पावा ।। भूपहिं बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।_अर्थ_ ऐसा विचार कर जो तुम्हें अच्छा लगे वहीं करो। माता की सीख सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने ( बड़ा ) सुख पाया। परन्तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। ( वे सोचने लगे ) अब भी अभागे प्राण ( क्यों ) नहीं निकलते।





लोग बिकल मुरछित नरनाहू। काह करिय कछु सूझ न काहू।। रामु तुरत मुनि बेसु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।_अर्थ_राजा मूर्छित हो गये, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्रीरामचन्द्रजी स्त्री ( श्रीसीताजी ) और भाई ( लक्ष्मणजी ) सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वन्दना करके सबको अचेत करके चले।




विकल बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।। कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।_अर्थ_राजमहल से निकलकर श्रीरामचन्द्रजी वसिष्ठ जी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग बिरहा की अग्नि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया। फिर श्रीरामचन्द्रजी ने ब्राह्मणों की मण्डली को बुलाया।





गुरु सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनयबस कीन्हे।। जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।_अर्थ_गुरुजी से कहकर उन सबको वर्षासन ( वर्षभर का भोजन ) दिये और आदर, दान तथा विनय से उन्हें वश में कर दिया। फिर याचकों को दान और मान देकर संतुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया।





दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहिं सौंपि बोले कर जोरी।। सब के साथ संभार गोसाईं। करहिं जनक जननी की नाई।।_अर्थ_फिर दास_दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपकर हाथ जोड़कर बोले_हे गोसाईं ! इन सबकी माता_पिता के समान सार_संभार ( देख_रेख ) करते रहियेगा।






बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।। सोइ सब भांति मोर हितकारी। जेहिं में रहे भुआल सुखारी।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी बार_बार दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार से हितकारी मित्र वही होगा जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।





मातु सकल मोरे बिरहं जेहिं न होहिं दुख दीन। सोई उपाय तुम्ह  करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।_अर्थ_हे परम चतुर पुरबासी सज्जनों ! आपलोग सब वही उपाय करियेगा जिससे मेरी सब माताएं मेरे बिरह के दु:ख से दु:खी न हों।





एहि बिधि राम सबहिं समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिर नावा। गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाई रघुराई।।_अर्थ_इस प्रकार श्रीरामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेश जी, पार्वती जी और कैलाशपति महादेवजी को मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर श्रीरघुनाथजी चले।





राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू ।। कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू।।_अर्थ_श्रीरामजी के चलते ही बड़ा भारी विषाद छा गया। नगर का आर्तनाद ( हाहाकार ) सुना नहीं जाता। ल़ंका में बुरे शकुन होने लगे, अयोध्या में शोक छा गया और देवलोक में हर्ष तथा विषाद दोनों के वश में हो गये। ( हर्ष इस बात का था कि अब राक्षसों का नाश होगा और विषाद अयोध्यावासियों के शोक के कारण था )।




गई मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्र कहन अस लागे।। रामु चले वन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।।_अर्थ_मूर्छा दूर हुई तब राजा जागे और सुमंत्र को बुलाकर ऐसा कहने लगे_श्रीराम वन को चले आते, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे हैं। 





एहि ते कवन व्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना।। पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू।।_अर्थ_इससे अधिक बलवती और कौन सी व्यथा होगी जिस दु:ख को पाकर प्राण शरीर को छोड़ेंगे। फिर धीरज धरकर राजा ने कहा_हे सखा ! तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ।





सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि। रथ चढ़ाई देखराइ बनु फिरेहु गये दिन चारि।।।_अर्थ_अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी जी को रथ में चढ़ाकर, वन दिखलाकर चार दिन बाद लौट जाना।





जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई।। तौं तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी।।_अर्थ_यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें_क्योंकि श्रीरघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करने वाले हैं_तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो ! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिये।





जब सीय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई।। सासु ससुर अस कहेउ संदेसू। पुत्री फिरिअ बन बहुत कलेसू।।_अर्थ_जब सीता वन को देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने ऐसा संदेश कहा है कि पुत्री ! तुम लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं। 





पितु गृह कबहुंक कबहुंक ससुरारी। रहेहु जहां रुचि होई तुम्हारी।। एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ तो होई प्राण अवलंबा।।_अर्थ_कभी पिता के घर, कभी ससुराल, जहां तुम्हारी इच्छा हो वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आयीं तो मेरे प्राणों का सहारा हो जायगा।





नाहिंन तो मोर मरन परिनामा। कछु न बसाई भये बिधि बामा।। अस कहि मुरुछित परा महि राउ। राम लखन सीय आनि देखाऊ।।_अर्थ_नहिं तो अन्त में मेरा मरण ही होगा। विधाता के विपरीत होने पर कुछ वश नहीं चलता। हा ! राम, लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।





पाई रजायसु नाई सिरु रथु अति वेग बनाइ। गयी जहां बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ।।_अर्थ_सुमन्त्रजी राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर वहां गये जहां नगर के बाहर सीताजी सहित दोनों भाई थे। 





तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए।। चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयं अवधहिं सिरु नाई।।_अर्थ_तब ( वहां पहुंचकर ) सुमंत्र ने राजा के वचन श्रीरामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया। सीताजीसहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले।





चलत राम लखि अवध अनाथा। विकल लोग सब लागे साथा।। कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेमबस पुनि फिरि आवहीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ ( होते हुए ) देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिये। कृपा के समुद्र श्रीरामजी उन्हें बहुत तरह से समझाते हैं, तो वे ( अयोध्या की ओर ) लौट जाते हैं; परन्तु प्रेमवश फिर लौट आते हैं।





लागति अवध भयावनि भारी। मानहुं कालरात्रि अंधियारी।। घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी।।_अर्थ_अयोध्यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अंधकारमयी कालरात्रि ही हो। नगर के नर_नारी भयानक जन्तुओं के समान एक_दूसरे को देखकर डर रहे हैं।





घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुं जमदूता।। बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। हरित सरोबर देखि न जाहीं।।_अर्थ_घर श्मशान, कुटुम्बी भूत_प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं। बगीचों में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता।





हम गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर। पिंक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर।।_अर्थ_करोड़ों घोड़े_हाथी, खेलने के लिये पाले हुए हिरन, नगर के ( गाय, बैल, बकरी आदि ) पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोता, मैना, सारस, हंस और चकोर_





राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहं तहं मनहुं चित्र लिखि काढ़े।। नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहां_तहां ( ऐसे चुपचाप स्थिर होकर ) खड़े हैं, मानो तस्वीरों में लिखकर बनाये हुए हैं। नगर मानो फलों से परिपूर्ण बड़ा भारी सघन वन था। नगर निवासी सब स्त्री_पुरुष बहुत से पशु_पक्षी थे। ( अर्थात् अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों को देनेवाली नगरी थी और सब स्त्री_पुरुष सुख से उन फलों को प्राप्त करते थे।)





बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह  दसहुं दिसि दीन्ही।। सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब व्याकुल भागी।।_अर्थ_विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दु:सह दावाग्नि ( भयानक आग ) लगा दी। श्रीरामचन्द्र जी के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल होकर भाग चले।





सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुख नाहीं।। जहां रामु तहं सबुई समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहीं काजू।।_अर्थ_सबने मन में विचार कर लिया कि श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के बिना सुख नहीं है। जहां श्रीरामजी रहेंगे, वहीं सारा समाज रहेगा। श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्या में हमलोगों का कुछ काम नहीं है।






चले साथ अस मंत्र दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई।। राम चरन पंकज प्रिय जिन्हहीं। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हहीं।।_अर्थ_ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से पूर्ण घरों को छोड़कर सब श्रीरामचन्द्र जी के साथ चल पड़े। जिनको श्रीरामचन्द्र जी के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या अभी बिषयभोग वश में कर सकते हैं।





बालक बृद्ध बिहाई गृह लगे लोग सब साथ। तमसा तीर निवास किय प्रथम दिवस रघुनाथ।।_अर्थ_बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब श्रीरामचन्द्रजी के साथ चल पड़े। पहले दिन श्रीरघुनाथजी ने तमसा के तट पर निवास किया।





रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयं दुखु भयउ बिसेषी।। करुनामय रघुनाथ गोसाईं। बेगि पाइहहिं पीर पराई।।_अर्थ_प्रजा को प्रेमवश देखकर श्रीरघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दु:ख हुआ। प्रभु श्रीरघुनाथजी करुणामय हैं। प्यारी पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं ( अर्थात् दूसरे के दु:ख को देखकर वे तुरंत दु:की हो जाते हैं।





कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए।। किए धर्म उपदेस घनेरे। लोग प्रेमबस फिरहिं न फेरे।।_अर्थ_प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहकर श्रीरामजी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्म संबंधी उपदेश दिये; परन्तु प्रेमवश लोग लौटाए नहीं लौटते।





धीरु सनेह छाड़ि नहीं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।। लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछूक देवमाया मति गोई।।_अर्थ_शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। श्री रघुनाथ जी असमंजस के अधीन हो गये ( दुविधा में पड़ गये )। शोक और परिश्रम ( थकावट ) के मारे लोग सो गये और कुछ देवताओं के माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गयी।





जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेंगी सप्रीती।। खोज मारि रथ हांकहु ताता। आन उपाय बनिहि नहीं बाता।।_अर्थ_जब दो पहर रात बीत गयी, तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेम पूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा_हे तात ! रथ को खोज मारकर ( अर्थात् पहियों के चिह्नो न से दिशा का पता न चले इस प्रकार ) रथ को हांकिये ! और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी।





राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ। सचिव चलायउ तुरत रथ इत उतर खोज दुराइ।।_अर्थ_शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार हुए। मंत्री ने तुरंत ही रथ को, इधर_उधर खोज छिपाकर चला दिया।





जागे सकल लोग भएं भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू।। रथ कर खोज कतहुं नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुं दिसि धावहिं।।_अर्थ_सवेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि श्रीरघुनाथजी चले आते । कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम ! हा राम !’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं।





मनहुं बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू।। एकहिं एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू।।_अर्थ_मानो समुद्र में जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो। वे एक_दूसरे को उपदेश देते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने, हमलोगों को क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है।

Saturday, 9 July 2022

अयोध्याकाण्ड

तबहिं मोह जनि छाड़िअ छोहू। करम कठिन कछु दोसु न मोहू।। सुनि सीय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी।।_अर्थ_आप क्षोभ का त्याग कर दें, परंतु कृपा न छोड़ियेगा। करम की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है। सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गयीं। उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखान कर कहूं !





बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख असीस दीन्ही।। अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंगा जमुन जलधारा।।_अर्थ_उन्होंने सीताजी को बार_बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जबतक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, जबतक तुम्हारा सुहाग अचल रहे।





सीतहि सासु असीस सिख दीन्ह अनेक प्रकार। चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार।।_अर्थ_सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएं दीं और वे ( सीताजी ) बड़े ही प्रेम से बार_बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं।





समाचार जब लछिमन पाए। व्याकुल बिलख बदन उठि धाए।। कंप पुलक तन नयन सनीरा। ग हे चरन अति प्रेम अधीरा।।_अर्थ_जब लक्ष्मण जी ने ये समाचार पाया, तब वे व्याकुल होकर उदास_मुंह उठ दौड़े। शरीर कांप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आंसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यंत अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिये।





कहि न सकत कछु चित्तवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल ते काढ़े।। सोचु हृदय बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा।।_अर्थ_वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े_खड़े देख रहे हैं। ( ऐसे दीन हो रहे हैं ) मानो जल से मछली निकाले जाने पर दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता ! क्या होनेवाला है ? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया ?





मो कहुं काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेइहहिं साथा।। राम बिलोकि बन्धु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें।।_अर्थ_मुझको श्रीरघुनाथजी क्या कहेंगे ?  घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे ? श्रीरामचन्द्रजी ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा।





बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर।।  तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयं परिणाम उछाहू।।_अर्थ_तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी बचन बोले_ हे तात ! परिणाम में होनेवाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ।





मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायं। लहेउ लाभु तिन्ह जन्म कर नतरु जनम जग जायं।।_अर्थ_जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत् में जन्म ही व्यर्थ है।





अस जियं जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।। भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुख मन माहीं।।_अर्थ_हे भाई ! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सिख सुनो और माता_पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दु:ख है।





मैं बन जाउं तुम्हहिं लै साथा। होई सबहि बिधि अवध अनाथा।। गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सबु कहुं परइ दुसह दुख भारू।।_अर्थ_इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊं तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जायगी। गुरु, पिता, माता और परिवार सभी पर दु:ख का दु:सह बार आ पड़ेगा।





रहहू करहू सब कर परितोषू। नतरु तात होइहीं बड़ दोषू।। जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।_अर्थ_ अत: तुम यहीं रहो और सबका संतोष करते रहो। नहीं तो हे तात ! बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दु:की रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है।





करहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।। सिअरें बचन सूखि गए कैसे। परसत तुहिन तामरसु जैसें।।_अर्थ_हे तात ! ऐसी नीति विचार कर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही लक्ष्मण जी बहुत ही व्याकुल हो गये ! इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गये, जैसे पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है।





उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु न काह बसाइ।।_अर्थ_प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता । उन्होंने व्याकुल होकर श्रीरामजी के चरण पकड़ लिये और कहा_ हे नाथ ! मैं दास हूं और मैं स्वामी हैं; अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है ?





दीन्ह मोहि सिख नीक गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराई।। नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुं ते अधिकारी।।_अर्थ_हे स्वामी ! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम ( पहुंच के बाहर ) लगी। शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं जो धीर हैं और धर्म की धूरी को धारण करनेवाले हैं। 





मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला।। गुरु पितु मातु न जानउं काहू। कहउं सुभाउ नाथ पतिआहू।।_अर्थ_ मैं तो प्रभु ( आप ) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूं। कहीं हंस भी मंदरांचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं। हे नाथ ! स्वभाव से ही कहता हूं, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, माता, पिता किसी को भी नहीं जानता।





जहं लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निज गाई।। मोरें सबई एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी।।_अर्थ_जगत् में जहां तक स्नेह का संबंध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है_हे स्वामी ! हे दीनबंधु ! हे सबके हृदय की जाननेवाले ! मेरे तो सबकुछ केवल आप ही हैं।





धर्म नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।। मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई।।_अर्थ_धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए जिसे कीर्ति, विभूति ( ऐश्वर्य ) या सद्गति प्यारी हो ! किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिंधु ! क्या वह भी त्यागने के योग्य है ?





करुनासिंधु सुबंधु के सुनि मृदु बचन बिनीत। समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहं सभीत।।_अर्थ_दया के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया।





मागहु विदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई।। मुदित भए सुनि रघुबीर बानी। भयउ लाभ बड़ गई बड़ि हानी।।_अर्थ_( और कहा_ ) हे भाई ! जाकर माता से विदा मांग आओ और जल्दी वन को चलो ! रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनंदित हो गये। बड़ी हानि दूर हो गयी और बड़ा लाभ हुआ।





हरषित हृदयं मातु पहिं आए। मनहुं अंध फिरि लोचन पाए।।  जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकी साथा।।_अर्थ_वे हर्षित हृदय से माता सुमित्रा जी के पास आये, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया। किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देनेवाले श्रीरामजी और जानकी जी के साथ था।





पूंछें मातु मलिन मन देखी। लखन कहीं सब कथा बिसेषी।। गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव तनु चहुं ओरा।।_अर्थ_माता ने उदास मन देखकर उनसे ( कारण ) पूछा। लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनायी। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गयीं जैसे हिरणी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है।






समुझि सुमित्रां राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ। नृप सनेह लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ।।_अर्थ_सुमित्राजी ने श्रीरामजी और श्रीसीताजी के रूप, सुन्दर शील और स्वभाव को समझकर और उनपर राजा का प्रेम देखकर अपना सिर धुना( पीटा ) और कहा कि पापिनि कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया।





धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी।। तात तुम्हारी मातु बैदेही। पिता रामु सब भांति सनेही।।_अर्थ_परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहनेवाली सुमित्रा जी बोलीं_हे तात ! जानकी जी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं।





अवध तहां जहां राम निवासू। तहां दिवस जहं भानु प्रकासू।। जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।।_अर्थ_जहां श्रीरामजी का निवास  हो वही अयोध्या है। जहां सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता_राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है।





गुरु पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।। रामु प्रान प्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के।।_अर्थ_गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिये। फिर श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं।





पूजनीय प्रिय परम जहां ते। सब मानिअहिं राम के नाते।। अस जिअं जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू।।_अर्थ_जगत् में जहां तक पूजनीय और परमप्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही ( पूजनीय और परमप्रिय ) मानने योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर हे तात ! उनके साथ वन जाओ और जगत् में जीने का लाभ उठाओ।





भूरि भाग भाजन भयहु मोहि समेत बलि जाउं। जौं तुम्हरें मन छाड़ि तरु कीन्ह राम पद ठाउं।।_अर्थ_मैं बलिहारी जाती हूं, ( हे पुत्र !) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने जल छोड़कर श्रीरामजी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है।





पुत्रवती जुवती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुत होई।। नतरु बांझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत ते हित जानी।।_अर्थ_संसार में वही जुड़ती स्त्री पुत्रवती है जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से बिमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बांझ ही अच्छी। पशु की भांति उसका ब्याना ( पुत्र प्रसव करना ) व्यर्थ ही है।





तुम्हारे ही भाग राम बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं।। सकल सुकृत कर बड़ फल एहू। राम सीय पद सहज सनेहू।।_अर्थ_तुम्हारे ही भाग्य से श्रीरामजी वन को जा रहे हैं। हे तात ! दूसरा कोई कारण नहीं है। संपूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्रीसीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो।





रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहु इन्ह के बस होहू।। सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।_अर्थ_राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह_इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्रीसीतारामजी की सेवा करना।





तुम्ह कहुं बन सब भांति सुपासू। संग पितु मातु राम सीय जासू।। जेहिं न राम बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करहु इहइ उपदेसू।।_अर्थ_तुमको वन में सब प्रकार से आराम है, जिसके साथ श्रीरामजी और सीताजी रूप माता_पिता हैं। हे पुत्र ! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वन में क्लेश न पालें, मेरा यही उपदेश है।





उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं। पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।। तुलसी प्रभुहिं सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिस दई। रति होई अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई।।_अर्थ_ हे तात ! मेरा यही उपदेश है ( अर्थात् तुम वही करना ) जिससे वन में तुम्हारे कारण श्रीरामजी और सीताजी सुख पावें और माता, पिता प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जायं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु ( श्रीलक्ष्मणजी ) को शिक्षा देकर ( वन जाने की ) की आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्रीसीताजी और श्रीरघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल ( निष्काम और अनन्य ) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित नित नया हो।





मातु चरण सिर नाई चले तुरंत संकित हृदयं। बागुर बिषम तोराइ मनहुं भाग मृगु भाग बस।।_अर्थ_माता के चरणों में सिर नवाकर हृदय में डरते हुए ( कि अब कोई बिघ्न न आ जाय ) लक्ष्मणजी तुरंत इस तरह चल दिये जैसे सौभाग्यवश कोई हिरण कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो।





गए लखन जहं जानकीनाथू। भें मन मुदित पाई प्रिय साथू।। बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृप मंदिर आए।।_अर्थ_लक्ष्मणजी वहां गये जहां श्रीजानकीनाथजी थे, और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्रीरामजी और सीताजी के सुन्दर चरणों की वन्दना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आये।





कहहिं परस्पर पुर नर नारी। भलि बनाई बिधि बात बिगारी।। तन कृस मन दुख बदन मलीने। बिकल मनहुं माखी मधु छीने।।_अर्थ_नगर के स्त्री_पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी। उनके शरीर दुबले, मन दु:खी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे शहद छीन लिये जाने पर शहद की मक्खियां व्याकुल हों।





कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं।। भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा।।_अर्थ_सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर ( पीटकर ) पछता रहे हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों। राजद्वारे पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता।





सचिवं उठाई राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे।। सिय समेत दोउ तनय निहारी। व्याकुल भयउ भूमिपति भारी।।_अर्थ_’श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं’ ये प्रिय वचन कहकर मंत्री ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सहित दोनों पुत्रों को ( वन के लिये तैयार ) देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए।





सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ। बारहिं बार सनेहबस राउ लेइ उर लाइ।।_अर्थ_ सीता सहित दोनों सुन्दर पुत्रों को देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेहवश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं। 





सकी न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।। नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।_अर्थ_राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक संताप है। तब रघुकुल के वीर श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा मांगी।





पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमय कत कीजै।। तात किएं प्रिय प्रेम प्रमादू। जगु जसु जाइ होई अपबादू।।_अर्थ_ हे पिताजी ! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिये। हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं ? हे तात ! प्रिय के प्रेमवश प्रमाद ( कर्तव्यकर्म में त्रुटि ) करने से जगत् में यश जाता रहेगा और निंदा होगी।





सुनि सनेह बस उठि नरनाहां। बैठारे रघुपति गहि बाहां।। सुनहु तात तुम्ह कहुं मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं।।_अर्थ_यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर श्रीरघुनाथजी की बांह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा_हे तात ! सुनो तुम्हारे लिये मुनि लोग कहते हैं के श्रीराम चराचर के स्वामी हैं।





सुभ और असुभ कर्म अनुहारी। ईसु देइ बलु हृदय बिचारी।। करइ जो कर्म पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।_अर्थ_शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचार कर फल देता है। जो कर्म करता है वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते है।





औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु। अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।।_अर्थ_( किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है ) अपराध तो कोई और ही करें और उसके फल का भोग को कोई और ही पावे। भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत् में कौन है ?





रांय राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी।। लखी राम रुख रहत न जाने। धर्म धुरंधर धीर सयाने।।_अर्थ_राजा ने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी को रखने के रिमेक छल छोड़कर बहुत_से उपाय किये। पर जब उन्होंने धर्मधुरंधर, धीर और बुद्धिमान श्रीरामजी का रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पड़े।





तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भांति सिख दीन्ही।। कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।_अर्थ_तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और बड़े प्रेम से बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दु:सह दु:ख कहकर सुनाये। फिर सास, ससुर और पिता के ( पास रहने के ) सुखों को समझाया।

Monday, 23 May 2022

अयोध्याकाण्ड


 मासपारायण, चौदहवां विश्राम

मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।। राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भांति जियं जनि कछु गुनहू।।_अर्थ_माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले_ हे राजकुमारी ! मेरी सिखावन सुनो। मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना।





आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू।। आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।_अर्थ_जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनि ! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है।





एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।। जब जब मातु करिहिं सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी।।_अर्थ_आदरपूर्वक सास_ससुर के चरणों की पूजा ( सेवा ) करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जब_जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि बोली हो जायगी ( वे अपने आप को भूल जायेंगी ),





तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझायहु मृदु बानी।। कहउं सुभायं सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउं मोही।। _अर्थ_हे सुन्दरी ! तब_तब तुम कोमल बाणी से पुरानी कथाएं कह_कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि ! मुझे सैकड़ों सौगंध है, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूं कि मैं तुम्हें केवल माता के लिये ही घर पर रखता हूं।





गुर श्रुति संमत धरमु फलु पाइअ बिनहिं कलेस। हठ बस सब संकट सहे गालब नहुष नरेस।।_अर्थ_( मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से ) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म ( के आचरण ) का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है। किन्तु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सबने संकट ही सहे।






मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी। दिवस जात नहिं लागिहिं बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा।।_अर्थ_हे सुमुखि ! हे सयानी ! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूंगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुन्दरी ! हमारी यह सीख सुनो !





 जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुख पाउब परिनामा।। काननु कठिन भयंकर भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।।_अर्थ_हे वामा ! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुख पाओगी। वन बड़ा कठिन ( क्लेशदायक ) और भयानक है। वहां की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं।






कुस कंटक मग कांकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।। चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।।_अर्थ_रास्ते में कुश, कांटे और बहुत_से कंकड़ हैं। उनपर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरण कमल कोमल और सुंदर हैं और रास्ते में बड़े_बड़े दुर्गम पर्वत हैं।





कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे।। भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा।।_अर्थ_पर्वतों की गुफाएं, खोह ( दर्रे ) नदियां, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता।
 रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे ( भयानक ) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है।





भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल। ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल।।_अर्थ_जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे ? सबकुछ अपने_अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा।





नर आहार रजनीचर चरहीं। कपट बेस बिधि कोटिक करहीं।। लागी अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहीं जाइ बखानी।।_अर्थ_मनुष्यों को खानेवाले निशाचर ( राक्षस ) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपटरूप धारण करते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती।





ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा।। डरपहिं धीर गहन सुनि आएं। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएं।।_अर्थ_वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री_पुरुषों को चुरानेवाले राक्षसों के झुंड_के_झुंड रहते हैं। वन की ( भयंकरता ) याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर  हे मृगलोचनि ! तुम तो स्वाभाव से ही डरपोक हो।





हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहिं लोगू।। मानस सलिल सुधा प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली।।_अर्थ_हे हंसगमनि ! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है ?





नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।। रहहु भवन अस हृदयं बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी।।_अर्थ_नवीन आम के वन में विहार करनेवाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है ? हे चन्द्रमुखी ! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो। वन में बड़ा कष्ट है।





सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करिअ सिख मानि। होइ पछिताइ अघाई उर अवसि होई हित मानि।।_अर्थ_स्वाभाविक ही हित चाहनेवाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है।





सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के।। सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद हित जैसें।।_अर्थ_प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गये। श्रीरामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हुई, जैसे चकवी को शरद्_ऋतु की चांदनी रात होती है।





उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही।। बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी।।_अर्थ_जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रों के जल ( आंसुओं ) को जबरदस्ती रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीताजी हृदय में धीरज धरकर,





लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।। दीन्हि प्राधपति मोहि सिख सोई। जेहिं बिधि मोर परम हित होई।।_अर्थ_ सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं_हे देवी ! मेरी इस बड़ी भारी ढ़िठाई को क्षमा कीजिये। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है जिससे मेरा परम हित हो।





मैं पुनि समुझि दीख मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं।।_अर्थ_परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत् में कोई दु:ख नहीं है।





प्राणनाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान।।_अर्थ_हे प्राणनाथ ! हे दया के नाम !  हे सुन्दर ! हे सुखों के देनेवाले ! हे सुजान ! हे रघुकुलरूपी कुमुद के खिलानेवाले चन्द्रमा ! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिये नरक के समान है।





मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृद समुदाई।। सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुशील सुखदाई।।_अर्थ_माता, पिता, बहन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन ( बन्धु_बान्धव ) सहायक और सुन्दर सुशील और सुख देने वाला पुत्र_





जहं लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।। तनु धनु धाम धरनि पुर राजू। पिय बिहीन सबु सोक समाजू।।_अर्थ_हे नाथ ! जहां तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सभी सूर्य से बढ़कर तपानेवाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिये यह सब शोक का समाज है।





भोग रोगसम भूषण भालू। जम जातना सनरिस संसारू।। प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुं सुखद कतहुं कछु नाहीं।।_अर्थ_भोग रोग के समान हैं, गहने भाररूप हैं और संसार यम_यातना ( नरक की पीड़ा ) के समान है। हे प्राणनाथ ! आपके बिना जगत् में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है।





जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।। नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरल बिमल बिधु बदन निहारे।।_अर्थ_जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ ! बिना पुरुष के स्त्री है। हे नाथ !  आपके साथ रहकर आपका शरद्_पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे।





खग मृग परिजन नगरु बंधु बलकल बिमल दुकूल। नाथ साथ सुरसदन सम सब प्रसाद सुखमूल।।_अर्थ_हे नाथ ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी ( पत्तों की बनी झोपड़ी ) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी।





बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा।। कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु संग मंजु मनोज तुराई।।_अर्थ_उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास_ससुर के समान मेरी सार_संभार करेंगे,  और  कुशाल और पत्तों की सुन्दर साथरी ( बिछौना ) ही प्रभु के साथ कामदेव के मनोहर तोशक के समान होगी।





कंद मूल फल अधिक अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू।। बिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी रहिहउं मुदित दिवस जिमि कोकी।।_अर्थ_कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे। क्षण_क्षण में प्रभु के चरणकमलों को देख_देखकर मैं ऐसी आनंदित रहूंगी जैसी दिन में चकवी रहती है।






बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय विषाद परिताप घनेरे।। प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना।।_अर्थ_हे नाथ ! आपने वन के बहुत_से भय, विषाद और संताप कहे। परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु ( आप ) के वियोग ( से होनेवाले दु:ख ) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते।





अस जियो जानि सुजान सिरोमनि। लेइय संग मोहि छाड़िअ जनि।। बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी।।_अर्थ_ऐसा जी में जानकर, हे सुजानशिरोमणि ! आप मुझे साथ ले लीजिये, यहां न छोड़िये। हे स्वामी ! मैं अधिक क्या विनती करूं ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जाननेवाले हैं।





राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान। दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान।।_अर्थ_हे दीनबंधु ! हे सुन्दर ! हे सुखदेनेवाले ! हे शील और प्रेम के भण्डार ! यदि अवधि ( चौदह वर्ष ) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं तो जान लीजिये कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे।





मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।। सबहि भांति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।_अर्थ_क्षण_क्षण में आपके चरणकमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर कर दूंगी।





पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउं बाई मुदित मन माहीं। श्रम कन सहित स्याह तनु देखें। कहीं दुख समउ प्राणपति देखे।।_अर्थ_आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूंगी ( पंखा झलूंगी )। पसीने की बूंदों सहित स्याम शरीर देखकर_प्राणपति के दर्शन करते हुए दु:ख के लिये मुझे अवकाश ही कहां रहेगा ?





 को प्रभु संग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधूहिं जिमि ससक सियारा।। मैं सुकुमारी नाथ बन जोगू। तुम्हहिं उचित तप मो कहुं भोगू।।_अर्थ_प्रभु के ( रहते ) मेरी ओर आंख उठाकर देखनेवाला कौन है ( अर्थात् कोई नहीं देख सकता )! जैसे सिंह की स्त्री सिंहनी को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूं और नाथ वन के योग्य हैं ? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय भोग ?





ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदय बिलगान। तौं प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पांवर प्रान।।_अर्थ_ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय नहीं फटा तो, हे प्रभु ! ( मालुम होता है ) ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुख सहेंगे।





अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी संभारी।। देखि दशा रघुपति जियं जाना।बचन राखें नहीं राखिहिं प्राना।।_अर्थ_ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गयीं। वे वचन के वियोग को भी न संभाल सकीं। ( अर्थात् शरीर से वियोग की बात तो अलग रही, वचन से भी वियोग की बात सुनकर वे अत्यन्त विकल हो गयीं ) उनकी यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहां रखने से ये प्राणों को न रखेंगी।





कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोच चलहु बन साथा।। नहिं विषाद कर अवसर आजू। बेगि करहु बनगवन समाजू।।_अर्थ_तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज विषाद करने का अवसर नहीं है। तुरंत वनगमन की तैयारी करो।





 कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिस पाई।। बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जानि निठुर बिसरि जनि जाइ।।_अर्थ_श्रीरामचन्दजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। ( माता ने कहा_) बेटा ! जल्दी लौटकर प्रजा के दु:ख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाय।





फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउं नयन मनोहर जोरी।। सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जियं बदनु बिनु जोइहि।।_अर्थ_हे विधाता ! क्या मेरी दशा फिर पलटेगी ? हे पुत्र ! यह सुन्दर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते_जी तुम्हारा चांद_सा मुखड़ा फिर देखेगी !





बहुरि बच्छ कहि लाल कहि रघुपति रघुबर तात। कबहिं बोलाइ लगाई हियं हरषि निरखिहउं गात।।_अर्थ_ हे तात ! ‘वत्स’ कहकर ‘लाल’ कहकर ‘रघुपति’ कहकर ‘रघुवर’ कहकर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊंगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूंगी।





लखि सनेह कातर महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी।। राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेह न जाइ बखाना।।_अर्थ_यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई है और इतनी अधिक व्याकुल है कि मुंह से वचन नहीं निकलता, श्रीरामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता।





तब जानकी सासु पद लागी। सुनिय माय मैं परम अभागी।। सेवा समय दैअं बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हां।।_अर्थ_तब जानकी जी सास के पांव लगीं और बोलीं_ हे माता ! सुनिये, मैं बड़ी ही अभागिनि हूं। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे बनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया।

Wednesday, 13 April 2022

अयोध्याकाण्ड

कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी।। सुकृति सील सुख सीवं सुहाई। जनम लाभ कइ  अवधि अघाई।।_अर्थ_हे तात ! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द_मंगलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुन्दर सीमा है और जन्म लेने के लाभ का पूर्णतम अवधि है;





जेहिं चाहत नर नारि सब अति आरती एहि भांति। जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति।।_अर्थ_तथा जिस ( लग्न ) को सभी स्त्री_पुरुष अत्यन्त व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरत्_ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं।





तात जाऊं बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।। पितु समीप तब जाएहु भैया। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैया।।_अर्थ_हे तात ! मैं बलैया लेती हूं, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया ! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गयी है। माता बलिहारी जाती है।





मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।। सुख मकरंद भरे त्रियसूला। निरखि राम मनु भवंरु न भूला।।_अर्थ_माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर_जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुखरूपी मकरन्द ( पुष्परस ) से भरे थे और श्री ( राजलक्ष्मी ) के मूल थे_ऐसे वचन रूपी फूलों को देखकर श्रीरामचन्द्रजी का मनरूपी भौंरा उनपर नहीं भूला।





धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।। पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहं सब भांति मोर बड़ काजू।।_अर्थ_धर्म की धूरी धारण करने वाले श्रीरामचन्द्रजी माता से मीठे बचनों में बोले_ पिता ने मुझे कानन का राज दिया है जहां सब तरह से मेरा कल्याण है।





आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।। जनि सनेहबस डरपसि भोरे। आनंद अंब अनुग्रह तोरे।।_अर्थ_हे माता मुझे आज्ञा दो जिससे वन जाना मंगलमय हो। स्नेहवश होकर हे माता डरो नहीं,  तुम्हारे अनुग्रह से सब आनंद होगा।





बरस चारिदस बिपिन बहि करि पितु वचन प्रवान। आइ पार पुनि देखिहउं मन जनि करसि मलान।। चौदह वर्ष वन में रहकर पिता का वचन प्रमाणित कर मैं आकर तुम्हारे चरणों का दर्शन करूंगा। तू मन में दुख न कर।





बचन विनीत मधुर रघुबर के। सर सम लागे मातु उर करके।। सहज सूखि सुनि सीतल बानी। जिमि  जवास परे पावस पानी।।_अर्थ_रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के ये मीठे और मधुर वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। माता का मन ऐसे सूख गया जैसे जवास पर बरसात का पानी पड़ गया हो।





कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुं मृगी सुनि केहरि नादू।। नयन सजल तन थर थर कांपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी।।_अर्थ_हृदय का विषाद कुछ कहा नहीं जाता। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हिरनी विकल हो गयी हो। नेत्रों में जल भर आया, शरीर थर_थर कांपने लगा। मानो मछली मांजा ( पहली वर्षा का फेन ) खाकर बदहवास हो गयी हो !





धरि धीरज सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी।। तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे।।_अर्थ_धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गद्गद् वचन कहने लगीं_हे तात ! तुम तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो। तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते थे।





राजु देन कहुं सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहि अपराधा।। तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू।।_अर्थ_राज्य देने के लिये उन्होंने ही शुभ दिन सोधवाया था। फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा ? हे तात ! मुझे इसका कारण सुनाओ !  सूर्यवंश ( रूपी वन ) को जलाने के लिये अग्नि कौन हो गया ?
निरखहिं राम रुख सचिव सुत कारनु कहेउ बुझाई। सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्रजी का रुख देखकर मंत्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसंग को सुनकर वे गूंगी जैसी ( चुप ) रह गयीं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता।





राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूं भांति उर दारुन दाहू।। लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति जान सदा सब काहू।।_अर्थ_न रख सकती है, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। ( मन में सोचती हैं कि देखो_) विधाता की चाल सदा सबके लिये टेढ़ी होती है। लिखने लगे चन्द्रमा और लिख गया राहू ! 





धर्म सनेह उभय मति घेरी। भइ गति सांप छुछुंदरि केरि।। राखउं सुतहि करउं अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू।।_अर्थ_धर्म और स्नेह दोनों ने कौसल्याजी की बुद्धि को घेर लिया। उनकी दशा सांप_छुछुंदरकी_सी हो गयी। वे सोचने लगीं कि मैं अनुरोध ( हठ ) करके पुत्र को रख लेती हूं तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है।





कहउं जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी।। बहुरि समुझि तिय धरम सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।_अर्थ_और यदि वन जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है। इस प्रकार के धर्म_संकट में पड़कर रानी विशेष रूप से सोच के वश हो गयीं। फिर बुद्धिमति कौसल्याजी स्त्री_धर्म ( पतिव्रत_धर्म ) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रों को समान जानकर_





सरल सुभायं राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी।। तात जाऊं बलि कीन्हेसु नीका। पितु आयसु सब धर्मक टीका।।_अर्थ_सरल स्वभाववाली श्रीरामचन्द्रजी की माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं_हे तात ! मैं बलिहारी जाती हूं, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है।





राजु देन कहि दीन्हा बनु मोहि न सो दुख लेसु। तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु।।_अर्थ_राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दु:ख नहीं है। ( दु:ख तो इस बात का है कि ) तुम्हारे बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बड़ा भारी क्लेश होगा।
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जासु जानि बड़ी माता। जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। जौं कानन सत अवध समाना।।  _अर्थ_ हे तात ! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा हो तो माता को ( पिता से ) बड़ी जानकर वन को मत जाओ। किन्तु यदि पिता_माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के समान है।





पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी।। अंतहु उचित नृपहि बनवासू। बय बिलोकि हियं होई हरांसू।।_अर्थ_वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियां माता।  वहां के पशु_पक्षी तुम्हारे चरण_ कमलों के सेवक होंगे। राजा के लिये अन्त में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी ( सुकुमार ) अवस्था देखकर हृदय में दु:ख होता है।





बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी।। जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयं होइ संदेहू।।_अर्थ_हे रघुवंश के तिलक ! वन बड़ा भाग्यवान हैं और यह अवध अभागी है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र ! यदि मैं कहूं कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में संदेह होगा ( कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं )।





पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के। ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊं।। मैं सुनि बचन बैठी पछिताऊं।।_अर्थ_हे पुत्र ! तुम सभी के परम प्रिय हो। प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो। वही ( प्राणाधार ) तुम कहते हो कि माता ! मैं वन को जाऊं और मैं तुम्हारे बचनों  सुनकर बैठी पछताती रहूं।





यह बिचारि नहिं करउं हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ। मानि मातु कर शांत बलि सुरति बिसरि जनि जाइ।।_अर्थ_यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती। बेटा ! मैं बलैया लेती हूं, माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना।





देव पितर सब तुम्हहिं गोसाईं। राखहुं पलक नयन की नाईं।। अवधि  प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुणाकर धर्म धुरीना।।_अर्थ_हे गोसाईं ! सब देव और पितर  तुम्हारी वैसे ही रक्षा करें, जैसे पलकें आंखों  रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवास की अवधि ( चौदह वर्ष ) जल है, प्रियजन और कुटुम्बी मछली हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करनेवाले हो।





अस बिचारि सोई करहु उपाई। सबहिं जियत जेहिं भेंटहु आई।। जाहु सुखेन बनहिं बलि जाऊं। करि अनाथ जन परिजन गाऊं।।_अर्थ_ऐसा विचार कर वही उपाय करना जिसमें सबके जीतेजी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूं, तुम सेवकों, परिवारवालों और नगरभर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ।





सब कर आजु सुकृति फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।। बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहिं जानी।।_अर्मुथ_ सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। इस प्रकार बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनि जानकर माता श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में लिपट गयीं। 





दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाइ बिलाप कलापा।। राम उठाई मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।_अर्थ_हृदय में भयानक दु:सह संताप छा गया। उस समय के बहुविधि विलाप का वर्णन नहीं किया जा सकता। श्रीरामचन्द्रजी ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया।





समाचार तेंही समय सुनि सीय उठी अकुलाइ। जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ।।_अर्थ_उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों चरणकमलों की वन्दना कर सिर नीचा करके बैठ गयीं।





दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी।। बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप यासिर पति प्रेम पुनीता।।_अर्थ_सास ने कोमल बाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि और पति के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नीचा मुख किये बैठी सोच रही हैं।





चलन चाहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।। की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।_अर्थ_जीवननाथ ( प्राणनाथ ) वन को चलना चाहते हैं। देखें किस पुण्यवान् से उनका साथ होगा_शरीर और प्राण दोनों साथ जायेंगे या केवल प्राणही से इनका साथ होगा ? विधाता की करनी कुछ जानी नहीं जाती।





चारु चरन नख लेखति धरनीं। नूपुर मुख्य मधुर कबि बरनी।। मनहुं प्रेम बस बिनती करहीं। हमहिं सीय पग जनि परिहरहीं।।_अर्थ_सीताजी अपने सुंदर चरन के नखों से धरती कुरेद रही हैं। ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीताजी के चरण कभी हमारा त्याग न करें।





मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोलि देखि राम महतारी।। तात सुनहु सीय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी।।_अर्थ_सीताजी सुन्दर नेत्रों से जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर श्रीरामजी की माता कोसल्याजी बोलीं_हे तात ! सीता अत्यंत ही सुकुमारी है तथा सास ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी हैं।





पिता जनक भूपालमनि ससुर भानुकुल भानु। पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु।।_अर्थ_इनके पिता जनक जी राजाओं के शिरोमणि हैं; ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलानेवाले तथा गुण और रूप के भण्डार हैं।





ज्मैं पुनि पुत्रवधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।। नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउं प्रान जानकिहिं लाई।।_अर्थ_फिर मैंने रूप की राशि, सुदर गुण और शीलवती प्यारी पुत्रवधू पायी है। मैंने इन ( जानकी ) को आंखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं।





कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।। फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।।_अर्थ_इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़_प्यार के साथ स्नेहरूपी जल से सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने फलने के समय विधाता बाम हो गये। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा।





पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सीय न दीन्ह पग अवधि कठोरा।। जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊं। दीपबाति नहिं टारन कहऊं।।_अर्थ_सीता ने पलंग के ऊपर, गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान ( सावधानी से ) इनकी रखवाली करती रही हूं ! कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती।





सोई सीय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होई रघुनाथा।। चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।।_अर्थ_वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ ! उसे क्या आज्ञा होती है ? चन्द्रमा की किरणों का रस ( अमृत ) चाहनेवाली  चकोरी सूर्य की ओर आंख किस तरह मिला सकती है।






करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जन्तु बन भूरि। बिष बाटिकां कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि।।_अर्थ_हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव_जन्तु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र ! क्या विष  वाटिका में सुन्दर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है ?





बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी।। पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहिं कलेसु न कानन काऊ।।_अर्थ_वन के लिये तो ब्रह्माजी ने विषयसुख को न जाननेवाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता।





कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।। सिय बन बसिहि तात केहि भांति। चित्रलिखित कपि देखि डेराती।।_अर्थ_अथवा तपस्वियों की स्त्रियां वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्या के लिये सब भोग त्याग दिये हैं। हे पुत्र ! जो तस्वीर के बन्दर को देखकर डर जाती हैं वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी ? 





सुरसरि सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।। अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउं जानकिहि सोई।।_अर्थ_देवसरोवर के कमलवन में विचरण करनेवाली हंसिनि क्या गरैयों ( तलैयों ) में रहने के योग्य है ? ऐसा विचार कर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूं ?





जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहं होई बहुत अवलंबा।। सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधां जनु सानी।।_अर्थ_माता कहती हैं_यदि सीता घर में रहें तो मुझे बहुत सहारा हो जाय। श्रीरामचन्द्र जी ने माता की प्रिय बाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेह रूपी अमृत से सनी हुई थी,





कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्ह मातु परितोष। लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष।।_अर्थ_विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को संतुष्ट किया। फिर वन के गुण_दोष प्रकट करके वे जानकीजी को समझाने लगे।

Monday, 28 February 2022

अयोध्याकाण्ड

सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।। निज प्रतिबिंबु बरकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।_अर्थ_कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड़ आ जाय, पर भाई ! स्त्रियों की गति ( चाल ) नहीं जानी जाती।





काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ। का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।_अर्थ_आग क्या नहीं जला सकती ! समुद्र में क्या नहीं समा सकता ! अबला कहलाने वाली प्रबल स्त्री ( जाति ) क्या नहीं कर सकती ! और जगत् में काल किसको नहीं खाता !





का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।। एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।_अर्थ_ विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब क्या दिखाना चाहता है ! एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा नहीं किया, दुर्बुद्धि कैकेयी को विचार कर वर नहीं दिया।





जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गाजनु।। एक धर्म परमिति पहिचाने। नृपहिं  दोषु  देहिं सयाने।।_अर्थ_जो हठ करके ( कैकेयी की बात को पूरा करने में अड़े रहकर ) स्वयं सब दु:खों के पात्र हो गये। स्त्री के विशेष वश होने के कारण मानो उनका ज्ञान और गुण जाता रहा। एक ( दूसरे ) जो धर्म की मर्यादा को जानते हैं  और सयाने हैं, वे राजा को दोष नहीं देते।





सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।। एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भांय सुनि रहहीं।।_अर्थ_वे शिबि, दधीचि और हरिश्चन्द्र की कहानी एक_दूसरे से बखान कर कहते हैं। कोई एक सुनकर उदासी न भाव से रह जाते हैं ( कुछ बोलते नहीं ) ।





कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।। सुकृति जाहि अस कहत तुम्हारे। राम भरत कहुं प्रानपिआरे।।_अर्थ_ कोई हाथों से कान मूंदकर और जीभ को दांतों तले दबाकर कहते हैं कि यह बात झूठ है, ऐसी बात कहने से तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जायेंगे। भरत जी को तो श्रीरामचन्द्रजी प्राणों के समान प्यारे हैं।






चन्दु चवै बरु अनल कन सुधा होई बिषतूल। सपनेहुं कबहुं न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।_अर्थ_चन्द्रमा चाहे ( शीतल किरणों की जगह ) आग की चिंगारियां बरसाने लगे और अमृत चाहे विष के समान हो जाय, परन्तु भरत स्वप्न में भी श्रीरामचन्द्रजी के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे।






एक बिधातहिं दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिनु जेहीं। खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह राहु उर मिटा उछाहू।।_अर्थ_कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गयी, सब किसी को सोच हो गया। हृदय में दु:सह जलन है  आनन्द_उत्साह मिट गया।





बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई कैकेई केरी।। लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।_अर्थ_ब्राह्मणों की स्त्रियां, कुल की माननीय बड़ी_बूढ़ी और जो कैकेयी की परम_प्रिय थीं, वे उसके शील की सराहना करके उसे सीख देने लगीं। पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते हैं।





भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।। करहु राम पर सहज सनेहू। केहि अपराध आजु बनु देहू।।_अर्थ_( वे कहती हैं_ ) तुम तो सदा कहा करती थीं कि श्रीरामचन्द्र के समान मुझको भरत भी प्यारे नहीं हैं; इस बात को सारा जगत् जानता है। श्रीरामचन्द्रजी पर भी तो तुम स्वाभाविक ही स्नेह करती रही हो। आज किस अपराध से उन्हें वन देती हो?





कबहुं न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।। कौसल्या अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर जारा।।_अर्थ_तुमने कभी सौतिया डाह नहीं किया। सारा देश तुम्हारे प्रेम और विश्वास को जानता है। अब कौशल्या ने तुम्हारा कौन_सा बिगाड़ कर दिया, जिसके कारण तुमने सारे नगर पर वज्र गिरा दिया।





सीय कि पिय संग परिहरहिं लखनु कि रहिहहिं धाम। राज कि भूंजब भरत पुर नृपु कि रहिहहिं बिनु राम।।_अर्थ_क्या सीताजी अपने पति ( श्रीरामचन्द्रजी ) का साथ छोड़ देंगी ?  क्या लक्ष्मणजी श्रीरामचन्द्रजी के बिना घर रह सकेंगे ? क्या भरत श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्यापुरी का राज्य भोग सकेंगे ? और क्या राजा श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीवित रह सकेंगे ? ( अर्थात् न सीताजी यहां रहेंगी, न लक्ष्मणजी रहेंगे न भर्ती राज करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़ हो जायगा। 






अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।। भरतहिं अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।_अर्थ_हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराज पद दो, पर श्रीरामचन्द्रजी का वन में क्या काम है !





नाहिंन राम राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।। गुर गृह बसहुं रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी राज के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की दूरी को धारण करनेवाले विषय रस से रूखे हैं ( अर्थात् उनमें विषयाशक्ति है ही नहीं। ( इसलिये तुम यह शंका न करो कि श्री रामजी वन न गये तो भरत के राज्य में विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो ) तुम राजा से दूसरा ऐसा ( यह ) वर ले लो श्रीराम घर छोड़कर गुरु के घर रहें।





जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लगिहि कछु हाथ तुम्हारे।। जौं परिहास कीन्हि कछु होई। जौं कहि प्रगट जनावहु सोई।।_अर्थ_जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। यदि तुमने कुछ हंसी की हो तो उसे प्रगट में कहकर जना दो ( कि मैंने दिल्लगी की है )।





राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहहिं सुनि तुम्ह कहुं लोगू।। उठहु बेगि सोई करहु उपाई। जेहिं बिधि सोकु कलंकु नसाई।।_अर्थ_राम_सरीखा पुत्र क्या वन के योग्य है ? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेंगे ! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपाय से इस शोक और कलंक का नाश हो। 





जेहिं भांति सोकु कलंकु जाय उपाय करि कुल पालहि। हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसर चालहि।। जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चन्द बिनु जिमि जामिनी। जिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जिमि भामिनी।।_अर्थ_जिस तरह ( नगरभर का ) शोक और तुम्हारा कलंक मिटे, वहीं उपाय करके कुल की रक्षा कर। वन जाते हुए श्रीरामजी को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदासजी कहते हैं_जैसे सूर्य के बिना दिन, प्राण के बिना शरीर और चन्द्रमा के बिना रात ( निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाते हैं ) वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्या हो जायेगी; हे भामिनि ! तू अपने हृदय में इस बात को समझ ( विचारकर देख ) तो सही। 




सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित। तेईं कछु कान न दीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।_अर्थ_इस प्रकार सखियों ने ऐसी सीख दी जो सुनने में मीठी और परिणाम में हितकारी थी। पर कुटिला कुबरी की सिखाती पढ़ाई हुई कैकेयी ने इसपर जरा भी कान नहीं दिया।





उतरु न देई दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।। ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी।  कहत मतिमन्द अभागी।।_अर्थ_कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दु:सह क्रोध के मारे रूखी हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूखी बाघिन हरिनियों को देख रही हो। तब सखियों ने रोग को असाध्य समझकर उसे छोड़ दिया। सब उसको मन्दबुद्धि अभागिनि कहती हुई चल दीं।





राजु करत यह दैअं बिगोई। कीन्हेसि अस जस करई न कोई।। एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारी। जेहिं कुचालिहि कोटिक गारीं।।_अर्थ_राज्य करते हुए इस कैकेई को दैव ने नष्ट कर दिया। इसने जैसा कुछ किया, वैसा कोई भी न करेगा। नगर के सब स्त्री_पुरुष ऐसा विलाप कर रहे हैं और उस कुमारी कैकेयी को करोड़ों गालियां दे रहे हैं।





जरहिं बिषम जल लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा।। बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। तनु जलचर गन सूखत पानी।।_अर्थ_लोग विषमज्वर ( भयानक दु:ख की आग ) से जल रहे हैं। लंबी सांसें लेते हुए वे कहते कि श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीने की कौन आशा है। महान् वियोग ( की आशंका ) से प्रजा ऐसी व्याकुल हो गयी है मानो पानी सूखने के समय जलचर जीवों का समुदाय व्याकुल हो।





अति बिषाद बस लोग लोगाईं। गए मातु पहिं रामु गोसाईं।। मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ।।_अर्थ_सभी पुरुष और स्त्रियां अत्यन्त विषाद के वश हो रहे हैं। स्वामि श्रीरामचन्द्रजी माता कौशल्या के पास गये। उनका मुख प्रसन्न हैं और चित्त में चौगुना चाव ( उत्साह ) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें। ( श्रीरामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता कैकेयी की आज्ञा और पिता की मौन सम्मति पाकर वह सोच मिट गया।)





नव गयंदु रघुबीर मनु राजु मलान समान। छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का मन  पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बांधने की कांटेदार लोहे की बेरी के समान है। ‘वन जाना है’ यह सुनकर अपने को बंधन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनन्द बढ़ गया है।




रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।। दीन्ह असीस लाइ उर लीन्हे। भूषण बसन निछावरि कीन्हे।।_अर्थ_ रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये।





बार बार मुख चुंबति माता नयन नेह जलु पुलकित गाता।। गोद राखि पुनि हृदय लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।।_अर्थ_माता बार_बार श्रीरामचन्द्रजी का मुख चूम रही है। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अंग पुलकित हो गये हैं। श्रीराम को अपनी गोद में बैठाकर  फिर हृदय से लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये।





प्रेम प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।। सादर सुन्दर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।_अर्थ_उनका प्रेम और आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा लिया हो। बड़े आदर के साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं_