Thursday, 19 January 2023

अयोध्याकाण्ड

कहि सिय लखनहिं सखहिं सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई।। करि प्रणामु देखत बन बागा।  कहत महातम अति अनुरागा।।_अर्थ_उन्होंने अपने श्रीमुख से सीताजी, लक्ष्मण जी और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनायी। तदनन्तर प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बड़े प्रेम से महात्म्य कहते हुए_


एहि बिधि आई बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी।। मुदित नहाइ कीन्ह सिवा सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा।।_अर्थ_इस प्रकार श्रीराम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुन्दर मंडलों को देनेवाली है। फिर आनंदपूर्वक ( त्रिवेणी में ) स्नान करके शिवजी की सेवा ( पूजा ) की और विधिपूर्वक तीर्थदेवताओं का पूजन किया।




एहि बिधि आई बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी।। मुदित नहाइ कीन्ह सिवा सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा।।_अर्थ_इस प्रकार श्रीराम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुन्दर मंडलों को देनेवाली है। फिर आनंदपूर्वक ( त्रिवेणी में ) स्नान करके शिवजी की सेवा ( पूजा ) की और विधिपूर्वक तीर्थदेवताओं का पूजन किया।




तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए।। मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानन्द मनहुं तनु पाई।।_अर्थ_( स्नान, पूजन आदि सब करके ) तब प्रभु श्रीरामजी भरद्वाजजी के पास आये। उन्हें दण्डवत् करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया। मुनि के मन का आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो उन्हें ब्रह्मानंद की राशि मिल गयी हो।




दीन्ह असीस मुनी उर अति अनंदु अस जानि। लोचन गोचर सुकृत फल मनहुं किए बिधि आनि।।_अर्थ_मुनीश्वर भरद्वाजजी ने आशीर्वाद दिया। उनके हृदय में ऐसा जानकर आनंद हुआ कि आज विधाता ने ( श्रीसीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कराकर ) मानो हमारे संपूर्ण पुण्यों के फल लाकर आंखों के सामने कर दिया।




कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे।। कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए अमित मुनि मनहुं अमीके।।_अर्थ_कुशल पूछकर मुनिराज ने उन्हें आसन दिये और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें संतुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे अच्छे _अच्छे कंद_मूल, फल और अंकुर लाकर दिये।




सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाये।। भएं बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे।।_अर्थ_सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्रीरामचन्द्र जी ने उन सुन्दर मूल_फलों को बड़ी रुचि के साथ खाया। थकावट दूर होने से श्रीरामचन्द्र जी सुखी हो गये। तब भरद्वाजजी ने उनसे कोमल वचन कहे_




आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू।। सफल सकल सुभ साधन साजू।। राम तुम्हहिं अवलोकत आजू।।_अर्थ_हे राम ! आपका दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थसेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा तप, जोग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे संपूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल हो गया।




लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हरें दरस आस सब पूजी।। अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू।।_अर्थ_लाभ अवधि सुख की सीमा ( प्रभु के दर्शन को छोड़कर ) दूसरी कुछ भी नहीं है। आपके दर्शन से मेरी सब आशाएं पूर्ण हो गयीं। अब कृपा करके यह वरदान दीजिये कि आपके चरणकमलों से मेरा स्वाभाविक प्रेम हो।


कर्म बचन मन छाड़ि जलु जब लगि जनु न तुम्हार। तब लगि सुखु सपनेहुं नहीं किएं कोटि उपचार।।_अर्थ_ जबतक कर्म, वचन और मन से चल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता तब तक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता।



सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने।। तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भांति कहि सबहिं सुनावा।।_अर्थ_मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव_भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान श्रीरामचन्द्रजी ( लीला की दृष्टि से ) सकुचा गये। तब ( अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए ) श्रीरामचन्द्रजी ने भरद्वाज मुनि का सुन्दर सुयश करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार से कहकर सबको सुनाया।



सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने।। तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भांति कहि सबहिं सुनावा।।_अर्थ_मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव_भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान श्रीरामचन्द्रजी ( लीला की दृष्टि से ) सकुचा गये। तब ( अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए ) श्रीरामचन्द्रजी ने भरद्वाज मुनि का सुन्दर सुयश करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार से कहकर सबको सुनाया।


यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी।। भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए।।_अर्थ_यह ( श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के आने की ) खबर पाकर प्रयागनिवासी  ब्रह्मचारी, मुनि, तपस्वी, सिद्ध और उदासी सब श्रीदशरथजी के सुंदर पुत्रों को देखने के लिये भरद्वाजजी के आश्रम पर आये।


राम प्रणाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए भरि लोयन लाहू।। देहिं असीस परम सुखु  फिरे। सबहिं सराहत सुंदरता हिये।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। नेत्रों का लाभ पाकर सब आनंदित हो गये और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे। श्रीरामजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए वे लौटे।


सो बड़ हो गुन गन गेहू। जेहिं मुनीस तुम्ह आदर देहू।। मुनि रघुबीर परस्पर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं।।_अर्थ_( उन्होंने कहा_) हे मुनीश्वर ! जिसको आप आदर दें, वहीं बड़ा है और वही सब गुण समूहों का घर है। इस प्रकार श्रीरामजी और मुनि भारद्वाजजी दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं और अनिवर्चनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं।

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