यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी।। भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए।।_अर्थ_यह ( श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के आने की ) खबर पाकर प्रयागनिवासी ब्रह्मचारी, मुनि, तपस्वी, सिद्ध और उदासी सब श्रीदशरथजी के सुंदर पुत्रों को देखने के लिये भरद्वाजजी के आश्रम पर आये।
राम प्रणाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए भरि लोयन लाहू।। देहिं असीस परम सुखु फिरे। सबहिं सराहत सुंदरता हिये।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। नेत्रों का लाभ पाकर सब आनंदित हो गये और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे। श्रीरामजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए वे लौटे।
राम कीन्ह विश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ। चले सहित सिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ।।_अर्थ_श्रीरामजी ने रात को वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके वे प्रसन्नता के साथ मुनि को सिर नवाकर श्रीसीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ वे चले।
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।। मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुं अहहिं।।_अर्थ_( चलते समय ) बड़े प्रेम से श्रीरामजी ने मुनि से कहा_हे नाथ ! बताइए हम किस मार्ग से जायं। मुनि मन में हंसकर श्रीरामजी से कहते हैं कि आपके लिये सभी मार्ग सुगम हैं।
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए।। सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहिं मगु दीख हमारा।।_अर्थ_फिर उनके साथ लिये मुनियों ने शिष्यों को बुलाया। ( साथ ही जाने की बात ) सुनते ही चित्त में हर्षित हो कोई पचास शिष्य आ गये। सभी पर श्रीरामजी का अपार प्रेम है। सभी कहते हैं कि हमारा मार्ग देखा हुआ है।
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन्ह बहुत जनम सुकृत सब कीन्हे।। करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदय चले रघुराई।।_अर्थ_ तब मुनि ने ( चुनकर ) चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृति ( पुण्य ) किये थे। श्रीरघुनाथजी प्रणाम कर और ऋषि की आज्ञा पाकर हृदय में बड़े ही आनंदित होकर चले।
ग्राम निकट सब निकसहिं जाई। देखहिं दरसु नारि नर धाई।। होहिं सनाथ जनमु फलु पाई। फिरहिं दुखित मन संग पठाई।।_अर्थ_जब वे किसी गांव के पास होकर निकलते हैं। जन्म का फल पाकर वे ( सदा के अनाथ ) साथ हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर ( शरीर से साथ न रहने के कारण ) दु:खी होकर लौट आते हैं।
बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाई मन काम। उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।।_अर्थ_ तदनन्तर श्रीरामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया; वे मनचाही वस्तु ( अनन्य भक्ति ) पाकर लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान किया, जो श्रीरामचन्द्र जी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था।
बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाई मन काम। उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।।_अर्थ_ तदनन्तर श्रीरामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया; वे मनचाही वस्तु ( अनन्य भक्ति ) पाकर लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान, जो श्रीरामचन्द्र जी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था।
सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी।। लखन राम सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ।।_अर्थ_यमुनाजी के किनारे पर रहनेवाले स्त्री_पुरुष ( यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुन्दर सुन्दर नवयुवक और एक परम सुन्दरी स्त्री आ रही है ) सब अपना_अपना काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी का सौन्दर्य देखकर अपने भाग्य की बड़ाई करने लगे।
अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउं गाउं बूझत सकुचाहीं।। जे तिन्ह महं बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने।।_अर्थ_उनके मन में ( परिचय जानने की ) बहुत _सी लालसाएं भरी हैं। उन लोगों में जो बयोवृद्ध और चतुर थे; उन्होंने युक्ति से श्रीरामचन्द्र जी को पहचान लिया।
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई।। सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी राय न कीन्ह भल नाहीं।।_अर्थ_उन्होंने सब कथा सब लोगों सुनायी कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं। यह सुनकर सब लोग दु:खित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजा ने अच्छा नहीं नहीं किया।
तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेज पुंज लघु बयस सुहावा। करि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी।।_अर्थ_उसी अवसर पर वहां एक तपस्वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुन्दर था। उसकी गति कवि नहीं जानते ( अथवा वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता )। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्रीरामचन्द्र जी का प्रेमी था। ( इस तेजपुंज तापस के प्रसंग को कुछ टीकाकार क्षेपक मानते हैं कि कुछ लोगों के देखने में यह अप्रसांगिक और ऊपर_से जोड़ा हुआ साक्षजान भी पड़ता है, परन्तु यह सभी प्राचीन प्रतियों में है। गुसाईं जी अलौकिक अनुभवी पुरुष थे। पता नहीं, यहां इस प्रसंग के रखने में क्या रहस्य है; परन्तु यह क्षेपक तो नहीं है। इस तापस को जब ‘कबि अलखित गति’ कहते हैं, तब निश्चय पूर्वक कौन कह सकता है। हमारी समझ से ये तापस या तो श्री हनुमानजी थे अथवा ध्यानस्थ तुलसीदास जी।
सजल नयन तन पुलकित निज इष्टदेव पहिचानि। परेउ दंड जिमि धरनि तल दसा न जाइ बखानि।।_अर्थ_अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया। वह दण्ड की भांति पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी ( प्रेमविह्वल ) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा।। मनहुं प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सब कोऊ।।_अर्थ_श्रीरामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। ( उसे इतना आनन्द हुआ ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखनेवाले ) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ ( परम तत्व ) दोनों शरीर धारण किये मिल रहे हैं।
बहुरि लखन पायन्ह सोई धावा। लीन्ह उठाई उमगि अनुरागा।। पुनि सिर चरन धूलि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्ह असीसा।।_अर्थ_फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा। फिर उसने सीताजी की चरणधूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीताजी ने भी उसको अपना छोटा बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया।
कीन्ह निषाद दंडवत तेंही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही।। पिता नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाई जिमि भूखा।।_अर्थ_फिर निषादराज ने उसको दण्डवत् किया। श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह ( उस निषाद से ) आनंदित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्रीरामजी की सौन्दर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुन्दर भोजन पाकर आनंदित होता है।
कीन्ह निषाद दंडवत तेंही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही।। पिता नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाई जिमि भूखा।।_अर्थ_फिर निषादराज ने उसको दण्डवत् किया। श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह ( उस निषाद से ) आनंदित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्रीरामजी की सौन्दर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुन्दर भोजन पाकर आनंदित होता है।
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह। राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइं कीन्ह।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्रजी ने सखा गुह को अनेकों तरह से ( घर लौट जाने के लिये ) समझाया। श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया।
पुनि सियं राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रणाम बहोरी।। चले संसीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कि करत बड़ाई।।_अर्थ_फिर सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्य कन्या यमुनाजी की बड़ाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक आगे चले।
मार्ग चलहु पयादेहि पाएं। ज्योतिषु झूठ हमारे भाएं।। कांटक पंथ गिरि कानन भारी। तेहि महं साथ नारि सुकुमारी।।_अर्थ_(ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी ) तुमलोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ में आता है कि ज्योतिषशास्त्र झूठा ही है। भारी जंगल और बड़े_बड़े पहाड़ों का दुर्गम रास्ता है। तिस पर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है।
करि केहरि बन जाइ न कोई। हम संग चलहु जो आयसु होई।। जाब जहां लगि तहां पहुंचाई। फिरब बहोरि तुम्हहिं सिरु नाई।।_अर्थ_हाथी और सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप जहां तक जायेंगे वहां तक पहुंचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आयेंगे।
एहि बिधि पूछहिं प्रेमबस पुलक गात जल नैन। कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहिं कहि बिनीत मृदु बैन।।_अर्थ_इस प्रकार वे यात्री प्रेमधन पुलकित शरीर हो और नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओंका ) जल भरकर पूछते हैं। किन्तु कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी कोमल विनय युक्त वचन कहकर उन्हें लौटा देते हैं।
एहि बिधि पूछहिं प्रेमबस पुलक गात जल नैन। कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहिं कहि बिनीत मृदु बैन।।_अर्थ_इस प्रकार वे यात्री प्रेमधन पुलकित शरीर हो और नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओंका ) जल भरकर पूछते हैं। किन्तु कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी कोमल विनय युक्त वचन कहकर उन्हें लौटा देते हैं।
जे पुर गांव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं।। केहि सुकृति केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए।।_अर्थ_ जो गांव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसापूर्वक ईर्ष्या करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान् ने किस शुभघड़ी में इनको बसाया था जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुंदर हो रहे हैं।
जे पुर गांव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं।। केहि सुकृति केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए।।_अर्थ_ जो गांव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसापूर्वक ईर्ष्या करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान् ने किस शुभघड़ी में इनको बसाया था जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुंदर हो रहे हैं।
जहां जहां राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावती नाहीं।। पुण्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहिं सराहहिं सुरपुर बासी।।_अर्थ_जहां_जहां श्रीरामचन्द्रजी के चरण चले जाते हैं, उनके समान इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं है। रास्ते के समीप बसने वाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं_स्वर्ग में रहनेवाले देवता भी उनकी सराहना करते हैं।
जे भरी नयन बिलोकहिं रामहिं। सीता लखन सहित घनस्यामहिं।। जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहिं देवसरि सरिस सराहहिं।।_अर्थ_ जो नेत्र भरकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित घनश्याम श्रीरामजी के दर्शन करते हैं, जिन तालाबों और नदियों में श्रीरामचन्द्र जी स्नान कर लेते हैं, देवसरोवर और देवनदियां भी उनकी बड़ाई करती हैं।
जेहिं तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कल्पतरु तासु बड़ाई।। परसि राम पद पदुम परागा।। मानति भूमि भूरि निज भागा।_अर्थ_जिस वृक्ष के नीचे प्रमु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों का रज स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती है।
छांह करहिं घन बिबुधगन बरसहिं सुमन सिहाहिं। देखत गिरि बन बिहग मृग राम चले मग जाहिं।।_अर्थ_रास्ते में बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और सिहाते हैं। पर्वत, वन और पशु_पक्षियों को देखते हुए श्रीरामजी रास्तेमें चले जा रहे हैं।
सीता लखन सहित रघुराई। गांव निकट सब निकसहिं जाई।। सुनि सब बालबृद्ध नर नारी। चलहिं तुरंत गृह काज बिसारी।।_अर्थ_सीताजी और लक्ष्मण जी सहित श्री रघुनाथ जी जब किसी गांव के पास से जा निकलते हैं तब उनका आना सुनते ही बालक, बूढ़े, स्त्री_पुरुष अपने घर का काम काज भूलकर तुरंत उन्हें देखने के लिये चल देते हैं।
बरनि न जाइ दशा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकहि सुरमनि ढ़ेरी।। एकन्ह एक बोलि सिख देहीं । लोचन राहु लेहु छन एही।।_अर्थ_उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्र ने चिंतामणि की ढेरी पा ली हो।
रामहिं देखि एक अनुरागे। चित्त चले जाहि संग लागे।। एक नयन मगन छबि उर आनी। होहिं सिरिल तन मन बर बानी।।_अर्थ_कोई श्रीरामचन्द्रजी को देखकर ऐसे अनुराग में भर गये हैं कि उन्हें देखते हुए उनके साथ लगे चले जा रहे हैं। कोई नेत्रमार्ग से उनकी छबि को हृदय में लाकर शरीर, मन और श्रेष्ठ वाणी से शिथिल हो जाते हैं ( अर्थात् उनके शरीर मन और वाणी का व्यवहार बन्द हो जाता है।
एक देखि बंट छांह भलि डासि मृदुल तृन पात। कहइ गवांइअ छिनुकु श्रमु गवनब कबहिं कि प्रात।।_अर्थ_कोई बड़े की सुन्दर छाया देखकर, वहां नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षणभर यहां बैठकर थकावट मिटा लीजिए। फिर चाहे अभी चले जाइयेगा चाहे सबेरे।
एक कलस भरि आनहिं पानी। अंचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी।। सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी।।_अर्थ_कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल बाणी से कहते हैं_नाथ ! आचमन तो कर लीजिये। उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका अत्यंत प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील श्रीरामचन्द्रजी ने_
जानि श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं।। मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा।।_अर्थ_मन में सीताजी को थकी हुई जानकर घड़ी भर बड़े की छाया में विश्राम किया। स्त्री_पुरुष आनन्दित होकर शोभा देखते हैं। अनुपम रूप ने उनके नेत्र और मनों को लुभा लिया है।
एकटक सब सोहहिं चहुं ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा।। तरुन तमाल बरन तनु सोहा।। देखत कोटि मदन मनु मोहा।।_अर्थ_सबलोग टकटकी लगाते श्रीरामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को चकोर की तरह ( तन्मय होकर ) देखते हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं। श्रीरामजी के नवीन तमाल वृक्ष के रंग का ( श्याम ) शरीर अत्यंत शोभा दे रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेव के मन मोहित हो जाते हैं।
दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के।। मुनिपट कटिन्ह कसे तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनुष तीरा।।_अर्थ_बिजली के_से रंग के लक्ष्मण जी बहुत ही भले मालूम होते हैं। वे नख से शिखा तक सुन्दर हैं, और मन को बहुत भाते हैं। दोनों मुनियों के ( वल्कल आदि ) वस्त्र पहने हैं और कमर में तरकस कसे हुए हैं। कमल के समान हाथों में धनुष _बाण शोभित हो रहे हैं।
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