जटा मुकुट सीसनि सुभाग उर भुज नयन बिसाल। सरद परब बिधु बदन बर वसंत स्वेद कन जाल।।_अर्थ_उनके सिरों पर सुन्दर जटाओं के मुकुट हैं; वक्ष:स्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखों पर पसीने की बूंदों का समूह शोभित हो रहा है।
बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी।। राम लखन सिय सुन्दरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई।।_अर्थ_उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि शोभा बहुत अधिक है, और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी की सुन्दरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं।
थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुं मृगी मृग देखि दिया से।। सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूछत अति सनेह सकुचाहीं।।_अर्थ_प्रेम के प्यासे ( वे गांवों के ) स्त्री_पुरुष ( इनके सौन्दर्य_माधुर्य की छटा देखकर ) ऐसे थकित रह गये जैसे दीपक को देखकर हिरणी और हिरण ( निस्तब्ध रह जाते हैं ) ! गांवों की स्त्रियां सीताजी के पास जाती हैं; परन्तु अत्यंत स्नेह के कारण पूछते हुए सकुचाती हैं।
बार बार सब लागहिं पाएं। कहहिं बचन मृदु सरल सुनाएं।। राजकुमारी बिनय हम करहीं। तिय सुभायं कछु पूछत डरहीं।।_अर्थ_बार_बार सब उनके पांव रखतीं और सहज ही सीधे _सादे कोमल बचना कहती हैं_हे राजकुमारी! हम विनती करती ( कुछ निवेदन करना चाहती ) हैं, परन्तु स्त्री स्वभाव के कारण पूछते हुए डरती हैं।
स्वामिनि अबिनय छबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवांरी।। राजकुमारी दोउ सहज सलोने। इन्ह की लहीं दुति मरकत सोने।।_अर्थ_हे स्वामिनि ! हमारी ढिठाई क्षमा कीजियेगा और हमको गवांरी जानकर बुरा न मानियेगा। ये दोनों राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय ( परम सुन्दर ) हैं। मरकतमनि ( पन्ने ) और सुवर्ण ने कान्ति इन्हीं से पायी है ( अर्थात् मरकतमनि और सुवर्ण में जो हरित और स्वर्ण वर्ण की आभा है वह इनकी हरिताभनील और स्वर्णकान्ति के एक कण के बराबर भी नहीं है।
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन। सरद सर्बरी नाथ मुखु सरद सरोरुह नैन।।_अर्थ_श्याम और गौर वर्ण है; दोनों ही परम सुन्दर और शोभा के नाम हैं। शरद्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान इनके मुख शरद् ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं।
कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।। सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुं मुसुकानी।।_अर्थ_हे सुमुखि ! कहो तो अपनी सुन्दरता से करोड़ों कामदेवों को लजानेवाले ये तुम्हारे कौन हैं ? उनको ऐसी प्रेममयी सुन्दर वाणी सीताजी सकुचा गयीं और मन_ही_मन मुस्करायीं।
तिन्हहिं बिलोकि बिलोकति धरनीं। दुहुं संकोच सकुचति बरबरनी।। सकुचि सप्रेम बाल मृगनयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी।।_अर्थ_उत्तम ( गौर ) वर्णवाली सीताजी उनको देखकर ( संकोचवश ) पृथ्वी की ओर उन्हें देखती हैं। वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं ( अर्थात् न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दु:ख होने का संकोच है और बताने में लज्जारूप संकोच )। हिरण के बच्चे के सदृश नेत्र वाली और कोकिल की_सी वाणी वाली सीताजी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं_
सहज सुभाय सुभाग तनु गोरे। नाम लखन लघु देवर मोरे।। बहुरि बदन बिधु अंचल ढ़ांकी। पिय तन चितइ भौंह करि बांकी।।_अर्थ_ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजी ने ( लज्जावाश ) अपने चन्द्रमुख को आंचल से ढ़ककर और प्रियतम ( श्रीरामजी ) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके,_
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।। भईं मुदित सब ग्राम बधूटी। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं।।_अर्थ_खंजन पक्षी के_से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये ( श्रीरामचन्द्रजी ) मेरे पति हैं। यह जानकर गांव की सब युवती स्त्रियां इस प्रकार आनन्दित हुईं मानो कंगालों ने धन की राशियां लूट ली हों।
अति सप्रेम सिय पायं परि बहुविधि देहिं असीस। सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस।।_अर्थ_वे अत्यंत सप्रेम से सीताजी के पैरों पड़कर बहुत प्रकार से आशिष देती हैं ( शुभकामना करती हैं ) कि जबतक शेषजी के सिर पर पृथ्वी रहे, जबतक तुम सदा सुहागिनि बनी रहो,
पार्बती सम पति प्रिय होहू। देबि न हमपर छाड़ब छोहू।। पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मार्ग फिरिअ बहोरी।।_अर्थ_और पार्वती जी के समान अपने अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी ! हमपर कृपा न छोड़ना ( बनाते रखना ) । हम बार_बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें, ।
दरसनु देब जानि निज दासी। लगीं सीय सब प्रेम पियासी।। मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं।।_अर्थ_और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीताजी ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा, और मधुर वचन कह_कहकर उनका भलीभांति संतोष किया। मानो चांदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो।
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूंछेउ मगु लोगन्ह मृदु बानी।। सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी।।_अर्थ_उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर लक्ष्मण जी ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री_पुरुष दु:खी हो गये। उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रों में ( वियोग की सम्भावना से प्रेम का ) जल भर आया।
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