Sunday, 26 February 2023

अयोध्याकाण्ड

जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं।। एक कहहिं ए सहज सुहाए। अपुन प्रगट भए बिधि न बनाएं ।।_अर्थ_जों ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत् में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं_ये स्वभाव से ही सुंदर हैं ( इनका सौन्दर्य_माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है )। ये अपने_आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाये नहीं।




जहं लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मनु गोचर बरनी।। देखहु खोजि भुवन दस चारी। कहु अस पुरुष कहां असि नारी।।_अर्थ_हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आनेवाली विधाता की करनी को जहां तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहां तक चौदहों लोकों में ढ़ूंढ़ देखो, ऐसा पुरुष और ऐसी स्त्री कहां हैं ? ( कहीं भी नहीं है, इसी से सिद्ध है कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग है और अपनी महिमा से अपने आप निर्मित हुए हैं।





इन्हहिं देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।। कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। जेहिं इरिषा बन अनि दुराए।।_अर्थ_इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त ( मुग्ध ) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री_पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, किन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आये ( पूरे नहीं उतरे )। इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है।





एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं।। ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं_हम बहुत अधिक नहीं जानते। हां, अपने को परम धन्य अवश्य समझते हैं ( जो इनके दर्शन कर रहे हैं ) और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इन्हें देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे।







एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर। किमि चलिहिहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर।।_अर्थ_इस प्रकार प्रिय वचन कह_कहकर सब नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम ( कठिन ) मार्ग में कैसे चलेगें।




नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं सांझ समय जनु सोहीं।। मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयं कहहिं बर बानी।।_अर्थ_स्त्रियां स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी ( भावी वियोग की पीड़ा से ) सोह रही हों ( दुखी हो रही हों )। इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदय से उत्तम वाणी कहती हैं।




परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचित महि जिमि हृदय हमारे।। जौं जगदीस इन्हहिं बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा।।_अर्थ_इनके कोमल और लाल_लाल चरणों ( तलवों ) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?




जौं मांगा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आंखिन्ह माहीं।। जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय राम न देखन पाए।।_अर्थ_यदि ब्रह्मा से मांगे तो हे सखि ! ( हम तो उनसे मांगकर ) इन्हें अपनी आंखों में ही रखें ! जो स्त्री_पुरुष इस अवसर नहीं आये, वे श्रीसीतारामजी को नहीं देख सके।






सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहां लगि भाई।। समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई।।_अर्थ_उनके सौन्दर्य को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई ! अबतक वे कहां तक गये होंगे ? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का फल पाकर, विशेष आनंदित होकर लौटते हैं। 





गांव गांव अब होई अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू।। जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं।।_अर्थ_सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी के प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर गांव_गांव में ऐसा ही आनंद हो रहा है। जो लोग ( वनवास दिये जाने का ) कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राज_रानी ( दशरथ_कैकेयी ) को दोष लगाते हैं।




कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जेहि लोचन लाहू।। कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाई।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री _पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेह भरी सुन्दर बातें कर रहे हैं।




ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहां तें आए।। धन्य सो देसु सैलु बन गाऊं। जहं जहं  जाहिं धन्य सोइ ठाऊं।।_अर्थ_( कहते हैं _ ) वे माता_पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य हैं जहां से ये आते हैं। वह देश, पर्वत, वन और गांव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहां जहां ये जाते हैं।




सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहिं के सब भांति सनेही।। राम लखन पथ कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई।।_अर्थ_ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है जिसके ये  ( श्रीरामचन्द्र जी ) सब प्रकार से स्नेही हैं। पथिकरूप श्रीराम_लक्ष्मण की सुन्दर कथा सारे रास्ते  जंगल में जा गयी है।




एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत। जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत।।_रघुकुलरुपी कमल के खिलानेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मण जी सहित वन को देखते हुए चले जा रहे हैं। 




आगें राम लखनु बनु पाछें। तापस बेस बिराजत काछें।। उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें।।_अर्थ_आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मण जी सुशोभित हैं। तपस्वियों  के वेष बनाये दोनों बड़ी शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया।





बहुरि कहउं छबि जब मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई।। उपमा बहुरि कहउं जियं जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही।।_अर्थ_फिर जैसी छबि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूं_ मानो बसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति ( कामदेव की स्त्री ) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूं कि मानो बुध ( चन्द्रमा के पुत्र ) और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी ( चन्द्रमा की स्त्री ) सोह रही हो।

Thursday, 9 February 2023

अयोध्या काण्ड

मिटा मोद मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेइ जनु छीने।। समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा।।_अर्थ_उनका आनन्द मिट गया और मन ऐसे उदास हो गये मानो विधाता दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो। कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया।




लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ। फेरे सब प्रिय बचन अहि लिये लाइ मन साथ।।_अर्थ_तब लक्ष्मण जी और जानकी जी सहित श्री रघुनाथ जी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उसके मनों को अपने साथ ही लगा लिया।



फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहिं दोषु देहिं मन माहीं।। सहित बिषाद परस्पर कहहीं। बिधि करतब उल्टे सब अहहीं।।_अर्थ_लौटते हुए वे स्त्री_पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन_ही_मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर बड़े ही विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उल्टे हैं।





निपट निरंकुस निष्ठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू।। रूख कल्पतरु सागरु खारा। जेहिं पड़े बन राजकुमारा।।_अर्थ_वह विधाता बिलकुल निरंकुश ( स्वतंत्र ) निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमा को रोगी ( घटने_बढ़नेवाला ) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है। 




जौं पै इन्हहिं दीन्ह बनवासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू।। ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना।।_अर्थ_जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग_विलास व्यर्थ ही बनाये। जब ये बिना जूते के ( नंगे ही पैरों ) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन ( सवारियां ) व्यर्थ ही रचे।





ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता।। तरुबर बास इन्हहिं बिधि दीन्हा। धवल नाम रचि रचि श्रमु कीन्हा।।_अर्थ_जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुंदर सेज ( पलंग और बिछौने ) किसलिए बनाता है ? विधाता ने जब इनको बड़े _बड़े पेड़ों ( के नीचे ) का निवास दिया, तब उज्जवल महलों को बना_बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया।




जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार। बिबिध भांति भूषन बसन बादि किए करतार।।_अर्थ_जो ये सुंदर और अत्यंत सुकुमार होकर मुनियों के ( वल्कल ) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार ( विधाता ) ने भांति_भांति के गहने और कपड़े वृथा ही बनाये।

Thursday, 2 February 2023

अयोध्याकाण्ड

जटा मुकुट सीसनि सुभाग उर भुज नयन बिसाल। सरद परब बिधु बदन बर वसंत स्वेद कन जाल।।_अर्थ_उनके सिरों पर सुन्दर जटाओं के मुकुट हैं; वक्ष:स्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखों पर पसीने की बूंदों का समूह शोभित हो रहा है।




बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी।। राम लखन सिय सुन्दरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई।।_अर्थ_उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि शोभा बहुत अधिक है, और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी की सुन्दरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं। 





थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुं मृगी मृग देखि दिया से।। सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूछत अति सनेह सकुचाहीं।।_अर्थ_प्रेम के प्यासे ( वे गांवों के ) स्त्री_पुरुष ( इनके सौन्दर्य_माधुर्य की छटा देखकर ) ऐसे थकित रह गये जैसे दीपक को देखकर हिरणी और हिरण ( निस्तब्ध रह जाते हैं ) ! गांवों की स्त्रियां सीताजी के पास जाती हैं; परन्तु अत्यंत स्नेह के कारण पूछते हुए सकुचाती हैं।






बार बार सब लागहिं पाएं। कहहिं बचन मृदु सरल सुनाएं।। राजकुमारी बिनय हम करहीं। तिय सुभायं कछु पूछत डरहीं।।_अर्थ_बार_बार सब उनके पांव रखतीं और सहज ही सीधे _सादे कोमल बचना कहती हैं_हे राजकुमारी! हम विनती करती ( कुछ निवेदन करना चाहती ) हैं, परन्तु स्त्री स्वभाव के कारण पूछते हुए डरती हैं।






स्वामिनि अबिनय छबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवांरी।। राजकुमारी दोउ सहज सलोने। इन्ह की लहीं दुति मरकत सोने।।_अर्थ_हे स्वामिनि ! हमारी ढिठाई क्षमा कीजियेगा और हमको गवांरी जानकर बुरा न मानियेगा। ये दोनों राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय ( परम सुन्दर ) हैं। मरकतमनि ( पन्ने ) और सुवर्ण ने कान्ति इन्हीं से पायी है ( अर्थात् मरकतमनि और सुवर्ण में जो हरित और स्वर्ण वर्ण की आभा है वह इनकी हरिताभनील और स्वर्णकान्ति के एक कण के बराबर भी नहीं है।






स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन। सरद सर्बरी नाथ मुखु सरद सरोरुह नैन।।_अर्थ_श्याम और गौर वर्ण है; दोनों ही परम सुन्दर और शोभा के नाम हैं। शरद्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान इनके मुख शरद् ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं।




कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।। सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुं मुसुकानी।।_अर्थ_हे सुमुखि ! कहो तो अपनी सुन्दरता से करोड़ों कामदेवों को लजानेवाले ये तुम्हारे कौन हैं ? उनको ऐसी प्रेममयी सुन्दर वाणी सीताजी सकुचा गयीं और मन_ही_मन मुस्करायीं।






तिन्हहिं बिलोकि बिलोकति धरनीं। दुहुं संकोच सकुचति बरबरनी।। सकुचि सप्रेम बाल मृगनयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी।।_अर्थ_उत्तम ( गौर ) वर्णवाली सीताजी उनको देखकर ( संकोचवश ) पृथ्वी की ओर उन्हें देखती हैं। वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं ( अर्थात् न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दु:ख होने का संकोच है और बताने में लज्जारूप संकोच )। हिरण के बच्चे के सदृश नेत्र वाली और कोकिल की_सी वाणी वाली सीताजी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं_





सहज सुभाय सुभाग तनु गोरे। नाम लखन लघु देवर मोरे।। बहुरि बदन बिधु अंचल ढ़ांकी। पिय तन चितइ भौंह करि बांकी।।_अर्थ_ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजी ने ( लज्जावाश ) अपने चन्द्रमुख को आंचल से ढ़ककर और प्रियतम ( श्रीरामजी ) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके,_





खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।। भईं मुदित सब ग्राम बधूटी। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं।।_अर्थ_खंजन पक्षी के_से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये ( श्रीरामचन्द्रजी ) मेरे पति हैं। यह जानकर गांव की सब युवती स्त्रियां इस प्रकार आनन्दित  हुईं मानो कंगालों ने धन की राशियां लूट ली हों।




अति सप्रेम सिय पायं परि बहुविधि देहिं असीस। सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस।।_अर्थ_वे अत्यंत सप्रेम से सीताजी के पैरों पड़कर बहुत प्रकार से आशिष देती हैं ( शुभकामना करती हैं ) कि जबतक शेषजी के सिर पर पृथ्वी रहे, जबतक तुम सदा सुहागिनि बनी रहो,






पार्बती सम पति प्रिय होहू। देबि न हमपर छाड़ब छोहू।। पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मार्ग फिरिअ बहोरी।।_अर्थ_और पार्वती जी के समान अपने अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी ! हमपर कृपा न छोड़ना ( बनाते रखना ) । हम बार_बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें, ।





दरसनु देब जानि निज दासी। लगीं सीय सब प्रेम पियासी।। मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं।।_अर्थ_और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीताजी ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा, और मधुर वचन कह_कहकर उनका भलीभांति संतोष किया। मानो चांदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो।




तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूंछेउ मगु लोगन्ह मृदु बानी।। सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी।।_अर्थ_उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर लक्ष्मण जी ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री_पुरुष दु:खी हो गये। उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रों में ( वियोग की सम्भावना से प्रेम का ) जल भर आया।