मिटा मोद मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेइ जनु छीने।। समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा।।_अर्थ_उनका आनन्द मिट गया और मन ऐसे उदास हो गये मानो विधाता दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो। कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया।
लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ। फेरे सब प्रिय बचन अहि लिये लाइ मन साथ।।_अर्थ_तब लक्ष्मण जी और जानकी जी सहित श्री रघुनाथ जी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उसके मनों को अपने साथ ही लगा लिया।
फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहिं दोषु देहिं मन माहीं।। सहित बिषाद परस्पर कहहीं। बिधि करतब उल्टे सब अहहीं।।_अर्थ_लौटते हुए वे स्त्री_पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन_ही_मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर बड़े ही विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उल्टे हैं।
निपट निरंकुस निष्ठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू।। रूख कल्पतरु सागरु खारा। जेहिं पड़े बन राजकुमारा।।_अर्थ_वह विधाता बिलकुल निरंकुश ( स्वतंत्र ) निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमा को रोगी ( घटने_बढ़नेवाला ) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है।
जौं पै इन्हहिं दीन्ह बनवासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू।। ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना।।_अर्थ_जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग_विलास व्यर्थ ही बनाये। जब ये बिना जूते के ( नंगे ही पैरों ) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन ( सवारियां ) व्यर्थ ही रचे।
ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता।। तरुबर बास इन्हहिं बिधि दीन्हा। धवल नाम रचि रचि श्रमु कीन्हा।।_अर्थ_जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुंदर सेज ( पलंग और बिछौने ) किसलिए बनाता है ? विधाता ने जब इनको बड़े _बड़े पेड़ों ( के नीचे ) का निवास दिया, तब उज्जवल महलों को बना_बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया।
जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार। बिबिध भांति भूषन बसन बादि किए करतार।।_अर्थ_जो ये सुंदर और अत्यंत सुकुमार होकर मुनियों के ( वल्कल ) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार ( विधाता ) ने भांति_भांति के गहने और कपड़े वृथा ही बनाये।
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